Feb 27, 2008

समझौता [ पसिंजर ?]

[ देखें - कौन पुल सा थरथराता है ?]

क्रांतिपथ के थे पथिक, जो श्रृंखलाओं में जड़े हैं
अब कहाँ जाएँ सनम, मजबूरियों के स्वर चढ़े हैं

युगों जैसे साल बीते,
भंवर से जंजाल जीते,
अव्वलों की प्रीत बोते,
परीक्षा के पात्र रीते,

भर गए जब सब्र प्याले, बुत मशीनों में गढ़े हैं
और हैं विद्रूप के प्रतिरूप, कल भर कर लड़े हैं

उजला दमकता वर्ग है,
साधन में सुख उपसर्ग है,
इतना सरल रुकना नहीं,
बस दो कदम पर स्वर्ग है,

कैसे तजें संभावना, संन्यास में तो दिन बड़े हैं
भोज भाषण बाजियाँ, सरगर्मियों के घर खड़े हैं

क्यों रुकें? क्या इसलिए,
संवेदना ना मार डाले,
काश राखों के ह्रदय में,
दिल जलें तो हों उजाले,

ऐसा नहीं होगा, तिमिर ने जेब में जेवर पढ़े हैं
स्वप्न भ्रंशों में मिले हैं, पात पर पत्थर पड़े हैं

क्रांतिपथ के थे पथिक.......

[अब न रोएँ - उदास भी न होएं - क्या होएं ?]

स्पष्टीकरण -
(१ ) यहाँ "कल" से आशय आज और कल वाले कल से नहीं बल्कि कल-पुर्जे वाले चलते पुर्जे "कल" से है ;
(२ ) इसका मुखड़ा पचीस -तीस साल पुराना घर घुस्सू पड़ा रहा है [ शायद चाणक्य सेन की मुख्य मंत्री या मन्नू भंडारी की महाभोज के बाद का] - कविता कल शाम- रात में खुली -
(३ ) सबेरे पांडे जी ने दो अचंभित करने वाली कविताएँ पढ़ाईं - (http://kabaadkhaana।blogspot.com/2008/02/blog-post_26.html; http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/02/blog-post_1798.html) पहली पर प्रतिक्रिया - इसी का hangover रहा होगा
(४ ) इसका किसी भी आज-कल की बहस से रत्ती भर ताल्लुक नहीं है - अगर लगता भी हो तो समझें मरीचिका है
(५) इस बार खीज जैसी नहीं लगती, स्वभाव से ज्यादा संयत है
(६ ) बुढौती की कठौती से निकाला मीटर है (http://kataksh.blogspot.com/2008/02/blog-post_25.html) ये कहीं की भी सूंघ हो सकती है - (दिल्ली, भोपाल, पटना लखनऊ, जयपुर, बंगलुरू.... - बम्बई छोड़ कर - उसका पता नहीं - बम्बई में इतना समय है कि नहीं अंतर्देशी / लिफ़ाफ़ा लिख के पता करना है) ;
(७) इतने अधिक स्पष्टीकरण हो गए - पक्का बुढौती की कठौती है

Feb 23, 2008

किताब हिसाब

[याने अफसाना नंबर दो ; उर्फ़ जहाज का पंछी; उर्फ़ घुमक्कड़नामा - एक]

क्या किया? क्या ना किया?, किस भीड़ से कथनी निकाली
क्यों थमे? कब चल पड़े? बहते बसर, सैलाब से अटकल मिलाली
कुछ इस तरह बस्तों ने शब्दों से वफ़ा ली

इतने इलाके घूम-चक्कर
बैठ घर दम फूलता
प्रतिरोध का ऊबा लड़कपन
पोस्टरों सा झूलता

हाँ दबदबा दब सा गया
जब लीक में बूड़े महल
पर शोर डूबे हैं नहीं
तैयार हैं, जब हो पहल

बेढब सफ़ों में मिर्च डाली, हो सका जितना नयी कोशिश निकाली
इंतजारों में खलल की फिक्र फेंकी, चुहल में कदमों से दो मंजिल जुड़ाली
हाँ इस तरह ......

यारों की भी, थी सूरतें,
ईमारतें रहमो करम
पर भागते कांटे रहे
भरते भरे बोरों शरम

कुछ भरम छूटे हाथ रूठे
किस्मतें घुलती रहीं
आवारगी आंखों की जानिब
उम्र संग ढलती रहीं

जिस आँख से चकमक मिले, उनकी पकड़ धक्-धक् सम्हाली,
कुछ मौन से, कुछ फोन से, बतझड़ भरे, रहबर मिली होली-दिवाली
हाँ इस तरह ......

सब खोह में मौसम न थे ,
कुछ काम भटके जाप थे
ताने सुने बाने बुने
हिस्सों में बंट कुछ शाप थे

कुछ रंग कुछ जोबन करा
कुछ झाड़ डैने छुप धरा
छौंके हुए अफ़सोस ने
कायम सा कुछ रोगन भरा

हिम्मत भी जैसी जस मिली, वो हौसलों में नींव डाली
ताली-दे-ताली पैर पटके, ढोल पीटे, हिनहिना सीटी बजा ली
हाँ इस तरह ......

Feb 17, 2008

कोट-पीस दफ्तरी


[ उर्फ़ नौकरी की छनी खीज - - दोस्तों के शब्दों में - नग़्मा- ए- ग़म-ए-रोज़गार ]

कमख़्वाब नींद, कमनज़र ख़्वाब, डर मुंह्जबानी
ऊबे निश्वास, भटके विश्वास, उफ़ किस्से-कहानी

सुबह होड़-दौड़, शाम आग-भाग, कौतुकी खट राग,
मृगया मशक्कत, दीवानी कसरत, धौंस पहलवानी

कूद-कूद ढाई घर, बैठ सवा तीन, बिसात रंगीन
मग़ज़ घोर शोर, रीढ़ कमज़ोर, गुज़र-नौजवानी

फा़ईल खींच-खांच, नोटशीट तान, फ़र्शी गुन गान
रग-रग पे खून, खालिस नून-चून, रंग साफ़-पानी

नमश्कार-पुरश्कार, आदाब-अस्सलाम, सादर-परनाम
ठस आलमपनाह, हुकुम बादशाह, चिड़ी की रानी