एक जाता हुआ साल - ३ बहुरि थके देसी शेर - अरब, शंख , पद्म शुभकामनाएँ - एक गपोड़्शंख
वहां सो चुकी है रात, या मौसम सिंदूरी है
तुम्हारे और मेरे बीच, बस बातों की दूरी है
आधे से अधूरे छू गए, थोडी सी बक-बक में
जो रह गए वो मनचले फेहरिस्त पूरी है
इस साल की मीयाद का दम ख़म खतम सा है
नए साल खुश रहना बहुत .. बहुत .. ज़रूरी है
शुभ कामनाएं २००८ की - मां, कार्तिक, किसलय, मोना, मनीष
"एक कबूतर चिट्ठी लेकर, पहली-पहली बार उड़ा, मौसम एक गुलेल लिए था पट से नीचे आन गिरा" (श्री दुष्यंत कुमार की "साये में धूप" से )
Dec 31, 2007
Dec 28, 2007
फुग्गों की बिरादरी
क्या अभी भी यार तुम, शामें उड़ाते हो ?
चौंकते हो रात में
परछाईयों को बूझते हो,
पलट कम्बल मुंह उलट
लम्बाईयों में ऊंघते हो,
दिन सुने किस्से कहानी
नित अकेले सूंघते हो,
और फ़िर तख्ता पलट कर
चोर मन में गूंधते हो
क्या गुल्लकों में डर डरे नीदें जगाते हो ?
क्या अभी भी ....
तुम, तुम के आने से
अभी कुप्प फूलते हो क्या,
तभी तो सज संवर पुर जोर
मिस्टर कूदते हो क्या,
फुदक कर बात, बातों में
शरम से सूजते हो क्या,
और फ़िर तंज़ तानों से
तमक कर रूठते हो क्या,
क्या हक्लकाकर, मिचमिचा आँखें बनाते हो ?
क्या अभी भी .....
चिरोंजी छीलते हो
टेसुओं से रंग करते हो,
दबा कर पत्तियों को
तितलियों को तंग करते हो,
फकत झकलेट मौकों में
जबर की जंग करते हो,
बचा जो कुछ भी करते हो
सबर के संग करते हो,
तमातम फूँक कर सेमल के लब, फाहे बनाते हो ।
....
कहो न यार तुम इस दम तलक, कंचे लुकाते हो ।
....
कहो तो यार उन सीपों से तुम, कैरी छिलाते हो ।
....
फिर कहो अनकही सांसों से तुम, फुग्गे फुलाते हो ।
कहो ....
[प्यादे को पहलवान के .. आस पास ... बनने में अभी बहुत .. बहुत .. बहुत .. वक़्त है - (लेकिन लिखता कौन कमबख्त है सूरमा बनने के लिए) - उम्मीद से ज्यादा अपेक्षाओं( http://tarang-yunus.blogspot.com/2007/12/blog-post_27.html )का तहेदिल ... ]
चौंकते हो रात में
परछाईयों को बूझते हो,
पलट कम्बल मुंह उलट
लम्बाईयों में ऊंघते हो,
दिन सुने किस्से कहानी
नित अकेले सूंघते हो,
और फ़िर तख्ता पलट कर
चोर मन में गूंधते हो
क्या गुल्लकों में डर डरे नीदें जगाते हो ?
क्या अभी भी ....
तुम, तुम के आने से
अभी कुप्प फूलते हो क्या,
तभी तो सज संवर पुर जोर
मिस्टर कूदते हो क्या,
फुदक कर बात, बातों में
शरम से सूजते हो क्या,
और फ़िर तंज़ तानों से
तमक कर रूठते हो क्या,
क्या हक्लकाकर, मिचमिचा आँखें बनाते हो ?
क्या अभी भी .....
