Feb 26, 2009

प्रभाहत

क्या अभी भी बैठे हैं वहाँ
सपने देखने वाले
चिड़िया की कलगी पर
चीड़ों की फुनगी पर
देखते हैं आभा के रक्तिम
जहाँ दीखते हैं गहरे से काले

लौटने वाले
साए लंबे होते हैं छाया से प्रेत
गर्म हवाएं
देस के भेस लौटती आशाएं
बरसात की बाती उम्मीदें जिनपे गहन बिके खेत
भाषाओं से खारे समवेत
रेत की शहतीरें, रेलम पेल के मर्ज़
जमा खर्च कुछ चुकाए/ अनचुके ज़मीनी क़र्ज़
गिरहबान में छले छाले
दर्ज़ है तारीख में
खोये पाए हिसाब के हवाले

अस्तव्यस्त
डब्बे चित्रपटों में बदलते दुनियावी
दुविधा की सुविधा के बेशकीमती मरहम
द्रुत गति की सुर्खियों में छींकते महानतम
आदतन बाँटते हैं झोल दिलासाएं
गुफाएं, सुरंगें, कंदराएं
पेट को जोड़ने हाथ से काटने के उपक्रम
कहाँ जाएं - झूठ में या जूठे सच में
हैं लस्तपस्त
लम्बी चढ़ाई के पहिये
चरमराये सम्भव असंभव को कूदने फांदने वाले

ऐसे में फ़िलहाल
चुप की ज़मीन चुपके से
दिग्भ्रमित आसमानों पर रोई है
आराम के मकानों की राह
इत्मीनानों से मुड़ के
बहरहाल
बलुआ धसानों में खोई है
गिनती की सूखी उँगलियों में
कितने बुत पत्ते हैं बन टूटने वाले
बस इस बरस के बसंत
बरसे हैं पतझड़ के पतनाले

आत्मीय सर्वनाम
संज्ञा शून्य तागों में
लटके स्मृतियों के चले वर्ष
चौंकते चटखते विषाद को
उल्लास में ढूंढते ढले उत्कर्ष
पकड़ से निकलते जकड़ी आखों से पकड़ते
संघर्ष से परिणाम
परिजनों से पत्र
काढ़े संवाद की रेखाओं के दुखड़े वक्र
समय चक्र में गड्डमगड्ड सरे आम
जाले ही जाले
ज्यों हर लड़ाई के हारे नाम
जीते हैं हरिनाम के सम्हाले

अनवरत
वैसे ही कटते हैं सुख जैसे
दुःख ढक जाते हैं
भय के ताबूत भरे दिन
दबे पाँव पक जाते हैं
आहटों को टोहते
प्रभाहत
ठिकानों में
चाभियाँ भी उनकी हैं उन्हीं के हैं ताले
धूप छांव में
यूं ही बैठे हैं सपनों में अपनों में देखने वाले