Jun 19, 2011

जि.. जी.. विषा

[.......]

जो ग़म पूछें उन्हीं से हाल, वो कुछ यूं बताए हैं.
जहां तुम थोक में मिलते, वहीं से ले के आए है.

बलाएं भी बिरादर इस तरह, संग राह है प्यारे,
पनाहों में पता चलता, कहर पहले से आए हैं.

उन्हें रातों के बारे में, खुदा मालूम कुछ ना हो,
जिन्हें लगती मुसीबत है, वो कैसे दिन बिताए हैं.

अभी दिखता नहीं नासूर, काँटा है हिजाबों में,
गए वो अक्स अक्सर, आईनों में चिरमिराए हैं.

इन्हीं हालात से, नाज़ुक बने हैं हाल इस माफिक,
कहीं छोटे से छोटे शब्द, बढ़ कर दिल चुभाए हैं

बुरा ना मानना, उनको लगेगा वक़्त चलने में,
जो पिछले पाँव छालों के, चकत्ते काट लाए हैं.

वो वैसे हों न हों, जीवन उन्हें गुलज़ार रख लेगा,
यही दुनिया है, ज़िम्मेवारियां बरगद के साए हैं.

कभी लेकिन अचानक आप बहता है, हुआ यूं क्यूं,
पलक भर पोंछ ले वो फिर, पलट कर मुस्कुराए हैं

अकेले गर जो होते घर, तो ढह जाते बहुत पहले,
ये नेमत है सहन की नींव को, साथी बचाए हैं.

Jun 10, 2011

लयकतरा

[.......]
आदत बहले, मत बदले, हौले हौले सहलाने वाले,
चंद मंद रंगवाने वाले, गीत लौट कर जाने वाले.

सूना मान मिला कर जूना,
सावन घर में छप्पर चूना,
बदर बदरिया बरस बुरादा,
खोखर भरे काठ में दूना.

बिन बारिश का भरा समन्दर,
पथरीला तट बाहर अंदर,
बहुरि भरें मरू का गोवर्धन,
उंगली हाथ नचाने वाले .

मूसल का आधार बना कर, कूट पिसान पिसाने वाले,
बन घन सुर में आएं गाएं, असली के बरसाने वाले.

मन क्या करता नहीं तुम्हारा,
पुलक पुराना मिले दुबारा,
झलक दिखाकर ओझल होता,
पलक झपकते ख्वाब इशारा.

तन्मयता का नशा खुमारी,
रहा रहेगा, बात लबारी,
सुनते स्वर में रही गनीमत,
निशमन नयन निभाने वाले.

झंकारों में ताल ठोंक कर, तार बिरंगे ताने वाले,
निंदिया से कुछ ले भी आएं, सपन सुनहरे बाने वाले.

मुक्त युक्त की बेधुन लय है,
गुप्त लहर बंधन संशय है,
अमिय कहो उच्श्रृंखल हाला,
तृप्ति विजन ऊबड़ आलय है.

कहते कहते रह जाने में,
याद मंत्र के सह धाने में,
पुर का पहना कहाँ उतारें,
गाम धाम मन माने वाले.

बुद-बुद फूट पड़े आते हैं, भाव पुराने भाने वाले,
छुट्टे छंद बंद होठों को, सदा नहीं सिलवाने वाले.

कथा नाम के पद्य अबाधा,
जिनका होना सीधा साधा,
वज्र कठिन साधन संधाना,
यथा विधा को पाना आधा.

इतनी सारी आवृतियां जो,
कृतियों में कृतियाँ उठतीं गो,
क्लिष्ट कला की बूझ समझ में,
छाया मृग पकड़ाने वाले.

धर प्रयोग की पकड़ जकड़ में, अपने राम पुराने वाले,
जैसे घड़ा भरे जिस दिन, उस जल की धार बहाने वाले.

