यों इत्ते सा कड़वा है काफ़ी गुलाबी, ओ मन इससे ज्यादा न करना कसैला
रे दुखवा रे जा जा ओ रतिया के छैला
रे जा जा बहस का गगन खुरदुरा है
उमस का गहन लोपता फरहरा है
खोले आँखें तमस की पहर तीसरे में
गजर का वजन गाज का दूसरा है
ये टिकटिक की घड़ियाँ हैं भारी प्रभारी, विभा का समय चूर दिखता है मैला
रे दुखवा चला जा ओ रतिया के छैला
रे जा अब कभी और जा कर सुनाना
सजा का तरन्नुम विषादों का गाना
उठा सब तमाशा, हताशा की भाषा
फसक का फ़साना, यही बस बजाना
साज़ पकडें कहाँ सुर लगा दूसरा जी, लो जी भर गया नाद तनहा बनैला
रे दुखवा रे गा जा ओ रतिया के छैला
रे जा ना उठा जा रे गल्ले से छल्ला
ये हल्ले में हल्ला ये इल्मों का इल्ला
घिस-घिस गिला पिस मिला हाथ में जो
जुड़ीं चार दमड़ी झड़ा एक अधिल्ला
अन्धेरे उगलते अठन्नी का मीठा, बढ़ा खून चीनी, खिलाते करैला
रे दुखवा जिमा जा ओ रतिया के छैला
रे जा भाई रे, थक गए जाग के दम
गिने कितने गिरते दिनों में मुहर्रम
निशा दीप में याद की ज्योतियों में
मोतियों सीपियों सागरों में जमा गम
मनन से कई देव दानव निकाले, सुधा की सुराही पे छींटा बिसैला
रे दुखवा पिया जा ओ रतिया के छैला
रे जा कर न जा, रह भी जा धुन्धपाती
यूं भर-भर बढ़ा जा, कलेजे की थाती
रात साथी है तू, कूचे लम्हों के बाबा
अजूबा खुशी, बात आती है जाती
सरापों में बुलबुल सियापों से मेला, महाकाल अंतिम बसेरा उजेला
रे दुखवा न जा रह जा रतिया के छैला
..रे दुखवा न जा छोड़ जा ना अकेला
..रे दुखवा सुला जा ओ रतिया के छैला
..रे दुखवा..
"एक कबूतर चिट्ठी लेकर, पहली-पहली बार उड़ा, मौसम एक गुलेल लिए था पट से नीचे आन गिरा" (श्री दुष्यंत कुमार की "साये में धूप" से )
Oct 31, 2010
Oct 21, 2010
नापचबना
सफर में हो?...
सफर में हो? कहाँ हो? और कैसे? यार बाजीमार,
तनिक फुर्सत तो आओ, बैठ लें, हो बात दो से चार.
अमां हो किस जहां? वैसे ही क्या धुनधार करते हो?
सरचढ़ी गड़बड़ी, धड़ फक्कड़ी लठमार करते हो?
मजलिस है मियाँ वैसी, कि बैठक है अलग इस बार?
सुनते हो किसी की, या खुदी दरकार करते हो?
नुक्ता मत पकड़ना, गलतियां तो, और भी भरमार,
बढ़ती जा रहीं जस उम्र, तस सर बाल चांदी तार.
कहाँ रिक्शे के पट्टे, आध दर्जन साथ लद फद कर,
गए अर्जन को क्या-क्या, नील छापे झूलते स्वेटर,
वो सरगम पाठ, लंबी डांठ, छोटी छुट्टियों के ठाठ,
दबी जो बीच उंगली चाक, फटे फट हाथ पर डस्टर.
वो पट्टी टाट की, गर्दों में लिपटी बहस गुत्थामार,
जुमेंरातों को लगते दिन शुरू के, खास मंगल वार.
लड़ाकू था जो इक बिन बात, बोलो क्या हुआ उसका
औ दो जो हांकता था हर जगह, वो ठसक का फुसका
चार चिरकुट, जिन्हें तुम पीठ पीछे चढ़ चिढ़ाते थे
कई वो भी, नमक के गीत गाने का जिन्हें चस्का
वही जन डार से बिसरे, कला के कूट छापामार,
बया के घोंसले, तन फूल-पत्ती, बेल बूटेदार.
सुना घोंघा बसंतों में विवाह-ए-प्रेम कर ऐंठा,
उड़ा दांतू जहाजों से फिरंगी देस जा बैठा,
पढ़ाकू कड़क फौजी है तो मौजी है दुकानों में,
वो तेली सूट बूटों में, बैदकी में नगर सेठा.
कहो ना राम दे! सोचा नहीं वैसे हुए शाहकार,
काम से कलम बनना था दाम ले हो गए तलवार.
ये क्या कहते हो जानी धुंधलके की सी कहानी है,
गई वो याद मास्टर साब कहते गुरबखानी है,
कि काली डायरी भी तुमसे पूछे नाम क्या लिखना,
वजह की आयतों में किस जगह बिंदी लगानी है.
हाँ माना व्यस्त हो, सो सटकते भूतों से ये व्यवहार,
उम्मीदों की हरारत जी बही खातों से है ज्योनार.
