Jan 27, 2008

रोटी बनाम डबल रोटी ?

थोड़ी मोहब्बत सभी पर उतरने दें
थोड़े करम चाहतों पर भी करने दें

सितारों की महफ़िल रहे आसमानी
ख़ुदा बंद जड़ को, ज़मीं से गुज़रने दें

बूंदों के रिसने को रोकें नहीं बस
सागर रहें, अंजुरी भर दो भरने दे

जब छूट पाएं वो फ़ाज़िल सवालों से
बैठक से बाहर, नज़र चार धरने दें

नर में नारायण, क्या ढूंढें मरासिम
का़फ़िर सनम, बुत-परस्ती तो हरने दें



खुलासा :
माना कि हमारे "बच्चे" कहीं पसंद कहीं नापसंद हैं
दोस्तों ने बात जो कही, हम ख़ुद भी रजामंद हैं
पर रेशम कहाँ से लाएं? कि हम कातते कपास हैं
अपने समय, जेबों, जिगर में यही छुट्टे छंद हैं

स्वागत एक बार फिर [:-)]


Jan 26, 2008

शब्द बौने

शब्द बौने
पायलों में रुन्झुने
ईख के गंडे चुने
हैं बड़े नटखट, सलोने
शब्द बौने

शब्द बौने
ले उडे तारे, चमाचम
चाँद, मारे आँख हरदम,
साज ताजों के बिछौने
शब्द बौने

शब्द बौने
कौंधते बिल्लौर घन
जोडें जुगत जादू जतन
पकड़ते कुर्तों के कोने
शब्द बौने

शब्द बौने
खेलते खिलते लड़कते
कात बातों को जकड़ते
क्यों लगे इस ख्वाब रोने
शब्द बौने

शब्द बौने
एक दिन साधन बनेंगे
आसमां आँगन बनेंगे
पर अभी छोटे हैं छौने
शब्द बौने

शब्द बौने
बाज क्यों ताने निगाहें
आस्था आगे की राहें
प्रार्थना ना जाए सोने
शब्द बौने

Jan 18, 2008

घुमक्कड़नामा -शून्य

टहलते,टहलते, गमक गुनगुनाते, रास्ते चमकते, चमक रूठ जाते
लरजते बरजते, खयालों में आते, रातों में छपते, छपक टूट जाते

बहानों से किस्से, गुमानों के मंज़र
तरीके बदलते रहे ख़ास अवसर
सलीके सुलझते अगर चैन पाते
वहीं आ गए इस सहर, घूमफिरकर

रिझाते ज़हन को कहीं थाम छाते, जहाँ बारिशों के से परिणाम आते,
अगरचे-मगरचे पहर भूल जाते, कमर कस के साथों में गोता लगाते

कहीं झाड़ झंखाड़ रखते बसाते,
वहाँ बाग़ बागों कनातें बिछाते
खटोले जगा कर, किताबें सजा कर
अकस्मात चलने के वाहन बनाते

करीने से बक्से में कपडे तहाते, ताले की चाभी गले में झुलाते
हथेली उठा कर, हवा में घुमाकर, अकल से सफर के बहाने बजाते

कम-सख्त मौसम, कहाँ रोक पाए
चलते चले बात बोले बुलाये
जहाँ भी रुके, वक्त छोटे हुए
वहां कुछ नए और सम्बन्ध आए

बगल के मकानों की घंटी बजाते, मुसकते नमस्कार कहते कहाते
तलब रोज़ रफ़्तार फ़िर ताक धरते, थिरकते थकाते शराफत उठाते

धड़कते कंगूरों में जगते धतूरे
काहिल, कलंदर, जाहिल, जमूरे
बड़े नाम कामों के स्वेटर बनाते
पड़े ख़त किताबत रहे सब अधूरे

किसी नाम अपनी पिनक दिल लगाते, कहीं बोतलों में खटक बैठ जाते
सरी शाम रोशन मजारों से तपकर, उमस दिल्लगी की पसीने बहाते


उपसंहार : (१) इस पोस्ट का जन्म मनीष के ब्लॉग ( http://ek-shaam-mere-naam।blogspot.com/2008/01/blog-post_15.html) में टिपियाने के दौरान हुआ (२) बहुत मन था कि " जेबों में चिल्लर खनकते बजाते,..." प्रयोग करूं लेकिन वो यूनुस का कॉपी-राईट है इसलिए फिर कभी (३) पिछली पोस्ट की हौसलाअफजाई सर आंखों पर

Jan 15, 2008

एक कविता लिखने की कविता

चल-चल, निशा की सोच में, मानव जगाले, चल
आ चल, कलम की नोक से, कागज़ जलाले, चल

दीखे दाख हैं दिन भर
खड़े गल्पों के रेती घर
तमन्ना की रसीदें तम
नयन भर मील के पत्थर

पलक भर भूल दुःख जीवन
अरे लिख रागिनी अनमन
कोई बस पढ़ जुड़ा लेगा
तेरे इस मन से अपनापन

द्वार दर खोल दे, खुल-खुल के हंसले, मुस्कुराले, चल
आ चल ... ......

