Nov 29, 2007

प्रार्थना

साधन को दो संदर्भ प्रभो, मैं कंद कंद मंडराऊं,
इस द्वार तुम्हारी समता को, फिर मुक्त्छंद में पाऊँ

फिर शब्द मिलें आवेदन को
आदर्श मिलें संवेदन से
लपटों को जोड़े कर्मराग
आवेग जुड़ेँ स्पंदन से

साभार दिवा के पुरास्वप्न,
मरू मर्मर के त्रासद घर्षण
जब एक बनें आदर्श नाद
सम्पन्न प्रथम शोषित जन गण

उत्सुक्त बनूँ, संक्षिप्त बनूँ, निश्वास उठे, आभास बनूँ,
वनवास मुक्त संतृप्त रहूँ, उन्मुक्त्कंठ से गाऊँ

साधन को दो संदर्भ प्रभो.......

चौड़े हों फैलें , नीक काम
छोटे बन फू़ हों लोभ साम
सब राज काज निष्कपट सजें
बैरी हों छूटें भेद दाम

शैशव के मूल्य मढे हर मन
मूल्यों का समय चढ़े यौवन
भाषा से कोई नग्न न हो
च्यूंटी काटूं तो स्वप्न न हो

तर्पण कर अगिन परिच्छा का, वर्णों की पूर्व प्रतिष्ठा का,
दर्पण की धुंधली किरणों में, हाँ रंग रंग मुस्काऊँ

साधन को दो संदर्भ प्रभो.......

[ अभी और भी है ???? ......]

Nov 26, 2007

शायद खुश

नींद को रात न मिली, गुम गुम सी हुई
भोर की बात मिली, तो बेहतर थे

सूखते एक किनारे से किनारा कर, कर
मोटी बरसात चली, तो बेहतर थे

बागी़ तक़दीर के बोसे, मौसम नम, नम
हंसी की फांक जली तो बेहतर थे

बकौल हाशिये से , सिफ़र के अगल, बगल
गीली बारात ढली, तो बेहतर थे

अधेड़

.....

इस बार बैठे ख्यालों में रंग नमकीन नहीं
मेरी शोहरत के बवालों में, संग दूरबीन नहीं

पास की नज़र में, लग लगा काला टीका
उम्र रौनक की सही, पर इतनी बेहतरीन नहीं

पैर बिवाईयों के जोर ही चलें, ओस की सरहद
नाक के नुक्कड़ की किस्मत, तमाशाबीन नहीं

शोर कितना करे ये जोश, मगज मारी के चले
जुबां की चुप पे सगे गोश्त की संगीन नहीं

आज इरादे को मेरा जिस्म सोख ले कैसे
जिस पसीने में तेरी सोच नाज़नीन नहीं

सबर मालिक, के नींद अभी बाकी है यहाँ
ये खबर के अजगर की रूमानी आस्तीन नहीं

आज अभी दिल नहीं दो उँगलियाँ उठाने का
वरना इस सोच की आज - अभी आमीन नहीं

...
इस बार बैठे ख्यालों में रंग नमकीन नहीं
मेरी शोहरत के बवालों में, संग दूरबीन नहीं

Nov 19, 2007

स्वागत / एक, दो, तीन चार

लिखना शुरू करता हूँ कि....

"कांच के कोठरे में पत्थरों का ढेर, मैं हूँ या मेरा भ्रम;
कौन देखता रहता है, इन किर्चों के जुडे रहने का क्रम;
आज बर्फ पिघलते - कैसे बहेगा नद .... भीम या मद्धम ? "

फिर रूक जाता हूँ और उचक कर धूसरित खिड़की के दूसरी ओर का जमा खर्च नापने में जुटता हूँ। पहले आवारापन को चलाने... बकौल ...

एक अदद घर है । घर की बाहरी दीवार है । दीवार के पार गड्ढे वाली सड़क के पार लटका पुराना छज्जा है, नाई की दुकान के ऊपर, जिसकी ईंटें मटमैली काईयों के अंग लगी हैं। बिजली के तारों और पतंग के मंझों और मकडी के जालों और कौवे के जुगाडे तिनकों की संवेदनाओं में उलझा स्तंभ छज्जे के बायीं तरफ अभी भी बरकरार है , हालांकी पिछली बारिश ने उसे हल्का उम्रदराज़ और बना छोडा है। झूलता सा है ज्योंकि पैरका कंक्रीट कीचड से हिल गया है - लगता है बगल की पुरानी नीम पे अब गिरा तो तब गिरा । लेकिन गिरेगा नहीं और मोहल्ले भर के केबल के तारों के जंजाल को समेटे रहेगा और सुनता रहेगा हार्मुनियाँ की दुकान से निकलता दर्द -ऐ - डिस्को या जो भी ताजा तरीन हित गीत है - जब तक कि तमाम सड़क गीत के आलाप से त्रस्त हो जाये और गीत अपनी पायदान दर पायदान ढुलक कर अगले को मौका दे ही दे ।

पुरानी नीम कि निम्बौलियाँ हर साल की तरह खम्भे के पैरों में गिरेंगी और मुँह अँधेरे गली के शोहदे नीम की टहनियों के जोड़ भी तोड़ेंगे और फिर दातूनी आजमाईश करने के बाद चाय कि दुकान में बैठ कर ताजी अफवाहों का बाज़ार गर्म भी करेंगे । छज्जे की पीठ पार जहाँ मेरी नज़र नहीं जाती वहाँ की न तो मिट्टी दिखती है और न ही धूल । ............