[पु. – वैसे अपने राम के बारे में ये भी कह सकते हैं कि – “भगवा सगवा नहीं पहनते, मर्यादा रह जाने वाले” -मिर्च ज्यादा हो जाती है ]

May 28, 2011

पलायन वा आगमन वा

फ़र्ज़ कर लो कि इक दिन सुबह ना उठे,
नीम अंगड़ाइयों पर बिखर कर बिछे,
नीले मलमल का हौदा लगा कर मगन,
बस रहा हो मधुर छींट का कारवां.
फ़र्ज़ कर लो कि दुनिया बनी ही नहीं.

फ़र्ज़ कर लो समय को खबर तक न हो,
चुप रहें बत्तियाँ चुभ सुई हे अहो,
हल्के पल की ज़मीं लाख लौ के गगन,
मोमजामा पनाहों में पिघला धुंआ.
फ़र्ज़ कर लो शुरू से है पगली नदी.

फ़र्ज़ कर लो बरफ़ है छनी रेत से,
घुप सुरंगों में सूरज की डिबिया कहे,
ऐसा कुछ भी नहीं जो हुआ दफ़्अतन,
छू उड़न की दरी पास की दूरियां,
फ़र्ज़ कर लो गहर में सफर की मणी.

फ़र्ज़ कर लो खुरचता हुआ मूंज का,
नाम रस्सा गिरह खोल भागा हुआ,
मेध से दूर छिटका हुआ हय बदन,
हांफता भांपता कांपता काफ़िया,
फ़र्ज़ कर लो तमन्ना की बाज़ी गई.

फ़र्ज़ करलो गया जो सदा साथ है,
सम सा अन्दर की लहरों में अहसास द्वय,
ज्वार भाटा न दहके महक रात दिन,
उसका रहना सिफर भाल की जालियाँ.
फ़र्ज़ कर लो कथाओं में बचले हँसी.

फ़र्ज़ करलो ये सब रोज़ की मुश्किलें,
काट खाएं नहीं, आती जाती रहें,
जाते आते रहे कल गया बालपन,
लू थपेड़े सुदृढ़ में मिलें आंधियाँ.
फ़र्ज़ कर लो रहा कुछ सही आदमी.

फ़र्ज़ कर लो कि ता ज़िन्दगी भीड़ में,
जो घुमाकर मिले, वो मिलाकर घुले,
थोड़ा कड़वा भी हो प्रेम का हो चयन,
मध्य मीठा रहे अंततः साथिया.
फ़र्ज़ कर लो ये ना हम से है जो सभी.

फ़र्ज़ कर लो यूंही बात कहने में जी
फ़र्ज़ कर लो यूंही बात रहने में थी
फ़र्ज़ कर लो यही बात आने में सी
फ़र्ज़ कर लो ये आने के जाने में भी....

May 18, 2011

चुहलकदमी

खिदमतगार,
ज्यों गए हों कभी, राष्ट्रीय राजमार्ग से जनपद रीवा तहसील हुजूर विन्ध्य का पुराना पड़ाव,
बरास्ता मिर्जापुर डिरामनगंज पार हनुमना से देवतलाव
क़स्बा मनगवां तक, गड्ढे पर खड्डे धौं पिचक, चढ़ेंगी उतार पर हड्डियां पारों में चढ़ाव,
पड़ेगा पंजर के हिलने और पंचर के मिलने का पूरा दबाव.
बड़ेखां परमसंतोषी खड़बड़िया, आप भी बड़बड़ाएं अपने से ही सुभाव
हिन्दुस्तान के दिल में काहे भला है भली राहों का अभाव.
लगातार.

