Jul 2, 2013

इस जनम में एक और दिन


गर दे जीगरा दे जो, नमक से खार ना खाए
खड़े को लड़खड़ाने के, दिनों की याद रह जाए

किनारे रास्तों के घोंसले, चढ़ पेड़ सोचे जा  
नई राहें उड़ानों की, जड़ी मिट्टी न मिटवाए

ठिकाना घर बदलने का, दाग दस्तूर है दुनिया 
जमा वो भी नहीं होता, जहां से भाग कर आए,

सफ़ों में दर्ज चुन्नट से, भरी सिलवट है पेशानी 
रफ़ू चक्कर से अब होते, पैरहन वक्त सिलवाए 

मुए मिर्चों के मिसरे ये, कटे किर्चों में जा बिखरे,
रोशनी जोड़ कर तोड़े, शक्ल दरपन को ना भाए

शिकायत आदतन होठों में आ, अखबार होती है
बहस करवट बदलती बात, झपकी रात सुस्ताए  

गुज़ारी ज़िंदगी भी बल, तुम्हारी बात जैसी है
भली काफ़ी लगे ये और, थोड़ी समझ ना पाए

Jun 8, 2013

भरे खाली की व्यथा कथा


अक्सर असमंजस  दिलबहार, मुड़ मुड़ कर पीछे जाएंगे
तबके  व्यतीत में तर  खुमार, खाली में भर भर लाएंगे 

दिन बीते भले लगे आएं, ये आज समय ही  खास नहीं
पुर ऊबड़ खाबड़ पथरीले, उर पर मधुबन, वनवास नहीं 
चूते खपड़े  ढब कच्चे घर, बिच्छू कीड़े  भय भूल भुला 
कल के जाड़े, लू के  झाड़े, यादें कोमल,  कटु-त्रास नहीं

भूले दिन विधना पर निर्भर, अक्सर निरुपाय नरो-नारी
माता, हैजा, काला जारी,  जब तब फलते दुःख बीमारी 
कम  मिलती वो रोशन  उजास, आखें फाड़े जागी रातें
संझा बाती थम  हो जाती,  ढिबरी में बिजुरी रख सारी

कैसे जैसे  धुर बीहड़  में, ज्यों पढ़ लिख कांटे फूल भए
ये सांझ  पलट गुलदस्ता हो, दूभर के दिन तो भूल गए  
वो दिन लेकिन जब बच्चों को,  कैसे कर के बतलाएंगे  
वारिद मन के मन ही में से, मन  का सावन बरसाएंगे 
ये  आदत  है हर  पीढ़ी की, हम भी किरदार निभाएंगे
तबके  व्यतीत में तर  खुमार, खाली में भर भर लाएंगे 

इस  आज समय जो ज़ाहिर है अखबार भरे मारा मारी 
हर रोज  कहीं  लपटा झपटी हर रोज  कहीं गोला बारी
क्या  ऐसा है हर  बात बुरी, या सिर्फ खबर के खेले हैं
क्यों वही  सुर्खियाँ हो जातीं, जो  सुर्ख रंग की हों सारी

जैसा  फ़ितरत में फैला है, मानव दानव  एक खाल बने
ताज़ा अधिमान  धरे  बहुमत, चटपट की चालू चाल चुने
ऐसे में संभव नहीं अधिक,  सद्ज्ञान कर्म की शोहरत हो
डर चमक खनखने  बिकते हैं, संपादक पाठक  छाप गुने

तत्पर तत्क्षण  उत्सुक अधीर, दुनिया दर नया बनाती है
मिर्चों के साथ सरस फल भी,  वसुधा हर रोज़ उगाती है
जो ऋण धन आलोचन वाले, वो  कमियां ही किलकाएंगे
समतोल  ताल अनसुनी किये, बेसुर  सुर समझ गवाएंगे
बिन समझे  संग प्रसंग  अभी, अनुभव  के गए भुनाएंगे 
तबके  व्यतीत में  तर खुमार, खाली में  भर भर लाएंगे 

हम सब हैं यायावर  जानी, जो राज कुमार स्वयं वर से
हम  जैसा  कोई  हुआ नहीं, हमने लिखने अपने हिस्से
पदचिन्ह  समय  की रेती पर, बनते मिटते जग जाने हैं
अज्ञात बहुत कुछ है अब भी, कहने बाकी कितने किस्से

कुछ  साल पहल विश्वास न था,  ऐसा भी होता जाएगा 
अपने जीवन में  परिवर्तन,  विरला कर  सरल बनाएगा
जैसे अनाम लोगों की धुन,  श्रमसाधन दिन  भरपूर भरे
ये जज़्बा इंसानी  कल फिर, सज बढ़ जग और सजाएगा 

