Mar 29, 2008

हलफ़नामे पर विवाद होना ही है

इस बात पर भौहें तनी, पलकें उठीं, और पुतलियों के नृत्य हैं।
कह्कशाँओं में अधिकतर, लोभ के ही भृत्य हैं।

अतिशय अभी अति-क्षय नहीं,
अनुराग है रंग-राग से,
हाँ चाहतों से भय हटा,
है प्रीति प्रस्तुत भाग से।
स्वागत शरण दे सर्वदा, संतुष्टि रहती अलहदा,
परमार्थ के वाणिज्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

सूख जाएँ स्वेद कण,
जीवन मरण दलते रहें,
अधिकार से हुंकार भर,
जयकार जन चलते रहें।
सादर शिखर की भोगना में, गौमुखी परियोजना में,
बघनखे औचित्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

गूँज है मेरी सुनो,
मेरी सुनो, मेरी सुनो,
मेरे कथन, पत्थर वचन,
उबटन से मेरी तुम बनो।
मेरे सुखद में झोंक श्रम, तुम अर्चना कर लो प्रथम,
दैदीप्य हम आदित्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

लोभ- धन, सम्मान का,
सर्वोच्च उत्तम ज्ञान का,
हाँ मूल से, अवशेष से,
या पुष्टि का, स्थान का।
जिस भी कलम से मान लें, जितने मुकद्दर छान लें,
कुछ स्वार्थ हिय के कृत्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

जोड़कर जीवन में भ्रम,
जीते हैं साझे रीति क्रम,
तब तक रहें आसक्त जन,
जब तक रहेंगे तन में दम।
आहुति के मन घृत्य हैं, मानव-जनम के नित्य हैं,
अस्तित्व के साहित्य हैं
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

... हाँ पुतलियों के नृत्य हैं..
...और लोभ के ही भृत्य हैं।

Mar 26, 2008

सवेरे का सपना : स्वप्न का प्रलाप : तनाव के दिन

बहुत -बहुत दिनों से सपना सवेरे की नींद तोड़ता है,- सार में बराबर सा, - रूप हो सकता है थोड़ा बहुत ऊपर नीचे हो - हो सकता है बाहर निकले तो कुछ कम हो, पर होगा नहीं - उसमें समय अभी है - फ़िलहाल है कविता जैसा कुछ -अगले और पिछले अंतरालों का तर्जुमा -

यह नहीं होता-तो क्या होता?
कहाँ होता ? किधर होता?
किरण के फूटने से एक पल पहले,
अंधेरे में खडा कुछ देखता,
बस एक पल, जिसमें, विवादों के/ विषादों के पलायन का,
निपटता माजरा होता।
मगर कैसे ?

यूँ नहीं होता, अलग होता, अजब होता,
सजावट में, लिखावट में, करम में, आज़्माइश में,
अजायब सा धुआं होता,
बहिश्तों में..,
काश कोई फ़रिश्तों में,
मेरे नज़दीक आ कर बैठता,
और गुफ़्तगू, वरदान, वादा छोड़, अपने हाथ का ठंडा,
मेरे घनघोर अन्तिम की अनल के दरमियाँ रखता।
अमर जल बांटता।

आधी नींद चलती,
और डर ढूँढता, घर ढूँढता,
मुझसे अलग, मेरी नकल से दूर.
कितनी दूर ?
जितने लोक से अवतार,
मंथन की भरी नीहारिका के पार,
जा डर बैठता,
उस दूर मोढ़े पर।
अकेला।

खरे संताप की सीढ़ी,
चले सपने के चलने में,
कोई तहाता,
ठेल देता उस दुछ्त्ती में,
जहाँ पर कूदने के बाद भी मैं,
जा नहीं पाता,
निविड़ में भागता,
और भागता जाता,
छोर, बस एक अंगुल दूर,
केवल एक अंगुल दूर,
रह कर छूटता जाता।
पसीना फैलता।

और फिर वैसा नहीं होता,
शिथिल, बर्रौं सा मंडराता,
घूमता, घूम कर आता,
रुके सन्दर्भ को धुन बांटता,
फिर जागने का डंक दे जाता,
नहीं सपना, वही फूटी किरण,
है आँख में चुभती,
चीरती रक्त का आलस,
जीतती-हार, की हस्ती।
मिथक गाता।

तनावों में, उबासी से तनी जम्हाईयों को ले भरे,
एक और दिन आता।

Mar 21, 2008

होलिफ़ लैला

देखिये, होली में जो देस में हैं सब हल्के हो रहे हैं, आप सब को शुभ कामनाएं, हम तो अरब देश में पड़े हैं, और होली में काम पर जा रहे हैं, आप कुछ गुझिया हमारे लोगों के नाम की भी खा लीजियेगा और ... [ बाकी आप सब विद्वान् हैं ]

तो जो होली में हमारे जैसे काम पर जा रहे हैं उनका एक होली गीत -

राजा ने रानी की, सुननी सुनानी है
जोतों को रातों को, कहनी कहानी है

जब भोर हो, ताज़ा-ताज़ा तमाशे हों
कुछ कर जुटे, कहके जोशे जवानी है

जितनी उम्मीदों से, सपने बनाये हैं
उतनी बनाने में, मेहनत लगानी है

बातें बनाने से, मौसम बदलते हैं?
मौसम बदलने की, बातें बनानी हैं

अब ये मोहर्रम के, दिन तो नहीं हैं
रंग के इरादों को, होली मनानी है


पुनश्च :