चिरोंजी छीलते हो
टेसुओं से रंग करते हो,
दबा कर पत्तियों को
तितलियों को तंग करते हो,
फकत झकलेट मौकों में
जबर की जंग करते हो,
बचा जो कुछ भी करते हो
सबर के संग करते हो,
तमातम फूँक कर सेमल के लब, फाहे बनाते हो ।
....
कहो न यार तुम इस दम तलक, कंचे लुकाते हो ।
....
कहो तो यार उन सीपों से तुम, कैरी छिलाते हो ।
....
फिर कहो अनकही सांसों से तुम, फुग्गे फुलाते हो ।
कहो ....
[प्यादे को पहलवान के .. आस पास ... बनने में अभी बहुत .. बहुत .. बहुत .. वक़्त है - (लेकिन लिखता कौन कमबख्त है सूरमा बनने के लिए) - उम्मीद से ज्यादा अपेक्षाओं( http://tarang-yunus.blogspot.com/2007/12/blog-post_27.html )का तहेदिल ... ]
Dec 25, 2007
बुन कर
सागरों में सुर, नहीं स्वर, झर रहा है।
आगतों के बीच में घर कर रहा है।
वेदना का मान है क्या ?
धुन बुना सदगान है क्या ?
शब्दशः नश्वर समय में ,
अंततः अभिमान है क्या ?
फिर समर्पण तोलता है ,
अनमना तह खोलता है ,
सर पटकता है वहीं पर ,
धुर उसी मुँह बोलता है ,
अंतरों में मींज कर, नश्तर रहा है।
सृजन का उन्माद है यह,
मगन का संवाद है यह,
निशा निश्चित छिन्न कीलित,
प्रमद का अवसाद है यह,
अंतरालों के शिखर से,
बंद तालों की उमर तक,
बह लगे रेलों के संदल,
स्याह प्यालों के पहर तक,
अमृतों को दंश दे कर, तर रहा है।
आगतों के बीच में घर कर रहा है।
वेदना का मान है क्या ?
धुन बुना सदगान है क्या ?
शब्दशः नश्वर समय में ,
अंततः अभिमान है क्या ?
फिर समर्पण तोलता है ,
अनमना तह खोलता है ,
सर पटकता है वहीं पर ,
धुर उसी मुँह बोलता है ,
अंतरों में मींज कर, नश्तर रहा है।
सृजन का उन्माद है यह,
मगन का संवाद है यह,
निशा निश्चित छिन्न कीलित,
प्रमद का अवसाद है यह,
अंतरालों के शिखर से,
बंद तालों की उमर तक,
बह लगे रेलों के संदल,
स्याह प्यालों के पहर तक,
अमृतों को दंश दे कर, तर रहा है।
Dec 20, 2007
ढलते हुए/ फिर सम्हलते ...
उम्र किस-किसकी, यूं ही सुल्तान होती है।
हड्डी घिसती है, तो ही अरमान होती है।
बेलें चढ़ती-गिरती, हैं दफन दब जाती है।
कोयला बनती है, जो ही जलान होती है।
तार जुड़ते हैं तो तमाशे भी मिल पाते है।
बात जो सच लगे, वो ही जबान होती है।
आ सलाम दे सफर, ये घुप रुकी हवाएँ हैं।
समय की भाप ले, सो ही सोपान होतीं है।
भर समेट तारे हैं, यूं के नमक पारे हैं।
बूँद उट्ठे साथी, तो ही आसमान होती है।
कौम में, अमन-इंक़लाब में, दरारें सोहबत हैं।
फरेब अपनी किस्मत, यूं ही बयान होती है।
[ साभार - उन सब के नाम जिनसे पिछले एक महीने में पढ़ के बहुत नया जाना / सीखा - लुत्फ़ उठाया - इस नवेली दुनिया में कदम बढाया - उम्मीद से कई गुना पाया और उन सब के नाम भी जो आए / पधारे - हौसलाअफजा़ई कर गए / मंडराए - आशाओं से भी ज्यादा पीठ ठोंक के नंबर दे गए - मनीष ]
हड्डी घिसती है, तो ही अरमान होती है।
बेलें चढ़ती-गिरती, हैं दफन दब जाती है।
कोयला बनती है, जो ही जलान होती है।
तार जुड़ते हैं तो तमाशे भी मिल पाते है।
बात जो सच लगे, वो ही जबान होती है।
आ सलाम दे सफर, ये घुप रुकी हवाएँ हैं।
समय की भाप ले, सो ही सोपान होतीं है।