बदले परिसर में विस्मय पर, यों खेल खिलाता  है आता  
ये उम्रदराज़ी का चक्कर, ज्यों निपट अकेला  कर जाता
यूं चक्कर के घनचक्कर में,  कंकर पथ  चोट खिलाएंगे 
तो जीने वाले  जोर लगा,  जीवन मुख  अलख जगाएंगे
कुछ सुन्दर  मुदा  मुरीद बने, गोरा पन  लेप  लगाएंगे
कुछ अर्चन,  रोदन,  रंजन से, खोए  में जिया जलाएंगे
अन्जाने  जाने  कथा-व्यथा, अचरज से  सींच  सुनाएंगे
तबके  व्यतीत में तर  खुमार, खाली में भर भर लाएंगे 

Apr 17, 2013

जवाबों की दुनिया में सवाल


भले आदमी तुम कहाँ पर मिलोगे, प्रफुल्लित खिलोगे भले आदमी
दीन दुनिया की रफ्तार में खर्च बचते, कहाँ तक रहोगे भले आदमी

अल्टे सल्टे पुलिंदों की ख़ुफ़िया गुफ़ाएं
नीम छत्ते या सुविधा में धुत साधनाएं
ता-हद्दे चाहत, इबादत के चिलमन
पर्दा पर्दा ले दौड़ी थकी व्यंजनाएं

रुकोगे चलोगे चलोगे रुकोगे, वो रंग कौन कान्हां से हमराज़ होगे
चलते-पलते बदलते बगल की ज़मीं, याकि बादल बनोगे भले आदमी

यूं हैं नज़रें करम हर नज़र है अलग सी
दिन लगें सारे जंगल, कभी साफ़ बस्ती  
कब ये गड़बड़ के विस्तार सब ठीक लागें
क्या गलत की गणित है कि या है सही

जो ये वैसे नहीं ऐसे कैसे लगोगे, जैसा सोचा उसे कर के भी ना करोगे
अपनी बीनाईयों की तड़प में सुभीते, किसके चश्मे रहोगे भले आदमी

भले आदमी आज हो या कि कल हो
अटल शाश्वत या बदल के शगल दो
यार अफसोस दो या भरोसा बढ़ा कर
अलग की तराशी गुज़रती नक़ल को

विविध रूप में खींच खांचे रंगोगे, हर समय हो भले ये सदा ना सुनोगे
वो सुने अनसुने ठूंस टांड़ी में भूले, रहना भारों में हल्के भले आदमी     

ये भला वो भला नाम का सिलसिला
ठोस बातों का मज़मून नम पिलपिला
पीते पीते कभी प्यास बुझती न आए  
हम कुआं रब का डूबे मिले ना तला 

कूप खुद से निकलकर कहाँ पर चढ़ोगे, नदी के बहाने समंदर गिरोगे 
रेत में ढूंढते मृग उनींदे सुपन, बावरे मन अजब जन भले आदमी

हसरतें  रहतीं तारी सदा के लिए
वक्त सीमित सनम फैसला कीजिये  
रूतबा रुक्का जो यादों का सामान हो
याकि धड़कन कि जिसमे लगे दिल जिए

यूं ही दिल को दिमागों के भीतर सुनोगे, औ साँसों को भी रोशनी में गिनोगे  
उसमें  चमके न चमको रहे सादगी, ताज़गी लिख के रखना भले आदमी   


Mar 24, 2013

हमसाया आसमां


मिले जो पीर दुनिया की, या कि दुनिया के पीर मिलें
नहीं मिलें ये अलग से, एक मिलकर के तकदीर मिले  

ये तो एकबार साथ चले, फिर साये से भी अज़ीज़ बने
दिन ख्वाब धुन में साथ रहे, रही रात बगलगीर मिले

थे अपने उजाले के आईने में भी, हमशक्ल ये हमारे से
चटख स्याह हम सहारे थे, हमें भी रंग से तस्वीर मिले

समझ कर क्या समझना, भूलना भी नामुनासिब है
न अपनी सोच में काबू, न चलते कहीं कबीर मिले

ये बेमतलब अलग बातें, कभी मतलब सही बना लेवें
कोई पूछे तो याद आए यों, जैसे राह में फ़कीर मिले 

Mar 9, 2013

कवितालाप



कविता तुम कविता सी भी रहना, कभी-कभी हो पाए तो
वरना सुन देखा घनचक्कर, अक्कड़-बक्कड़ लिखवाए जो

ये नहीं कहा रुक बंध जाओ, पल पलट निहारो पाले दिन
हाँ कभी-कभी ना सदा-सदा, आ जाना छंदों में छन छिन
फिर अपने सावन झूले चढ़, अंतस में आग बगूले पढ़
कथ राह बनाना आगे बढ़,  पथ दुर्गम बनता जाए तो
[कविता तुम कविता सी भी रहना, कभी-कभी हो पाए तो]