दिन-कर के थके हारे
बसों ट्रेनों से भर पारे
भरे झोले में सच बावन
सम्हारे घर सुपन सारे

बैठ कर साँस भर सुस्ता
अभी काबिल बहुत रस्ता
पोंछ दे भ्रम की पेशानी
सहज जंजीर भर बस्ता

ठहर तब-तक, तनिक शब्दों से अपने, बदल पाले, चल
आ चल ... ......

सरल मसिगंध हो कर बढ़
अगम सम्बन्ध की नव जड़
उमड़ गढ़ स्वप्न में घन-बन
रचा अल्फाज़ से अंधड़

लिखे धारों में, नावों में
सुप्त बदरंग भावों में
बिछे फाजिल किनारों से
उन्हीं उन सब बहावों में

डुबा दिल, दम लगा, दम ख़म बढ़ा, मन आजमा ले, चल
आ चल ... ......

Jan 6, 2008

राम राज्य (१९४६ में लिखी एक कविता )

६ जनवरी २००२, ६ वर्ष पहले, बब्बा (पिता, श्री जगदीश जोशी ) ने अपना यहाँ का सफर समाप्त किया था । एक भरपूर तेज, उत्साह, उमंग, संवेदना, संघर्ष, आवाज़, यायावरी और वैसे ही सारे संवादों को जीने के बाद । संताप से नही वरन उनकी पूरी लगन से जी हुई ज़िंदगी और जिजीविषा के मान, बतौर अनुष्ठान, आज उनकी पुरानी कविता यहाँ लगा रहा हूँ । इसलिए कि एक तो आपको उनसे मिलाने का इससे अच्छा बहाना न मिलेगा और दूसरे कविता चाहें है पुरानी - संदर्भ से साझी है । १९४६ में उनकी उमर बीस को छूती सी होगी । २००८ में मैं बयालीस का हूँ, कसम खाके कह सकता हूँ कि इस तरह के भाव या शब्द विन्यास पकड़ पाऊँ तो भाग्य मानूं । इस ब्लौग का "बकौल" नाम बाविरासत है ( इस नाम से वे देशबंधु और आज में लिखते थे ) । बब्बा बहुआयामी शख्सियत थे । हम बच्चों ने, बच्चों के नज़रिये से देखा । सार्वजनिक व्यक्तित्व होने के हम से ज्यादा जानने वालों की कमी न थी ( अगर कविता अच्छी लगे तो साईड में "प्रेरणा और अनुराग" पढें ) । प्रस्तुत है १९४६ की - उसी वर्ष रीवा राज्य कवि सम्मेलन में प्रथम स्थान प्राप्त - कविता । यह कविता उनकी २००२ में संकलित "मिट्टी के गीत" से है जिसके प्रकाशक हैं विभोर प्रकाशन इलाहाबाद (थोडी लम्बी कविता है) - सधन्यवाद - मनीष

शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य

कुसुमित जीवन के मधुर स्वप्न, लहराते हैं मधुरिम बयार
वृक्षाली में गाती श्यामा, डालें झुकतीं लै मृदुल भार

कोमल शिरीष की कोंपल भी, नर्तन में आज हुई उन्मन
नीलम के पंखों में शोभित, नूतन पराग के से जलकण

कुछ मीठी मीठी सी फुहार, सिहरन उफ़ कैसी यह पीड़ा
उन्मद कपोल के मन्मथ के, लेखा ही यह कैसी ब्रीड़ा

पदचाप मौलिश्री के परिमल में मिस, वसुधा पर धर जाते
जाने क्यों से अनजाने में, सीधे पादप भी हिल जाते

शोभा की प्रतिमा सी वन में, यह कौन अरे जाती सीता
पति की वरधर्मक्रिया जिसने, स्थावर जंगम का मन जीता

छोड़ा जिसने निज राम-राज्य, वह जाता युग का सेनानी
उस सेनानी के साथ अरे, जाती जन-जन की कल्याणी

निर्वासित हाँ निर्वासन ही, तो पित्र प्रेम है मूर्तिमान
पित्र-इच्छा के आगे जग का, सारा वैभव रजगण समान

हाँ छोड़ दिया घर का वैभव, जग का वैभव पद तल आया
उस पार ब्रम्ह के पीछे ही, माया ने अपना पथ पाया

युग की समाधि में आज मौन, वह नव्य साधनामय विराग
उस निर्वासित के धनुस्वर से, अब भी कंपते हैं शेषनाग

पर आज लालसामय जीवन, विषयों की सान्धें अनविभाज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य

आशाओं के स्वर्णिम विहंग, कूके सरयू के कूलों पर
कोकिल भी भरती अपना स्वर, सुरमित डालों के झूलों पर