भर समेट तारे हैं, यूं के नमक पारे हैं।
बूँद उट्ठे साथी, तो ही आसमान होती है।
कौम में, अमन-इंक़लाब में, दरारें सोहबत हैं।
फरेब अपनी किस्मत, यूं ही बयान होती है।
[ साभार - उन सब के नाम जिनसे पिछले एक महीने में पढ़ के बहुत नया जाना / सीखा - लुत्फ़ उठाया - इस नवेली दुनिया में कदम बढाया - उम्मीद से कई गुना पाया और उन सब के नाम भी जो आए / पधारे - हौसलाअफजा़ई कर गए / मंडराए - आशाओं से भी ज्यादा पीठ ठोंक के नंबर दे गए - मनीष ]
Dec 18, 2007
चलोगे ?
आओ चलो ...
आओ चलो बादल को खो आएं।
इमली के बीजों को,
सरौते से छांट कर,
खड़िया से पटिया में,
धाप-चींटी काट कर,
खटिया से तारों को,
रात-रात बात कर,
इकन्नी की चाकलेट,
चार खाने बाँट कर,
संतरे के छीकल से आंखो को धो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।
धूल पड़े ब्लेडों से,
गिल्ली की फांक छाल,
खपरैल कूट मूट,
गिप्पी की सात ढाल ,
तेल चुपड़ चुटिया की,
झूल मूल ताल ताल,
गुलाबी फिराक लेस,
रिब्बन जोड़ लाल लाल ,
चमेली की बेलों में, अल्हड़ को बो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।
कनखी की फाकों में,
फुस्फुसान गड़प गुडुप,
थप्पडा़ये गालों में,
सूंत बेंत फड़क फुडु़क,
चाय के गिलासों को,
फूँक फूँक सुड़क सुडुक,
चूरन को कंचों को,
जेब जोब हड़क हुडुक,
मुर्गा बन किलासों में लाज शरम रो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।
खिचडी़ के मेले की,
भीड़ के अकेले तुम,
चाट गर्म टिकिया की,
तीत संग खेले तुम,
चौरसिया चौहट्टे के,
पान-बीड़ी ठेले तुम,
गिलाफ में लिहाजों के,
बताशे के ढेले तुम,
जलेबी के शीरे से दोने भिगो आएं
आओ चलो बादल को खो आएं।
आओ चलो ...
[ धाप-चींटी :- ज़मीन में खाने बना कर खेलने का खेल / धाप-चींटी- चींटी -धाप-चींटी -धाप ; गिप्पी :- पिट्ठू / गिप्पी गेंद / 7 tiles ; खिचडी़ :-मकर संक्रान्ति; चौहट्टा - रीवा का बाजारी इलाका ]
आओ चलो बादल को खो आएं।
इमली के बीजों को,
सरौते से छांट कर,
खड़िया से पटिया में,
धाप-चींटी काट कर,
खटिया से तारों को,
रात-रात बात कर,
इकन्नी की चाकलेट,
चार खाने बाँट कर,
संतरे के छीकल से आंखो को धो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।
धूल पड़े ब्लेडों से,
गिल्ली की फांक छाल,
खपरैल कूट मूट,
गिप्पी की सात ढाल ,
तेल चुपड़ चुटिया की,
झूल मूल ताल ताल,
गुलाबी फिराक लेस,
रिब्बन जोड़ लाल लाल ,
चमेली की बेलों में, अल्हड़ को बो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।
कनखी की फाकों में,
फुस्फुसान गड़प गुडुप,
थप्पडा़ये गालों में,
सूंत बेंत फड़क फुडु़क,
चाय के गिलासों को,
फूँक फूँक सुड़क सुडुक,
चूरन को कंचों को,
जेब जोब हड़क हुडुक,
मुर्गा बन किलासों में लाज शरम रो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।
खिचडी़ के मेले की,
भीड़ के अकेले तुम,
चाट गर्म टिकिया की,
तीत संग खेले तुम,
चौरसिया चौहट्टे के,
पान-बीड़ी ठेले तुम,
गिलाफ में लिहाजों के,
बताशे के ढेले तुम,
जलेबी के शीरे से दोने भिगो आएं
आओ चलो बादल को खो आएं।
आओ चलो ...