बूटी ने बम-बम की,तबियत को खोला है
जिन्नों को बोतल में, वापस घुसानी है [ :-)]

Mar 15, 2008

नहीं लिखने के बहाने - ५

सिर्फ़ कोशिश है बस, हर कोशिश में लटक जाती है
एक टक देखने जाता हूँ, मेरी आँख झपक जाती है

और निगाहें भी ग़लत से, किसी दम मिल जो गईं
आईने बन के तो आते है, मुई शक्ल चटख जाती है

फिर अगर चेहरे ही दिखे, उन सब मुखौटों से अलग
पहले पानी में बहे जाते हैं, और लाज भटक जाती है

मेरे पानी के ग़म जुदा है मेरे पानी के गुज़र से
रूह आतिश पे ठहरती है, एक घूँट हलक जाती है

क्या हैं वसीयत के वहम, या के विलायत के करम
ये समझ बूझ के पाने में, चढ़ी नज़्म अटक जाती है

Mar 4, 2008

हाशिये पर अल्प विराम

लगता नही कभी बनाएगी,
कविता मुझे तो, बेफ़िकर, बेखौफ़, सीधा, सच्चा और होशियार ।

कुछ नहीं करती सिर्फ़ कविता,
न लाड़, न प्यार, न ईर्ष्या, भेद न दुत्कार
जैसे कुछ नहीं कर पाते,
अकेले के अरण्य में दहाड़ते मतिभ्रम,
डर के प्रतिहार,
डाकिये के बस्ते में, खुंसे बैरंग चिट्ठे,
पानी पी कर फैलते, क्रोध के विस्तार,
वहां तक - पहुँच ही नहीं पाते -
जहाँ के लिए चले थे?

कोशिश, सिर्फ़ प्रयास, ले लिपटाते हैं,
तुक पर कौतुक के पैबंद,
मोरपंख हैं दिखते, पर हड्डी हैं छंद
मेरुदंड, कतरे-कातर / पकड़े-
आदम-हव्वा, हूर-लंगूर रक्त, समता और सिन्दूर
और वैसे सारे जुमले,
जो एक-दो, दिन-रात मिले, मिल-जुले/ जैसे -
उबले-अंडे, चीनिया-बादाम, चना-जोर लपेटे अखबार,
छंद देखते ही रहते हैं- संयम, विवेक और सदाचार
जिनको दिव्य पैतृक उच्चारण ही, ले उड़ते हैं साधिकार,
एक समय, एक और समय, वही समय हर बार ?

बगैर चमत्कार किये जीते हैं गाभिन छंद-
हवा, मिट्टी, खुले, धुएँ और धूल के बीचों-बीच,
जैसे शर्म, दर्प, अर्पण, हिचक, अस्पष्ट, चाहत,
विराग, संदेह और सम्मान -
वितानों में आते हैं, और आते-जाते हैं लगातार
जिनको भूलते भी जाते हैं, प्रार्थी, पदाभिलाषी, महामानव-
आते अपनी तुर्रम- टोपी, मकान, ताज, सामान दिखाते, बताते हैं-
चलो अपनी दूकान बढाओ, कहीं और ज़मीन ले जाओ यार,
चलो पीढियों के यायावर, विस्थापन के रक्तबीज,
पैरों के तलवों की आग भगाते,
भाईचारों की भीड़, और इसके चुप आतंक के परम पार ?

गुरुओं के पीछे लगे आते हैं धवल चेले,
मान-अभिमान, कलमा-कलाम, ठेलम-ठेले,
लूट और लूट के कमाल के हिस्सेदार,
मद, पैसा, पैदाइश, पीं-पीं, पों-पों, इस्टाम्प, हस्ताक्षर
कतर-ब्योंत के मतलब तराशते, उचकते-उचकाते/ सहचर
ज़ुबानदराज़ कैंचियाँ, चाकू, कई हथियार
कागज़ के सादे, खड़े ही टुकड़े पर/ धार-दार,
दो-पाँव, एक आवाज़, हो पाने के पहले
एक के बाद एक, पुन अनेक/ वार
जैसे बाँट जाने की वसीयत,
लेकर जनमता है, हर एक परिवार ?

कुछ नहीं करती, सिर्फ़ कविता,
लौट आती है, वापस गोल घूम, दशाब्द, गोलार्ध, घर-संसार
कठौतियों में बिस्तरबंद मस्बूक़ सवाल, जिरह, खोज समाचार,
लइया, सत्तू, आलू-प्याज, रोटी-पराठे, पुराने गाने,
चार-दोस्त, चतुरंग, तरल तार
ब्रह्माण्ड से अणु-खंड तक लगता ही नहीं,
बदलता/ बदल पाता है/ बदल पाएगा, आदिम शोधों का खंडित व्यवहार
मानिए नग़्मानिगार, जनाब सुखनवर, कविराज, लेखक पाठक, पत्रकार
लगता नही कभी बनाएगी,
कविता मुझे तो, बेफ़िकर, बेखौफ़, सीधा, सच्चा और होशियार
बस यही अंत है, यही है शुरू, यही बात बार-बार, हर बार

[आप क्या कहते हैं? ]