माना कि यहाँ पर इतना कुछ, बरसों से बरस रहा ऐसा
तल के भीतर पावक धावक, तर कर के तरस करे जैसा  
सुनियो सुनियोजित नहीं जना, कहियो कहना आषाढ़ मना
संयम लपटों को आंच बना, तप शिशिर जोत बन जाए तो
[कविता तुम कविता सी भी रहना, कभी-कभी हो पाए तो]

रवि रोज़ घूमकर आएगा, किरणों भर कसक चुभाएगा 
कहीं न कहीं ये दुनिया में, बादल भी फट गिर जाएगा
इस समय खुला कुल छुपा नहीं, गलती हो चाहे बात सही  
निज खोजा पाया गहा यहीं,  खो कर हलका हो जाए तो
[कविता तुम कविता सी भी रहना, कभी-कभी हो पाए तो]

धीरे धीरे तन ढलता है, मन का मुख मोड़ बदलता है
जो नया भला सा चमकाता, उसके साए युग चलता है 
बदली भाषा आशा बदली, नव चाल ढाल में गाँव गली  
पर हर ना होनी गात भली, बहु सुखिना फूला जाए तो   
[कविता तुम कविता सी भी रहना, कभी-कभी हो पाए तो]

लघु दुखता साथी रहे मगर, वो चूका चिरमिर छाप घटा
कब झड़ी लगे और अनायास, गुम राहें पूछें बता पता
जीवन यापन में देशाटन, देशांतर व्यापित विज्ञापन 
जिउ ऐसे में शैशव यौवन, कुछ क्षण लौटा के लाए तो
[कविता तुम कविता सी भी रहना, कभी-कभी हो पाए तो]

लो यदा कदा सुख होने दो, दुःख को दो झपकी सोने दो
धक्के मुक्के की भीड़ ढूंढ, खो कर के खुद रुख होने दो 
कुछ पल का हो बेजाल जहां, ठहरी हो लहरी चाल वहाँ 
ये कहना कितना सरल यहाँ, अब होना जब हो जाए तो  
[कविता तुम कविता सी भी रहना, कभी-कभी हो पाए तो]

Feb 23, 2013

अंतर्धुन्ध


दिसंबर की उँगलियों में, फंसता फंसाता हुआ, स्थगित,
विलंबित सफ़र को, और लंबा बनाता हुआ, अफ़सानागो तथाकथित,
तकरीबन ठेलता, ठंडी हवा को खेंच, कुड़कुड़ाता अलबत्ता व्यथित,
जोर से खांसता हुआ, और खंखारने की बुनावट बनावटी,
लगती है और पेचीदा होती जाती है, चाय पान तक यात्रा, कटी-फटी  
ठिठुरा देशाटन प्रदेश ही नहीं है, धुंध से भरा,
प्रफुल्ल सामंजस्य के, शिथिल में ठहरा   
अभी अलस्सुबह, या कि देर शाम,  
स्वयं प्रवेश की छाती में भी पड़ा, है कड़ा, कोहरा छिपे नाम

छिपे नाम कौन, बड़ा सुलझा, टाई के पेंच में उलझा, आईने में अदृश्य पार्थ,
छिपे नाम जौन, इत्मीनान के आत्मीय में कुलबुलान, नादीदा मौन, साथ,
कि खुले आम खड़े खड़े दौड़ना, रथयात्रा में खुद-खुश को भी जोड़ना, हे जगन्नाथ
साष्टांग कई बातों के डर के बावजूद, साहब जनाब का वजूद, बगैर आश्चर्य के चकित
पावन से कुछ एक दशमलव समयानुसार पतित,
पतले होते समीकरणों में मोटे घटक अज्ञात, नए पहाड़े पहाड़,
दूरियां तय करने के लिए बिठाए गए गोटे, समुचित जुगाड़,
अभिन्न बीज के उगने का गणित, फलित दुनियादारी का जंगल  तमाम,
इन्हीं राहों में मिला, कोहरा आमद के मुहाने, बूझो तो जाने, कवायद का ईनाम.