अपन का क्या, अपन ढर्रे में ढल जाएँ प्यादे हैं,
लगे चमचम के शीरे में, मगर मिर्चों में ज्यादे हैं,
चक्कर-बात, झंझावात आते हैं हिलाते हैं,
अपन जड़ हैं तो मन के जोड़ पर धागे इरादे हैं.
बचपन से गए नप-चब गए, हालात बन इसरार,
चांदमारी ये कुदरत की, सेंत में बन गए अशआर.
अरे हाँ सुन लिया, कहते हो ऐसे अब नहीं लिखते,
नई फसलों के मौसम हैं, कहन के हैं अलग रस्ते,
हमी टेढ़े के टेढ़े दुम दिनों क्या साल नलकों में,
रही ढपली पुरानी राग ताजे जब नहीं बजते.
बनी बंसी से बासी सुर निकलते आ रहे इस पार,
जो दब लेंगे तो बदलेंगे, बदी नेकी के ऐ सरकार.
अजी कितना बदल कर आज भी कितना नहीं बदला,
मुखौटे नाम बदले खेल वैसा दलबदल घपला,
मुलुक की बत्तियाँ पतली, मोटक्के धर्म साए दिन,
अभी भी रात बहते कौंधती केवल सफल चपला.
ढही फितरत, रही मेहनत, सही दरबार के सहकार,
नहीं फुर्सत तो साथी मेट जाना इस दिशा के द्वार
सफर में हो?...
सफर में हो? कहाँ हो? और कैसे? यार बाजीमार,
तनिक फुर्सत तो आओ, बैठ लें, हो बात दो से चार.
अमां हो किस जहां? वैसे ही क्या धुनधार करते हो?
सरचढ़ी गड़बड़ी, धड़ फक्कड़ी लठमार करते हो?
मजलिस है मियाँ वैसी, कि बैठक है अलग इस बार?
सुनते हो किसी की, या खुदी दरकार करते हो?
नुक्ता मत पकड़ना, गलतियां तो, और भी भरमार,
बढ़ती जा रहीं जस उम्र, तस सर बाल चांदी तार.
कहाँ रिक्शे के पट्टे, आध दर्जन साथ लद फद कर,
गए अर्जन को क्या-क्या, नील छापे झूलते स्वेटर,
वो सरगम पाठ, लंबी डांठ, छोटी छुट्टियों के ठाठ,
दबी जो बीच उंगली चाक, फटे फट हाथ पर डस्टर.
वो पट्टी टाट की, गर्दों में लिपटी बहस गुत्थामार,
जुमेंरातों को लगते दिन शुरू के, खास मंगल वार.
लड़ाकू था जो इक बिन बात, बोलो क्या हुआ उसका
औ दो जो हांकता था हर जगह, वो ठसक का फुसका
चार चिरकुट, जिन्हें तुम पीठ पीछे चढ़ चिढ़ाते थे
कई वो भी, नमक के गीत गाने का जिन्हें चस्का
वही जन डार से बिसरे, कला के कूट छापामार,
बया के घोंसले, तन फूल-पत्ती, बेल बूटेदार.
सुना घोंघा बसंतों में विवाह-ए-प्रेम कर ऐंठा,
उड़ा दांतू जहाजों से फिरंगी देस जा बैठा,
पढ़ाकू कड़क फौजी है तो मौजी है दुकानों में,
वो तेली सूट बूटों में, बैदकी में नगर सेठा.
कहो ना राम दे! सोचा नहीं वैसे हुए शाहकार,
काम से कलम बनना था दाम ले हो गए तलवार.
ये क्या कहते हो जानी धुंधलके की सी कहानी है,
गई वो याद मास्टर साब कहते गुरबखानी है,
कि काली डायरी भी तुमसे पूछे नाम क्या लिखना,
वजह की आयतों में किस जगह बिंदी लगानी है.
हाँ माना व्यस्त हो, सो सटकते भूतों से ये व्यवहार,
उम्मीदों की हरारत जी बही खातों से है ज्योनार.
अपन का क्या, अपन ढर्रे में ढल जाएँ प्यादे हैं,
लगे चमचम के शीरे में, मगर मिर्चों में ज्यादे हैं,
चक्कर-बात, झंझावात आते हैं हिलाते हैं,
अपन जड़ हैं तो मन के जोड़ पर धागे इरादे हैं.
बचपन से गए नप-चब गए, हालात बन इसरार,
चांदमारी ये कुदरत की, सेंत में बन गए अशआर.
अरे हाँ सुन लिया, कहते हो ऐसे अब नहीं लिखते,
नई फसलों के मौसम हैं, कहन के हैं अलग रस्ते,
हमी टेढ़े के टेढ़े दुम दिनों क्या साल नलकों में,
रही ढपली पुरानी राग ताजे जब नहीं बजते.
बनी बंसी से बासी सुर निकलते आ रहे इस पार,
जो दब लेंगे तो बदलेंगे, बदी नेकी के ऐ सरकार.