चलबहार सड़कें बनें, चाहते हैं चलित चलनेवाले राहगीर,
सहनेवाले सहित उम्मीद में हैं, पहुंचें राहें कराह-रहित उनतक देर सबेर,
रहनेवालों के मन में भी रही है फलित आशा की टेर, यहाँ तक
रहजन भी चाहते हैं कथित डगर, निकले अगर, सूने इलाकों के व्यथित कगारों में
बढोत्तरी की हवा चले, तथित समर्थ बटमारों में,
सखा सहमति में हैं और सरकते तंत्र में कई एक तंत्री,
कार्यपालक यंत्री, ग्रामसेवक, नगरसेठ, पार्षद और मंत्री,
और तो और, कुछ ऐसा दोपहिया प्रेमी भी चाहते हैं, सुरभित एकांत कभी कभार,
घिरी हरियाली में हो मधुर मार्ग अकेला बस हम-तुम इलाका रहे सन्नाटा बढ़िया,
और कभी कभार अचानक गढ़हे सिर्फ दो-इंची दो चार,
जहां से उचक जाए हवा खाती फटफटिया का पहिया.
चिपक के चक्कर की हवा न लगे, उन्हें
जो हों नात-बाप, या खाप के पंचायती बुज़ुर्गवार,
फतवों में जिन्हें भी है आने वाली सडकों का इन्तज़ार.
सहृदय प्रदेश में लेकिन होता नहीं ऐसा चमत्कार
इतने बहुल संकुल आशाभाव के बावजूद पथ रहे दुर्गम, यात्राओं में न आराम न करार.

खुशगवार प्रेम.. आह.. प्रेम.. इस सड़कछाप कवितानुमा में इश्क का ख़ुफ़िया ज्ञापन,
अमुक के आवाहन के लिए विद्रूप का ललमुनिया विज्ञापन,
व्यावहारिक समकाल सा खटका है इस गुहार,
तनिक सबर, खम्मा घणी, इस पन्ने के पढ़नवार,
पथराव पर सड़क घुमा कर बात है तड़प, इस खुमार बे-नग्मा बे-निगार.

शहरयार ये अजबतुक चुहलकदमी चिरकुटा पदचाप,
प्रेमाश्रित नहीं है केंद्रित है सडकों पर, हालांकि जनम जानें हम-आप
सड़कें और भरी सड़कों में नयनांकित व्यवहार,
प्रेमाभिव्यक्ति का एक खास पसंदीदा उपकरण है,
गुनी कहते हैं सड़कों का अभिकरण, प्रणय की प्रगति में अगम ठगम चरण है
कोशिश में हम निर्गुन नादीदा लौट कर ई सड़कों पर आ से जाते हैं माईबाप,
जहां कुछ प्रेम भी आलोचना और नई सोचना के साथ फूले-फले बिन जाप,
रोज़ाना की आराधना तो चलती रहेगी किसी प्रकार बेनाप,
और पुण्य के पाप जैसी अक्सर ज़िंदगी में लकीरें होती जाएँगी एक से दो से चार
चित्र खींचते रहेंगे तस्वीरों में दिखता रहेगा मित्र मन प्रकार,
बेमौसम यदा कदा कुछ ऐसी भी फुहार, जिसका कोई सटीक मतलब न हो
लगे उम्दा सा कायदा मगर तलब से हो तालिब की बेगार.
उस्तादी भी एक छलावा है, शागिर्दी समझ में तजुर्बा बरकरार,
अरे हाँ, ये गनीमत वो नहीं बने चेले महाआस्तिक तालिबान के आधुनिक अवतार.
लो सहयात्री हम फिर भटक गए, शिकायत की सड़कों से इस बार