तमाम हो चुकी / हुई थी पुरानी बातों की तरह यह भी एक सपना है , कल्पना है, कांच का कोठार या पत्थरों का अम्बार - लेकिन जो ज़माना ऐसा सच था, वैसा बसर था, अभी, इस जमात तक पहुँचते पहुँचते उसके बडे-सारे किरदार तो मर खप गए, वो जहाँ के थे वहां कस्बा बढ़ कर शहर में घुल गया, उस कस्बे के सतरंगी रिक्शा बदले काले पीले ऑटो / टेंपो में, चौराहे के सफ़ेद वर्दी वाले पुलिसियों की जगह आ गयीं लाल बत्तियों में, कम्पोसिटर हो गए कंप्यूटर, खड़ंजे डामर खा कर सडकों में बदले क्यूंकि नगरपालिका का विकास नगरनिगम के नाम से हुआ, कुछ पार्षद बने विधायक, थोडे विधायक तब्दील हुए मंत्रियों में, लाल, नीली बत्तियों की गाडियाँ बढ़ी, फली, फूली ।

समय दूसरा है सदी दूसरी है, कुल मिला के सिवाय पटवारी और मुंशी के, गुणा भाग एकदम दूसरा है।

दुनिया पार कर दौड़ते, समय के एक कदम पीछे कदम सम्हालने में अपनी इकहरी कमर में दोतहे बल पड़े, बालों में छ्टान - घटान और उनकी सफेदी में जुड़े जोड़ । क्या जोडा - चार दीवारें - दीवारों में सीलन वाली पपड़ी, किताबे और ढेर सारा चाय पीने का सामान । रंग वाले एल्बम में पीले पड़ते लम्हें , (अब ) दैनंदिनी के नए सन्सकरण और निजी, व्यक्तिगत भ्रम, सवालों के अम्बार और जवाबों के पुलिंदे ।

पिछली कलम की सियाही बहुत धुंधली है और इस कीबोर्ड की चमक तेज है। फिर भी मैं अपने भरम का मालिक, समझता हूँ, कि कभी कभी जो नहीं है उसकी सोच का लुत्फ़ है तो सही। माने रोज़ के बही - खाते से तंग दिमाग को कहीं सैर पर ले जा कर बहलाना फुसलाना वगैरह वहैरह। बशर्ते नए - पुराने की बहस अपने आप से चालू न की जाये। दिमाग का बायाँ हिस्सा पुराने की वकालत करे और दायां हिस्सा नए की और आपका मुँह बगैर बोले होंठ हिलाये और बीवी परेशान हो जाये कि पतिदेव का स्वलाप किसी अंदरूनी नए ज़माने की दीमागी बीमारी का इशारा तो नहीं ।

हज़ार बार कोशिश करे कि ऐसा न हो फिर भी होता है - मानो न मानो अपने आपसे वाद विवाद का गुल्ली डंडा अकेले बैठके खेलने का खेल तो है वैसे ही जैसे अपने भरम की गरमी को समेटे जिलाये रखना । और फ़िर पूछना अपने आपसे सवाल - एक नहीं अनेक - और शुरू करना सम वेदना से विषम वेदना के बीच अंगुली से बटन दबाना -

कह दे माँ क्या देखूं ?
केंचुल उतरने का समय है क्या ?
एक सांस के पीछे की सांस में कितना स्टेमिना बचा है ?
दुनिया गोल ही है न ?
क्या वहां भी बुलडोज़र चलने शुरू हो गए होंगे ?
कौन कहता है कि यहाँ सड़कें तेज भागती हैं ( उम्र भी ?)
सच्ची कि पुराने शहर के इतिहास का एक छोर पुनः प्रगति को समर्पित होने के लिए आतुर है ?
क्या किसी और के पास भी उन यादों का पलस्तर रुका है ?
भ्रम मेरी कमजोरी है या आदत ?
डर मेरी मज़बूरी है या नशा ?
खाकी, नीला , हरा या नारंगी ?
ताक़त, शोहरत या सुकून ? (सच में क्या ? )
खिचडी में रंग कौनसा ?
भूख की कितनी उमर?
किसका कितना मोतियाबिंद ? और... और ... और .. ??

पहला पहले भ्रम के नाम, दूसरा डर के लिए, तीसरा अगले सोच की आनेवाली आज़ादी को और चौथा उन सभी को जो मेरी संवेदनाओं से थोडे़से जुड़ते हैं - स्वागत

Nov 17, 2007

प्रथम

मेरे सहमे कदम, दरवाज़े तक टहलते, ठहरे
अभी भी दस्तक की दहलीज़ थमे, हिचके इकहरे
मरोड़ता रहा हथेली के मुहाने,
अभी वक्त को शुरू होना हैं
इस बार कलम को नहीं उँगलियों को सहेजना है
.....शायद