ईनाम में जैसे, निकल आती है, अटकल में राह, पनाह में तनाव ले पहुँचते,
ईनाम में जैसे, गरम होती दुनिया में, ठन्डे होते हुए स्वभाव के, अमरबेल रिश्ते
बकाया बारिश में धुले तो दिखे, अरे साधारण ही तो थे, महानुभाव फ़रिश्ते
आसान भी नहीं, समझना पूरे सवाल, सीमित मेधा का ये जन्जाल, दूभर है
मसलन चीन की उन्नति कथानुसार, अमरीका के खाऊपन पर, सालमसाल निर्भर है
कहो और, मंदी का दौर, धनी दुनिया पर लंबित हैं  खांचे अनुप्रस्थ
लेकिन हर नज़र बाशिंदे वहाँ के, अधिकतर, दिखे हैं अपन से खासे स्वस्थ
शायद दुनिया भर में संतोष के पैमाने अलग, पर दुःख और धुंध के बयानों में बड़े साम  
ऐसा ही सोच, कोहरा ढाले विस्थापित दोस्तों के नाम, एक और जाम.

एक और जाम भर कर, हर नई यात्रा में जो खाली समय तत्पर, अचानक,
जाम ज़ाहिर सभी गई-बीती विडंबनाओं का शायर, हमसफ़र मानक,
आवाजों से उबाल फेंटता, गुजरी यात्राओं पर सवाल टेकता कथानक,
चली यादों सा घुरघुराता इंजन, या कि भोंपू सा कर्कशा आज का वाचन,
या नज़र की बीनाई में पैठ आए सहज का, भरसक आलिंगन,
गुज़र जाता है, फिर रह रह कर गुज़रता है,
या कि अव्यक्त का डिठौना लगा, लावे का छौना ठिठुरता है,
कि तनिक गर्मी, क्षणिक झपकी-थोड़ी राहत दे नमी, सफ़र के पर धाम
सतर कोहरा सधा है खुदा, यूं ही टलना है गुमशुदा, धूप का परिणाम.

परिणाम की धूप का इन्तज़ार, धुंध के बहाने, आने फलाने, लोग मिलते व्यस्त,
परिणाम सा एक हत्थे, उकडूँ बैठा पत्थर है मील का, धंसा जिसके मत्थे, वरदहस्त,
कौन देगा वर? सब ताबड़तोड़ इधर उधर, अपने आस के पास पर, ज्वर पस्त,
धुंध में आकाश से पाताल गूँज, रोष, मेरा बिलकुल नहीं है कोई इस काल दोष,
तनिक सुनो इस निमित्त में कुबेर से होड़ है समझो तो चित्त में वाचाल कोष,
मुखर इतना है अगर कि खबर को खबर,
लगे कि बदल गया बसर या कि बहर को लगी नज़र,
तो राई के धुएं से बचा कोहरा क्या चिरचिराती इच्छा का मोहरा कलाम,  
सकुशल नित्या में काबिज एक उड़नफल, बदली लोकप्रिय मिथ्या पर विराम.

विराम के बारे सोचना, जल्दी है क्या? कि समय का है क्या कहना,
विराम इस धुंध में कितना, सामर्थ्य ने अपनी, सोच के ऊपर, ओढ़ा या पहना,
होना है कोई नियम, लेकिन होता नहीं, सदा वर्तमान में (या संतुलित) बने रहना,
इतनी शिकायतें, और उसपर हिदायतें, सुनी और कही, क्या गलत क्या सही, ज़माना,
पास में है उम्मीद एक कारण और ज्ञान जितना भी है, या नहीं जो बताना,
किस तर्क में गौण होता जा रहा निष्कर्ष, किस पहचान में पैदल, फील और वजीर,
एक जैसे, बिसात बिछाने की फ़िराक में, पढ़ गए अलगव्यवहारिक तकदीर,
जिस की लिखी रेखाओं में बीहड़ है, भूल में भुलइया, रंग कोहरा, धुंध दीवानीटीम टाम,
उसी दीवानगी को ढूँढना है, बांटने को गया सारा प्यार, और करने को नया सारा काम,
फिर थाम कर चलना है हाथ, साथ के साथ, ये जो कोहरा है साथी, छिपा मनराम. 
[ ता  अंजाम  ]

Jan 18, 2013

मुकर्रर



काफ़िये बेगार के, छलके कलाम हो गए
हादसे जैसे मिले, अपने भी नाम हो गए   

अफ़सोस अफ़साने तराने, यार शायद कायदे
बेसाख्ता ता ज़िंदगी, यादों में आम हो गए

कागज़ दिमाग मुल्क में, कोहरा घना ऐसा छना  
रात जग के बचाए दिन, गुज़र के शाम हो गए

घर रोशनी की रूह ले, दामन में दुबकी धूप थी
डर ले गए साए अज़ीज़, सब तामझाम हो गए

उधड़े हुए उलझे से कुछ, उखड़े नहीं पूरे सफ़र
ये डगर भी भूलती गई, कितने विराम हो गए     

कैसे हंसें रोएँ कहाँ, हम तेज वक्त गुलाम हैं  
लम्हें शहर के जो गए, सारे तमाम हो गए