रोज़गार जैसे नहीं बनती सड़कें सटक बनवाते हैं ठेकेदार,
जैसे असलजात रोड़ीदार सड़क के मामलात समझे हैं बौड़म के प्रेम प्रकार,
जैसे कोलतार जो था नहीं दाड़िम मुखर, रहा अमूर्त निराकार,
पर पास हुआ था सड़क के बिल सम्प्रति लठमार,
प्रशासनिक सन्दर्भ में तनिक अवैतनिक ज़्यादा,
नरेगा नहाई बहेगा बंटाई धर्मानुसार ऊपर नीचे बाकायदा,
सफ़ाई से धर्म जिस अनुसार है बँटवार,
सो रहे पुख्ता जनतांत्रिक प्रणाली में जनाधार,
समाजसेवा जमावन के गल्प में साभार,
ये भी एक कारण है सड़कें गज में नहीं कागज़ में हैं ठोस नमूदार,
देखिये अब प्रेम के साथ प्रशासन आलोचन भी खिसक आया इस भ्रष्टाक्षर व्यवहार.
क्या करें, गरियाना सबसे सरल है उसको जो है नहीं, या सुनता नहीं बड़ा सार्वभौम आकार
मूसलाधार हिदायतें मुखमार्जन की सरल परिणिति हैं, सलाह आसान बस करना है दुश्वार
वैसे भी कहें सहस्त्रबाहुओं में हमेशा से होते हैं उद्घोषण और शोषण के जीवंत हथियार

योजनाकार सड़कें एक ही कारण नहीं है जो न हो तो न हो दरियादिल चुनावों का बुनाव,
आम बात है हुकुम हुक्मरानों को चाहिए सियासत में रियासत का स्वभाव,
रईसी जिसकी सलाइयों में रिहाइश है कानूनी नोकदार,
ऐसी चुभती खिचड़ियों से हुकूमत का दस्तरखान है कारोबार,
रही बात सडकों की राहें तो बिगड़ती हैं भादों सावन,
उन्हें चाहिए और से और काली परतों का जमावन, आए अगहन पार कुआर,
परत के ऊपर परत एक और परत दर परत डर परत
टूट फूट लाम लूट तह सतह कुछ सुख कुछ असह अबूझमाड़ अनवरत
हर परत पूछती है दूसरी से बता री परत
और कहाँ तक चलेगा सीने से चक्कों को गुज़रना आर-पार,
या हम भी टूट जाएंगे भरभराकर किसी सफर के तहत
लिखा बचत मनगिनत
यात्राओं में ही जमा रहेगा हम परतों के उधेड़ते रहने का मनसार,
परतों की परी कथा, गर्दों की तथा व्यथा,
राह बदर फिर एक बार, हमारी कहास को ले उड़ी दुःख दबी भड़ास इस बार सरकार,

सूत्रधार हमें खेद है वट वृत्तांत में चुस्त थकावट के लिए,
सुस्त झगड़ते जीवट में सुखान्त की आहट, उसकी बनावट के लिए
सखेद हम सिर्फ खुदी सड़कों से खोद कर निकालना चाहते थे, एकमुश्त प्रेम और संतोष
और सपाट सीधी सड़कों से लौटना चाहते थे घर, दोपुश्त जहां गहा था विस्मृत स्मृति कोश
मध्य के उस विविध विशाल ऊंघते प्रदेश,
सरई सागौन महुआ तेंदू गुलाबी चना और हिन्दीमना के बचे खुचे पलाश परिवेश,
शेष है शायद निहित अनिमेष,
जहां भाषा से वसुधा, आशा से प्रेमसुधा, संघर्ष से काननअंगार और पहल से ललकार
अगस्त्य के इन्तज़ार में ठहरा विन्ध्याचल पठार
लेकिन जहां सड़कें बिलकुल भी नहीं बनती है किसी भी भली प्रकार
और कलाओं के किलकते अरण्य से निर्यात और विस्थापित होते रहे हैं फनकार
देश पार की चांदी चमचमाती रेत में खाली सरपट राहों के चलाव में
या फिर गोरेगांव या गुडगाँव की भीड़ भरी सड़कों के गजबज ठहराव में
गोपनीय ऊब का कलरव शोर के ऊपर धीरे से डालता है दबाव
हमारे अंदर सहसा जाग जाता है बेमतलब आरोह अवरोह लौटने का चाव
नहीं मिलने के गाँव
..रास्ता मिर्जापुर डिरामनगंज पार हनुमना से देवतलाव..