तट पर क्यों आँखें ठिठक रहीं, मृग सिंह साथ पीते पानी
केकी के साथ केलि रत सी, कोकिल क्या करती मनमानी

खाटें अमराई के नीचे, ग्रामीण जहाँ लेते बयार
नवयजन धर्म की रेखा भी, नभ के उर में करती विहार

रति सी ग्रामीण नवोढ़ायें, पनघट पर गगरी ले आईं
कुछ अरहर के खेतों में जा, क्रीडा को करने हुलसाईं

हल लिए कृषक के दल आते, गज की चालें भी शर्मातीं हैं
गर्दन की घंटी के स्वर में, कुछ और शब्द भी लहरातीं हैं

हाँ इन गायन घंटी स्वर में, कुछ और शब्द लहराते हैं
जब अन्तरिक्ष में वेदों के, कुछ महामंत्र टकराते हैं

कुछ दूर खेत में रही दूब, को चरने गायें जाती हैं
अयनों के भार वहन करने, में ही मानो थक जाती हैं

उनके आगे करते किलोल, बछड़े मृग शावक से जाते
माँ के दुलार की धमकी दे, अपने में ही कुछ कह जाते

है धर्म न्याय मानव अपनी, रखता है रे अर्जित सत्ता
मानव के स्वर के बिना नहीं, हिल सकता धरती पर पत्ता

वह राम अरे युग का मानव, मानव का ही तो साम्राज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य

वह राम अरे हाँ स्वप्नलोक, की अब जो विगत कहानी है
क्यों रामराज्य का नाम आज, लेते आंखों में पानी है

वह राम और वह राज्य और, वे मानव सब धुंधली रेखा
अब का मानव क्या जान सका, जिसने शोषण का युग देखा

यदि शोषण ही केवल होता, तब भी संतोष रहा भारी,
पर शोषित भी शोषण करता, उल्टी देखी दुनिया सारी

कहते इतिहास बताते हैं, मानव का गिरना ही गुलाम
पर आज गुलामों का गुलाम, बोलो मानव का कौन नाम

कवि तूने देखा राज्य और, आंखों से जौहर भी देखा
दिल्ली को रोटी ले जाते, राणा को भूखे भी देखा

देखा तूने जो सह न सका, मुग़लों की खर तलवारों से
जब छाती पर रानी चढ़ती, खंजर ले कर मीनारों से

हो याद मुझे आई मीना, उसकी भी एक कहानी है
पर देख आज की मीना को, आंखों में आता पानी है

हे लुटा रही माता बहने, अपनी अस्मत हाटों में
रुपयों से मोल हुआ करता, सुन्दरता बिकती बाटों में

दिल चाक हुआ इन गुनाहगार, आंखों ने है क्या-क्या देखा
पद के हित मानव ने अपनी, माता का सिर कटते देखा

कवि सुनो आज हिमगिरि सुनले, सुनलें विजयों की मीनारें
यह महल सुने ऊंचे - ऊंचे, सुनलें ज़ुल्मी की तलवारें

सुनलें जो न्याय बनाते हैं, सुनलें जो मानव को खाते
जो आज धर्म की आड़ लिए, अपने को ऊंचा बतलाते

जिनने छीने मां-बहनों के, वक्ष-स्थल से जा वसन हैं
कहना उनसे वचन नहीं ये, महाकाल के अनल दशन हैं

अरे बोतलों की छलकारें, नुपुर की झंकारें भी
मेरी निर्वसना माँ के, ज़ंजीरों की ललकारें भी

रूप दिया जिसने मरघट का, शस्य श्यामला को अविकल
जिनने मानव को ठठरी में, भूसाभर कर है किया विकल

जिनने माता के लालों पर, संगीनें भी चलवाई हैं
जिनने बेतों से जेलों में ,चमडियाँ बहुत खिचवायीं है

वे संभल चलें युग की वाणी, करवट लेकर हुंकार उठी
सोई नागिन भी निज संचित, विष से सहसा फुंकार उठी

उठ पडा अरे पीड़ित मानव, छीनेगा तुमसे मनुज राज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य
_____________________________

Jan 2, 2008

दोपहर का गान

चलने लगा, चलता गया, बनता गया, मैं भी शहर
बेमन हवा, लाचार गुल, ठहरी सिसक, सब बेअसर

रोड़ी सितम, फौलाद दम, इच्छा छड़ी, कंक्रीट मन
उठने लगी, अट्टालिका, बढ़ती गयी, काली डगर

कमबख्त कम, पैदा हुआ, सीखा हुआ, वैसा नहीं
जिस रंग में, बदरंग था, उस ढंग में, सांचा कहर

उड़ने लगा, चिढ़ने लगा, इतरा गया, धप से गिरा
अब मौज को, क्या दोष दूँ, मेरा धुआं, मेरा ज़हर

आंधी चली, पानी गिरा, गिरता गया, कोसों गहर
तुम बोल थी, मैं मोल था, थी बीच में, ये दोपहर