Nov 17, 2007

प्रथम

मेरे सहमे कदम, दरवाज़े तक टहलते, ठहरे
अभी भी दस्तक की दहलीज़ थमे, हिचके इकहरे
मरोड़ता रहा हथेली के मुहाने,
अभी वक्त को शुरू होना हैं
इस बार कलम को नहीं उँगलियों को सहेजना है
.....शायद

3 comments:

नीरज गोस्वामी said...

मनीष जी
कहते हैं ना की "बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी......" देखिये मैंने आप की कल की पोस्ट से जो आप को पढने का सफर शुरू किया था वो आज यहाँ तक आन पहुँचा है...ये कहना की आप बहुत अच्छा लिखते हैं ठीक नहीं होगा कहना ये पड़ेगा की आप कमाल का लिखते हैं. शब्दों के साथ आप की दोस्ती देख कर दांतों तले ऊँगली दबाने को जी कर रहा है....भाई वाह. हरी मिर्च खाने का अपना अलग मजा है लेकिन मजा इतना होगा ये आज ही जाना.
मेरी एक समस्या है वो ये की ब्लोगवानी पर आप ने कब अपनी रचना पोस्ट की इसका भान नहीं लगता है इसलिए अब आप को आप की रचना के पोस्ट होते ही कैसे पढ़ा जाये ? मेरी अल्प बुध्धि में जो बात आ रही है वो ये की जैसे ही आप अपनी रचना पोस्ट करें मुझे ई -मेल के द्वारा सूचित कर दें, इस से आप का कुछ जाएगा नहीं लेकिन मुझ पर जरूर उपकार हो जाएगा. उम्मीद है की निराश नहीं करेंगे.
नीरज

अभिनव said...

लीजिये हम भी पढ़ते पढ़ते यहाँ तक पहुँच गए. मज़ा आ गया, बड़े दिनों बाद ऐसा तीखा तेवर, तल्ख़ पर आनंददायी रचनायें पढने को मिलीं. बाकी नीरज जी की टिपण्णी से हम भी सहमत हैं, कृपया मेल से अपनी अगली कविता की सूचना अवश्य भेजें, कई बार ब्लाग्वानी पर मिस हो जाती है.

Anonymous said...

मनीष जी
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