[ धाप-चींटी :- ज़मीन में खाने बना कर खेलने का खेल / धाप-चींटी- चींटी -धाप-चींटी -धाप ; गिप्पी :- पिट्ठू / गिप्पी गेंद / 7 tiles ; खिचडी़ :-मकर संक्रान्ति; चौहट्टा - रीवा का बाजारी इलाका ]
Dec 14, 2007
बैनीआहपीनाला - एक नहीं दो दो
[ बचपन में इन्द्रधनुष के रंग रटने का यही फार्मूला होता था - जब तक अंग्रेजी माध्यम नहीं शुरू किया था ]
बैरंग चिट्ठी के कमज़ोर टिकट,
नीम की टहनी के बगल बनफूल गए।
आहट टटोलते, सरपट में बोलते,
हठीले, पिनकते, बाँहों में झूल गए।
पीस-पीस घोंटें, बहानों की चाशनी,
ना-नुकुर के कामों को, मांगों में भूल गए।
लाले लफंदर, छुटके खेलें गुडिया, जब बड़के स्कूल गए।
(किसलय -१० और कार्तिक - ३ के लिए )
बैरंग चिट्ठी के कमज़ोर टिकट,
नीम की टहनी के बगल बनफूल गए।
आहट टटोलते, सरपट में बोलते,
हठीले, पिनकते, बाँहों में झूल गए।
पीस-पीस घोंटें, बहानों की चाशनी,
ना-नुकुर के कामों को, मांगों में भूल गए।
लाले लफंदर, छुटके खेलें गुडिया, जब बड़के स्कूल गए।
(किसलय -१० और कार्तिक - ३ के लिए )
Dec 13, 2007
किर्चों में सजा इन्द्रधनुष
[ १९८६ की लिखी कविता जो अभी तक .. लगभग .. याद है - ब्लौग शुरू करने के पहले की शायद आख़िरी ]
जब,
सपने टूट गिरते हैं,
पतझड़ के पातों से, रूखे / मुरझाये
राख की मेड़ों से, ढहते/ भुरभुराए
दिशाएं जब, बन पड़ती हैं तमस घनघोर,
और लीलने लगता है - एक, शून्यलाप कठोर,
तब कहीं
ढ़ुलकी बूंदों से,
धरती बन जाती है नरम
फूट पड़ता है अदद अंकुर,
रुकता नहीं क्रम
हो न हताश
मत छोड़ विश्वास
उठ पुरूष ,
जीवित है इन्द्रधनुष
जब,
सपने टूट गिरते हैं,
पतझड़ के पातों से, रूखे / मुरझाये
राख की मेड़ों से, ढहते/ भुरभुराए
दिशाएं जब, बन पड़ती हैं तमस घनघोर,
और लीलने लगता है - एक, शून्यलाप कठोर,
तब कहीं
ढ़ुलकी बूंदों से,
धरती बन जाती है नरम
फूट पड़ता है अदद अंकुर,
रुकता नहीं क्रम
हो न हताश
मत छोड़ विश्वास
उठ पुरूष ,
जीवित है इन्द्रधनुष
Dec 12, 2007
छोटे सवाल
आसमां का रंग बदहवास आसमानी क्यूं है?