अजी कितना बदल कर आज भी कितना नहीं बदला,
मुखौटे नाम बदले खेल वैसा दलबदल घपला,
मुलुक की बत्तियाँ पतली, मोटक्के धर्म साए दिन,
अभी भी रात बहते कौंधती केवल सफल चपला.
ढही फितरत, रही मेहनत, सही दरबार के सहकार,
नहीं फुर्सत तो साथी मेट जाना इस दिशा के द्वार
सफर में हो?...
Oct 16, 2010
एक पन्ना डायरी
अजनबी हम तुम कहीं, अपने जनम पिछले, मिले होंगे कसम से
हमको जो ऐसा लगा, तो कह दिया, चाहे कहो हम बेशरम से
कुछ खैर तो होगा, जमा पिघला पुराना, कह सुना कह के सुनाना
बात ऐसी चल गई, शाम-ए- अजब क्यों ना रुकी, तुमसे न हमसे
क्या रहा बीता हुआ, कैसा अभी, और हो न हो किस ढंग का कल
साथ कुछ दो बात, क्या कर रंग ज़्यादा हैं, किताबों में फिलम से
फिर रंग के जो हाथ, सो चलते रहें, रह जाए जैसा भी हुनर हो,
उनमे नरमी और गर्मी, कुछ बेसबर का टोटका, थोड़ा नियम से
मज़मून के तारे चले जब रात द्वारे, वक्त कैसे ढल गया, चुटकी बजी
उन दलदलों को पाट के, जागी दुकानों में सने, छिन पल गरम से
उस कांच में चलती रहीं, लहरें चमक जो थीं, शहर की हड़बड़ी में
इस आंच के साए, कई ठहरी मिठासें थीं घुली , प्यालों में क्रम से
और भी बातें बचीं, हों और किस दिन, सिलसिले जब हों सफर में
इब्तिदा से इन्तेहाँ, छोटी रही जो भूल हो, या चूक हो भूले करम से
हमको जो ऐसा लगा, तो कह दिया, चाहे कहो हम बेशरम से
कुछ खैर तो होगा, जमा पिघला पुराना, कह सुना कह के सुनाना
बात ऐसी चल गई, शाम-ए- अजब क्यों ना रुकी, तुमसे न हमसे
क्या रहा बीता हुआ, कैसा अभी, और हो न हो किस ढंग का कल
साथ कुछ दो बात, क्या कर रंग ज़्यादा हैं, किताबों में फिलम से
फिर रंग के जो हाथ, सो चलते रहें, रह जाए जैसा भी हुनर हो,
उनमे नरमी और गर्मी, कुछ बेसबर का टोटका, थोड़ा नियम से
मज़मून के तारे चले जब रात द्वारे, वक्त कैसे ढल गया, चुटकी बजी
उन दलदलों को पाट के, जागी दुकानों में सने, छिन पल गरम से
उस कांच में चलती रहीं, लहरें चमक जो थीं, शहर की हड़बड़ी में
इस आंच के साए, कई ठहरी मिठासें थीं घुली , प्यालों में क्रम से
और भी बातें बचीं, हों और किस दिन, सिलसिले जब हों सफर में
इब्तिदा से इन्तेहाँ, छोटी रही जो भूल हो, या चूक हो भूले करम से
Oct 10, 2010
गुज़रते बादल
जाने वो जब भी समन्दर से गुज़रते होंगे
डूब कर खुद-ब-खुद अन्दर से गुज़रते होंगे
उनकी देखी हुई दुनिया वैसी दुनिया है जहाँ
बरसते होंगे जहां जिस बहर से गुज़रते होंगे
दरबदर आस के दरो दर के रिसाले से कहीं
चलते चाकों में घन ठहर से गुज़रते होंगे
ऐसा सुन पाए नहीं उफ़ या आह बहते हों
खबर मालूम थी वो नश्तर से गुज़रते होंगे
सुना आँखों की हँसी बातों से न दूरी थी
पास कितने जी बवंडर से गुज़रते होंगे
कभी चट्टान पे खिली धूप को खुलकर देखो
वो उस बहार के कोहबर से गुज़रते होंगे
गुज़रते बादल किसी के हुए न हुए सबके हुए
चाहे खुद हों न हों नम घर से गुज़रते होंगे
डूब कर खुद-ब-खुद अन्दर से गुज़रते होंगे
उनकी देखी हुई दुनिया वैसी दुनिया है जहाँ
बरसते होंगे जहां जिस बहर से गुज़रते होंगे
दरबदर आस के दरो दर के रिसाले से कहीं
चलते चाकों में घन ठहर से गुज़रते होंगे
ऐसा सुन पाए नहीं उफ़ या आह बहते हों
खबर मालूम थी वो नश्तर से गुज़रते होंगे
सुना आँखों की हँसी बातों से न दूरी थी
पास कितने जी बवंडर से गुज़रते होंगे
कभी चट्टान पे खिली धूप को खुलकर देखो
वो उस बहार के कोहबर से गुज़रते होंगे
गुज़रते बादल किसी के हुए न हुए सबके हुए
चाहे खुद हों न हों नम घर से गुज़रते होंगे
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