Aug 15, 2008

एक दिन/ रात आज़ाद

रात के सफ़र कटें, आख़िर सफ़र बयान बने
तुम बनो, हम बनें, काश हिन्दोस्तान बने

सिर्फ़ इतना ही गुलामों ने आज़ादों से कहा
शायद इस साल, कुछ और नए इंसान बनें

किले कीलों से जड़े हैं, महफिलें मस्तूलों में,
यही कहना है, थोड़ी बेहतर सी पहचान बने

वो ही चेहरे हैं ज़र्द, थामे हुए हैं झंडों को
कहाँ उन्हें रंग मिलें, गर्द पे मुस्कान बने

बढ़त की बाढ़ बड़ी, आला दफ्तरों से आती हैं
थाना कचहरी की है, कि कैसे यहाँ ईमान बने

इतने सालों से यही सुन के, कब उकताएंगे
मेहरबां ऐसे हालात से,आप अब परेशान बनें

[.. आज़ादी की जितनी भी शुभकामनाएं हो सकती हैं ,उनके साथ उतनी ही चेतन संवेदनाएं भी ... ]

Aug 11, 2008

नज़रबट्टू

एक पिंजरा, एक बदरी, एक प्याली चाय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय।

खोज में जो भी मिले, या ना मिले, मिल जाय मन,
सब एक सा हो, या नहीं हो, हो तनिक दीवानापन,
मद हो, न हो मद-अंध, बन्दे एक ना हों, साथ हों ,
मादक बहस, विस्तार नभ, चुटकी हो बातों से चुभन।

चार खम्भे, सर्प-रस्सी, सूप के पर्याय,
तर्क हों पर ना मिटें मन, मर्म के अभिप्राय ।
प्रियवर जवाबों में लड़ें, सहयोग के अध्याय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय।

ढूंढ ढक चिट्ठी की मिट्टी, नेह की बारादरी,
नम नफ़ासत से नसीहत, स्वप्न से छितरी परी,
अक्ल के कुछ शोर, पल अलगाव खींची डोर पर,
पल तने बदलाव, पलकें रसभरी की टोकरी ।

इन विविध धनुषों के तीरे, इन्द्र भी शरमाय,
रूपकों को रूप की ही नज़र ना लग जाय ।
बोरियां भर मिर्च मिर्चें धौंक कर समझाय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय ।

...एक पिंजरा, एक बदरी, एक प्याली चाय,
बस हों कई नन्हीं सी बातें भेद में अतिकाय ।

[ऐसे ही]

Aug 1, 2008

कथाहारा

मर्म के सब पाँव बोझिल हो चुके हैं
टीस के तलवे तले फटती बिवाई,
रिस गई है रोज़मर्रा रोशनाई,
प्रीत के पद / राज़ अंतर्ध्यान हो कर खो चुके हैं।
योजना की भीड़ में सहमे सफ़े सबहाल,
बेसरपैर बातों के घुले दिन साल,
आदम-काल, बिखरी पीड़ के निर्वाण के पल धो चुके हैं।
चुक गई है, छद्म अन्तर से निरंतर में रुंधी बातों की गिनती,
ढूंढता है प्रश्नचिन्हों में बसी विश्राम धारा ।
कथाहारा....

कथाहारा....
हाँ वही पागल, घुमक्कड़ बचपनों की नीम को जो चाशनी में घोलता था।
अनदिखे खारिज किए उन्माद को, अवसाद को,
तिल-तिल दुखाने के नकाबों को सफ़ों में खोलता था ।
डोलता संकरे पथों में, घाट में, पगडंडियों में,
मोल भावों के बिना, जग जोर जागी मंडियों में,
समर के मैदान ले, सागर / नगर के तट तहों में,
चुन तराशे कथा-किस्से धार-धारा तोलता था ।
बोलता था, गोल मोलों में, कहाँ कैसे रंगीलों ने रंगा,
रंगबाज हाथों से कहाँ, कितनी सलीबों में टंगा,
टाँके लगा कैसे चला, जब लोचनों / आलोचकों ने तीर मारा ।
कथाहारा....

कथाहारा ..
कथन के मूक में मन ढूंढता रहता गया।
लंबे समय से काजलों को जोत से ले,
तर्पणों को स्रोत से ले,
किरमिचों की भीत में भरता गया
खाली गगन में छाँव तारे,
वृन्द में अटके किनारे,
खूंट से खींचे विकल व्याकुल सभी सारे,
सभी के अनकहों की व्यंजना के बाँध ले चलता गया ।
रिसता गया रिमझिम कमंडल, हो गया कृशकाय, स्वर पूछे
कहे ऐ मित्र तुमने क्यों पुकारा ?
कथाहारा ..

कथाहारा ..
कहाँ छूटा सफर में, धुन धुनों में धिन तिना ताना बजाने में ।
विषम बीता, विषय बीते,
विशद से काल क्रम जीते, बहाने में
तमन्नाएं उड़ीं, यूँ बाज बन, गाने बने रोदन छुपाने में
पुराने दिन, उन्हीं के अटपटे संवाद,
पुस्तक में दबे सिकुड़े पड़े प्रतिवाद
सूखे-फूल सुख में दुःख गए सन्दर्भ के अपवाद,
बचे कितने दिखेंगे दृश्य-छिलके, लौट आने में ।
मगर लौटे - जहाँ हिचके, कभी झिझके, कहीं कर्तव्य आड़े हैं,
सुलभ की वर्तनी दूषित मिली, सामर्थ्य के चंहु ओर बाड़े हैं,
कभी बेमन रहा, बेखुद कहीं, विन्यास का गारा ।
कथाहारा....

कथाहारा....
सिफ़र है यूँ कहाँ बांचे पुराने खोखले विश्वास ।
इस दम खांसते हैं बम,
फटे शोधों के घटनाक्रम
सफल हैं वन, विहंगम वर्जना के मुंहलगे कटु हास ।
घृणा के घोर से सिंचित
कटे आमों को जीमे जो महामंडित
खिंचे खानों में खंडित
है सियासत, सरफिरे हैं दीन दाता, रंग करे हैं धर्म से इतिहास।
है विगत मनु वेदना, ऐसे समय सम भाव की बातें लगे हैं बेतुकी, बेकार,
बेमतलब सरायें हैं बनी प्रतिशोध के आगार,
शायद है यही, अतिहास की कारा
कथाहारा....
थकाहारा....

आप सब के लिए :- दो महीने का समय अपने युग में खासा होता है - इतने अंतराल के बाद भी आप सब जो झाँक जाते हैं, पसंदों में शरीक करते हैं, उस प्रोत्साहन के बड़े माने हैं- पिछले दिनों जैसा कह रहा था उलझ के ज्वर जाल खासे थे - खैर ये सब तो जीने के रंग हैं - अभी प्रयास है नियमित होने का यदि नियति की नेमत रहे - सस्नेह - मनीष