अमां इसी बात से कचहरी में परेशानी क्यूं हैं?
लौट आयेंगे सब तारे वो अँधेरा तो मुंह ढले
छुप छुप के ओट बैठी ये नौजवानी क्यूं हैं ?
हम हाथों में बरक़रार है सांसों की नर्म साख
कजरे की तहें सोख के ये गरम पानी क्यूं है?
हाँ हम रहेंगे उम्र भर तक इस भरम सही
तो हर करम की उम्र अब तक सयानी क्यूँ है ?
सामान तो समेट के रख लें हर ज़िंदा पल
किस कल जिलाबदर हो ये कहानी क्यूं है ?
अमां इसी बात से कचहरी में परेशानी क्यूं हैं?
लौट आयेंगे सब तारे वो अँधेरा तो मुंह ढले
छुप छुप के ओट बैठी ये नौजवानी क्यूं हैं ?
हम हाथों में बरक़रार है सांसों की नर्म साख
कजरे की तहें सोख के ये गरम पानी क्यूं है?
हाँ हम रहेंगे उम्र भर तक इस भरम सही
तो हर करम की उम्र अब तक सयानी क्यूँ है ?
सामान तो समेट के रख लें हर ज़िंदा पल
किस कल जिलाबदर हो ये कहानी क्यूं है ?
Dec 5, 2007
दो बातों के बीच की जगह ...
अथ
मौन की बड़ी ई... ई..... लम्बी उम्र,
नापती रही पटरियों के खुमार;
और चुप की आँखें सजीलीं,
ताकतीं रहीं देहरी दुआर;
गाँठ को बांधकर, याद सो तोलती रही / मद्धम;
होंठ से झेंपकर, नींद में बोलती रही/ सरगम;
सकपकाए शब्दों को, पीती रही / रोशनाई;
भूल गई , झूल गई , रीती भई / अंगडाई;
कभी -कहीं मिले नहीं,
कृष्ण, करुण , स्मृति बुहार ;
कहीं -कभी छूट पाए,
शेष प्रश्न, स्वर , सिंगार ;
पतझड़ के भूरे से, पात के अधूरे में / बांधे ;
रात चढी सांसों से, गर्म नर्म बातों में / आधे ;
उँगलियों की झिरी से, जाले से देखा / मुस्कुराये;
अटपटे संवाद चढ़े , फले, महके /हिचकिचाए ;
टिकटिकी निहारों में,
आज फिर, अनेक बार ;
शर्म के कगारों में,
तोल, मोल, जोड़ प्यार;
इति
मौन की बड़ी ई... ई..... लम्बी उम्र,
नापती रही पटरियों के खुमार;
और चुप की आँखें सजीलीं,
ताकतीं रहीं देहरी दुआर;
गाँठ को बांधकर, याद सो तोलती रही / मद्धम;
होंठ से झेंपकर, नींद में बोलती रही/ सरगम;
सकपकाए शब्दों को, पीती रही / रोशनाई;
भूल गई , झूल गई , रीती भई / अंगडाई;
कभी -कहीं मिले नहीं,
कृष्ण, करुण , स्मृति बुहार ;
कहीं -कभी छूट पाए,
शेष प्रश्न, स्वर , सिंगार ;
पतझड़ के भूरे से, पात के अधूरे में / बांधे ;
रात चढी सांसों से, गर्म नर्म बातों में / आधे ;
उँगलियों की झिरी से, जाले से देखा / मुस्कुराये;
अटपटे संवाद चढ़े , फले, महके /हिचकिचाए ;
टिकटिकी निहारों में,
आज फिर, अनेक बार ;
शर्म के कगारों में,
तोल, मोल, जोड़ प्यार;
इति
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