Dec 25, 2007

बुन कर

सागरों में सुर, नहीं स्वर, झर रहा है।
आगतों के बीच में घर कर रहा है।

वेदना का मान है क्या ?
धुन बुना सदगान है क्या ?
शब्दशः नश्वर समय में ,
अंततः अभिमान है क्या ?

फिर समर्पण तोलता है ,
अनमना तह खोलता है ,
सर पटकता है वहीं पर ,
धुर उसी मुँह बोलता है ,

अंतरों में मींज कर, नश्तर रहा है।

सृजन का उन्माद है यह,
मगन का संवाद है यह,
निशा निश्चित छिन्न कीलित,
प्रमद का अवसाद है यह,

अंतरालों के शिखर से,
बंद तालों की उमर तक,
बह लगे रेलों के संदल,
स्याह प्यालों के पहर तक,

अमृतों को दंश दे कर, तर रहा है।

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचन है।बधाई।

अमिताभ मीत said...

सर, बहुत बहुत शुक्रिया आप मेरे ब्लॉग पर आए और मेरी हौसला अफ़ज़ाई की. आज पहली बार आया आप की "हरी मिर्च" पे और मुग्ध हो गया हूँ. आप को पढने के बाद और भी ज़्यादा हर्षित हूँ. आप को पढ़ कर भी और आप ने मुझे पसंद किया इस लिए भी. आप जैसे गुणी लोग हिम्मत बढायेंगे तो ज़रूर कुछ लिख सकूंगा मैं भी. वरना तो मैं बस ऐंवें ही हूँ. बहरहाल आप की लेखनी कमाल है .... उम्मीद है मुझे भी प्रेरित करेगी.