Aug 20, 2010

पत्नीव्रतांश

तुम नहीं थीं.
उन दिनों
रोज़ों के दिन
मैं
तुम्हारे बिन यहाँ
कुछ अस्त था कुछ व्यस्त था.
ऐसा बना
कैसे कहूँ
सब अनमना
इतने दिनों
तुमसे बिना झगड़े
लड़े कैसे बहा
सीधा सधा
चलता रहा वो दर असल
सब था अनर्गल
जिस विधा
अभ्यस्त था.
मन था निखट्टू
उन जिन दिनों
जब तुम नहीं थीं.


मोना गए कुछ दिनों बंगलौर थी छः साल से अटे काम को अंजाम देने, नानी मामा मित्रादि से मिलने [ और हो सकता है झकाझक बारिश देखने]; उसी के लिए लिखी ; वैसे इसे कल रात पोस्ट करने का मन था; अब क्या कहें कवितानुसार थोड़ी लड़ाई हो गई सुनी और कहा दोनों, सबेरे सुलह तो दोपहर को पोस्ट, ऐसा आया समय - थोड़ी लड़ाई प्रेम का गुड़ है :-)

Aug 17, 2010

जंगबाज़

ऐसा मैं नहीं कर पाता सहज न पूरा जान पाता हूँ
इसीलिये पढ़ता जाता हूँ महज खुली किताबें उनकी बातें
जितना हो सकता है बिनबुलाए आता जाता अदृश्य
छीलता जाता हूँ प्याज़
और दुआएं देता हूँ उन सब को जो कुछ कुछ संभव करते हैं जनगण
और ऐसा होता है, होता जाता रहता है च्युत भी अद्भुत भी मन.


ऐसा होता जाता है दोधार नामाकूल जहां जमीन घूमती है टेढ़ी रोज़
एक स्रोत्र से निकलती है नदियां नशे की और रोगतोड़ दवाइयां भी नई खोज
वहीँ से बनती हैं जहां कारें बंदूकें बदलती हैं और औज़ार जिनसे पुल बनाते है
गजाभिराज जहाज जो तेल, माल मजदूर नेपाम और सिपाही दूर से दूर ले जाते हैं
बिजली के खम्भे बड़े, तंरगे तैरती है कुशलक्षेम की आवाजें तार जाती
हवा में मुनाफे, सौदे, दोस्ती और आतंक के नक़्शे सरमाए पहुंचाती जहां अभी
चक्कियां नहीं पीसती औरतें धुत्त पतियों से पिटती हैं सड़कें पहुँची हैं मुंहबाए वहाँ भी
मोटे होते जाते हैं कुछ ठेकेदार, कुछ ज़्यादा पढ़ पाते हैं कुछ बच्चे अंधियारे में
फलतः जिनके हाथ नहीं होते हथियार हथकरघे या हल, पहल के नवद्वारे में
जहां तक पहुँचती है रोशनी कुछ उजास आती है कुछ खटास बहस के बंटवारे में
ऐसे ही होता जाता है मीठा तीत ताप शीत दुनिया में कुछ यहाँ जहाँ
शान्ति के परम और विस्फोट के परचम में आता है एक ही नाम नोबल याद के सहारे में.


नाम ऐसे ही नाम बड़े नाम के खाते आते हैं हर सावन फ़ेहरिस्त में फलते जाते हैं
फूलती जाती हैं इतिहास में किताबें और स्कूलों में बस्ते
सडकों और अस्पतालों की पट्टियाँ बदलते कसते
असमानता की फैलती खाई पर फुसलाव के विचित्र ज्ञापन बरसते हँसते
लगातार के कटाव में ज़मीर के पड़ाव जाते हैं, आसमान आबशार ज़मीन पलटते जाते हैं
कारोबार से नए चौराहे उगते जाते हैं नए क़ानून आविष्कार
विचार, वर्जनाएं, उनकी रेखाएं कारक, नायक कलहकार
धार से बहते जाते हैं वो नाम विस्मृत होते हैं जो अडिग थे उस धार
या जिन्होंने किया ताउम्र विवादों, बेचारों और किताबों से सरोकार
इन सबके कारण और बावजूद कितना कुछ करने का रह जाता है
कहने से छूटता है बीच का अनकहा, अनसुना कह जाता है
आशा के साथ बदलती भाषा में बुढ़ाती सोच का व्याकरण घटता बह जाता है,


सोच में ऐसा होता है सोचना खचपच होता दीखता है अक्षांश देशांतर सींचना
बबूल और बबूले फूली आग में झोंकी आहुतियाँ चिटकती पीढ़ियाँ
सरल विवेक में दिवास्वप्न से निकलना दुरास्वप्न में दाखिल
होना रूमानियत का किसी किताब या नारे का संबल
कहीं दूर से दिखता है ध्रुवतारा कहीं उधार का कम्बल
दलदल के दालान तक आने पर अंततोगत्वा पुनर्नवा बचाव
विवादित पृष्ठभूमियों में ध्यानाकर्षित धूपछाँव प्रस्ताव
खोट में जाता इंसानियत का मानवता से जुड़ाव
और घर से निकलने के बाद दिखता तना सर्वव्यापी खिंचाव
संस्कृति की देह और देह की संस्कृति के बीच बहाव


व्यग्र विचलित और कल्पित ध्वनि के विहंगम भ्रमरांगण
मैं जान पाता हूँ बस उतने ही घमासान जितने दूर से दिखते हैं
उनके बीच में हरी लकीरें भी हो सकती हैं और धब्बे कत्थई लाल बिंदु से
जो बौछारें हो सकते थे धीरे-धीरे पड़ते हाशिए में काले
धीरे-धीरे अपना-अपना गहन गाढ़ा सान्द्र बहकाने वाले
साथी दुर्बल दिनमान जो नसों में कभी बहते ओज को क्षणिक लिखते हैं


गल्प में फिर भी निर्बल जंगली घास पैठती है सर उठा बनफूल बागों में सेंध लगाते
मिश्र धातु का पंचपात्र बनते बनाते व्यक्तित्व का आचमन
अपरिचित सप्तसिंधु से यथा कथा प्रतिरूपेण मिलता है मनन
यहाँ भी वैसा ही दीखता है आइनों में जैसा वहाँ है ब्रम्ह्वदन
आदर और सहमति के बीच साम्य न बना पाने पर सहमति से परे हटना
होता जाता है अकर्मण्य श्रद्धा के यातायात में निश्चित की दुर्घटना


हादसों से टापते चले आते है शब्दवेध के छोड़े सारे वाक्प्रमथों के झुण्ड
ध्वनिपारित व्यवस्था के अधिनायक एरावतों के वक्र तुंड
वक्र दृष्टि, वक्र विद्या, वक्र सृष्टि चक्र शून्य किंचित चिंता का भीम ताल
कुमुदिनी के छींट भर, जलकुम्भी दल विशाल
शिकायतों के दायरे अंबार आलोचनाओं के फन तनते है अंदर कराल
सामूहिक दुस्साहस से घनी भीड़ की अंगवाल से दम जोड़ता ज़हीन सवाल
किस दृष्टि से लगता है एक जग सब गलत किस कोण वही पूरा बेमिसाल?


प्रश्नकाल प्रश्नावृत घेरती है कसैली झुंझलाहट अहंकाल सहने की महीन आहट
कहाँ जाएँ इस हाल, कैसे हटाएँ दुखारविन्द से धवल प्रभात निर्वात
विचित्रविधि समय के चलचित्रविधि प्रसंगों में पुन रंग अहसास की बात
या कि बस खुद को बचाकर चलकर किसी तरह इस लंबे पहर की रात
त्राहि माम लगता है कटुघात, कभी खुद भी नहीं बचता आत्मसात अम्ल वर्षा खार बरसा
स्वयंपाकी स्वयंताकी स्वयंझांकी व्यवहारिक मनसा
कर्मणा और वाचा पर कब भारी पड़े अचानक कब ऐसा हो सहसा
समय भी न बचे और अतुकांत फफोला जीवाश्म में बदलता जाए शायद किसी पुराने शहर सा


शायद इतना समय होता ही नहीं शहर में पूरा समझने का ऐसा मैं नहीं कर पाता सहज
न पूरा जान पाता हूँ इसीलिये फिर लड़ता जाता हूँ खुद से महज
खुली किताबों से उनकी बातों से जितना हो पाता हूँ अटकलबाज़
जिरह के बख्तरों में कैद गिनती का जंगबाज़.
छीलता जाता हूँ प्याज़.