Apr 28, 2011

संगत राशि


पक्का नहीं कहता  कि सब, सांसत से लड़ लड़ता हूँ मैं
हम कदम इक दम  मिला, दुइ  पाँव  चल चलता हूँ मैं

उजड़ें   दीवारें  खँडहर,  छातें  हों   ख्वाहिश  बरस  भर
आसमां  तू  उड़  भी  जा, पर-छाँव  चिन  चिनता हूँ  मैं

कुछ  व्यर्थ हों,  कुछ  अर्थ हों,  जेवर  जवाहर  जर नहीं
दो  कौड़ियों  के  एकवचन, बहु  दांव  धर  धरता  हूँ मैं

तन-धन  छंटा,  मन-घन  घटा, घटते  घटी तारीख कम
मानस  उमस  बचता  गया,  जिउ ताव तप तपता हूँ मैं

तट  कट  बहें  मझधार  पर,  पर  संग  रहो तुम धार पर
अविरल  तुम्हीं  को  देख  कर, हर घाव सह सहता हूँ मैं

धमनी  में  धर  धूधुर-धुआं,  माया  के  छाया जाल  मथ
इतना  बिलोकर  तुम  जहां,  उस गाँव  बस  बसता हूँ मैं

Apr 21, 2011

इतने दिनों के बाद रात ...

बात सपनों की  ये  बारात,  रात  जग अफ़सरी  जगमगाई  है
कुछ  हैं  ख़्वाबों  से  बदर,  उधर  जल  जलपरी  नींद  आई  है

जीव की  जान  गड़ी हूक,   मूक  में  गुमशुदा  ख़्वाबों की भूख
जबर  ये  भूख  है  शाइस्ता,  आहिस्ता   ये  हूक  भी  सौदाई है

ये थके हाथ उफ़ थके पैर,  गैर  के  द्वार  थके जज़्बात की सैर
थकी सिलवट है खुली आँख,   झाँक  कहती  वो  सुबह छाई है

यूं कैसे मान लूं बयानात,  हालात कि ढल चली  है  महल रात
फकत क़ानून के तहत, तखत बताए  किस पाए पे सुनवाई है

देख ली  नाम  से  निकली,  वली  बड़ों  की  यूं नीयत छिछली
ये  ताकत है ता क़यामत,  नियामत है कमज़ोर में अच्छाई है

कौन  अच्छा है  क्या  बुरा,  चुरा  सुकूं  अगर वो चारागर चरा
ये हो न हो  नहीं खबर,  गर जो  खुद से जीत लें  लड़ी लड़ाई है

जिन्हें इस इल्म का इरफ़ान, फ़रमान पे जिनके मुरीद कुर्बान
क्या  उन्हें  इल्म है  गाफ़िल, हासिल  ये जो इल्म में रुस्वाई है

कभी  पहले  भी  थे  यहाँ  जवां, जुबां के दायरे हसरत के मकां
वो   भर तारीख  में  नहीं,  यहीं  महफ़िल  में आलमे तन्हाई है

भूल जा  भूलते जाना,  माना सर न  सहारा  है  भरम  ज़माना
रेत शहतीर में है  चाह है गुम,  तुम-हम के  टेक  हैं  परछाई है

भूल कर फिर से  मैं जो  याद करूं,  भरूं जो याद की भरपाई है
रात गुम ख्वाब है  बातों की बात,  बात रंग स्याह से रंगवाई है

Feb 10, 2011

आदतन

ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर
अगर वैसा किया होता, किया जैसा नहीं तब पर मगर
जो हो नहीं पाया, उसी पर दिया-बाती सोचना
अवधारणा की ताक से मन कोंचना, भर पोंछना
फिरकी कवायद है, गए जाए की चुप आलोचना
पर है सनद में ठस कि ज्यों - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर

अगर जो उन दिनों, दाएँ न मुड़, बाएँ चले जाते भला
या तोड़ते ना एक दिन, वैसा किताबी सिलसिला
ये काम ना कुछ और करते, उस किसी जन की तरह
तम बंद ना होता, खुला होता गगन इसकी जगह
पहले ही उड़ जाते, धरा का मोह था जी का शगल
कहते थे जो अपनी ज़मीं, किसकी वो थी सदियों पहल
मिट्टी के मन का स्वाद, जो अवसाद रह कर भरभरा
उनके लिए कुछ और कर पाते, दरकता किरकिरा
किरचों में मिर्चों सी कई, यादें गईं शामो-सहर
पाते नहीं चश्मे सहारों में, न खोते ख़ाक जो खोई नज़र
तो देख लेते वो कि जो – ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर

किया जो एक मौसम में, धुओं में बारिशों में भीगते
कुछ आग तारों की छुड़ा, दिन दूब की जड़ सींचते
तब रतजगे लगता था, जुगनू वास्ता है एक का
फिर कुछ दिनों के बाद, आए रास्ता समवेत का
खर-बखत छापे भीत पर, सीखे तजुर्बे जो हुए
देखे पुराने काफिले भटके, चमक के बुर्ज धूसर के जुएं
अब दो-पहर दो-राह दो-मन दो-विधा की तल धरा
गड़ती किलक की बात, सबने क्यों नहीं उतना करा
जो हो नहीं पाया, लदा बेताल सा काँधे इधर
पूछे कहो नश्वर गए उस राह के नक़्शे किधर
उस वहाँ होना था जहां - ऐसा नहीं तैसा हुआ होना तनिक बेहतर

एकमन बांच ले जितना, सभी होता नहीं एकमन कहा
इतनी बड़ी दुनिया में, सगरे मन अलग अपनी तरह
अपनी कही के दाह में पकती गवाही चाह में
ले कर चलें फ़ाज़िल पढ़े लिक्खे बहस की राह में
है अलग सच सबका अलग अपने अलग की क्या कहें
है प्रेम जिनसे उनसे भी अक्सर असहमत से रहें
ऐसा न था उस रोज़, जब ये पार या वो पार हाँ
चल-खरल पीसे एक सुर ये जीत या वो हार क्या
साधे न मन सब तार उचटे आज से छटपट उधर
माने न जाने तब किया कुछ बचपने से तर-बतर
ये उम्र का कहना अगर - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर


अगर वैसा हुआ होता महज, होता भी जाता काश कर
क्या खैर ना उल्टा उधड़ता, काश के अवकाश पर
जैसे हमेशा, शोक के पल, लोप लेते हैं खुशी
औ दुःख के दिन भी सदा तो, रहते नहीं है ना कहीं
बदली में रहना और बदलना चाँद का आकाश में
चलना स्वतः विद्रोह में या मोह माया पाश में
चूंकि गरम है भेस कम्बल छूटते ही जाएंगे
चूके दिनों के देस मज्जा में कहीं जम गाएंगे
जो गुनगुनाएंगे मसहरी में चुनांचे रात भर
हर नींद को, हर चैन को, दे जाएंगे थोड़ा सा ज्वर
सुन रहगुज़र - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर


ये हो सकता है, ये सब कल्पना हो, अल्प तुक आलाप हो
जिसकी जिरह खारिज हुई जाती है, मद्धम ताप हो
या है दिमागी दौर, रसायन का विरल संकोच है
जो कल बहल जाएगी, ऐसी आज की जल सोच है
जो भी है, कठफोड़वा कसक के एक कोने भल बसा
ना मुस्कुराया मन, चहक मुख मोर जिस भी पल हंसा
समतल तुले रहने की कोशिश, नट कला का कष्ट पद
तुक बेतुकी मुश्किल नहीं, मिल जाए खुद की एक हद
वो छोर, जिस की डोर से, बाँधे खुलें उतने ही स्वर
एक बात जो कह दें मुखर, सब हो भी सकता था अधिक बदतर
अगर वैसा हुआ होता कि जब - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर