Mar 4, 2008

हाशिये पर अल्प विराम

लगता नही कभी बनाएगी,
कविता मुझे तो, बेफ़िकर, बेखौफ़, सीधा, सच्चा और होशियार ।

कुछ नहीं करती सिर्फ़ कविता,
न लाड़, न प्यार, न ईर्ष्या, भेद न दुत्कार
जैसे कुछ नहीं कर पाते,
अकेले के अरण्य में दहाड़ते मतिभ्रम,
डर के प्रतिहार,
डाकिये के बस्ते में, खुंसे बैरंग चिट्ठे,
पानी पी कर फैलते, क्रोध के विस्तार,
वहां तक - पहुँच ही नहीं पाते -
जहाँ के लिए चले थे?

कोशिश, सिर्फ़ प्रयास, ले लिपटाते हैं,
तुक पर कौतुक के पैबंद,
मोरपंख हैं दिखते, पर हड्डी हैं छंद
मेरुदंड, कतरे-कातर / पकड़े-
आदम-हव्वा, हूर-लंगूर रक्त, समता और सिन्दूर
और वैसे सारे जुमले,
जो एक-दो, दिन-रात मिले, मिल-जुले/ जैसे -
उबले-अंडे, चीनिया-बादाम, चना-जोर लपेटे अखबार,
छंद देखते ही रहते हैं- संयम, विवेक और सदाचार
जिनको दिव्य पैतृक उच्चारण ही, ले उड़ते हैं साधिकार,
एक समय, एक और समय, वही समय हर बार ?

बगैर चमत्कार किये जीते हैं गाभिन छंद-
हवा, मिट्टी, खुले, धुएँ और धूल के बीचों-बीच,
जैसे शर्म, दर्प, अर्पण, हिचक, अस्पष्ट, चाहत,
विराग, संदेह और सम्मान -
वितानों में आते हैं, और आते-जाते हैं लगातार
जिनको भूलते भी जाते हैं, प्रार्थी, पदाभिलाषी, महामानव-
आते अपनी तुर्रम- टोपी, मकान, ताज, सामान दिखाते, बताते हैं-
चलो अपनी दूकान बढाओ, कहीं और ज़मीन ले जाओ यार,
चलो पीढियों के यायावर, विस्थापन के रक्तबीज,
पैरों के तलवों की आग भगाते,
भाईचारों की भीड़, और इसके चुप आतंक के परम पार ?

गुरुओं के पीछे लगे आते हैं धवल चेले,
मान-अभिमान, कलमा-कलाम, ठेलम-ठेले,
लूट और लूट के कमाल के हिस्सेदार,
मद, पैसा, पैदाइश, पीं-पीं, पों-पों, इस्टाम्प, हस्ताक्षर
कतर-ब्योंत के मतलब तराशते, उचकते-उचकाते/ सहचर
ज़ुबानदराज़ कैंचियाँ, चाकू, कई हथियार
कागज़ के सादे, खड़े ही टुकड़े पर/ धार-दार,
दो-पाँव, एक आवाज़, हो पाने के पहले
एक के बाद एक, पुन अनेक/ वार
जैसे बाँट जाने की वसीयत,
लेकर जनमता है, हर एक परिवार ?

कुछ नहीं करती, सिर्फ़ कविता,
लौट आती है, वापस गोल घूम, दशाब्द, गोलार्ध, घर-संसार
कठौतियों में बिस्तरबंद मस्बूक़ सवाल, जिरह, खोज समाचार,
लइया, सत्तू, आलू-प्याज, रोटी-पराठे, पुराने गाने,
चार-दोस्त, चतुरंग, तरल तार
ब्रह्माण्ड से अणु-खंड तक लगता ही नहीं,
बदलता/ बदल पाता है/ बदल पाएगा, आदिम शोधों का खंडित व्यवहार
मानिए नग़्मानिगार, जनाब सुखनवर, कविराज, लेखक पाठक, पत्रकार
लगता नही कभी बनाएगी,
कविता मुझे तो, बेफ़िकर, बेखौफ़, सीधा, सच्चा और होशियार
बस यही अंत है, यही है शुरू, यही बात बार-बार, हर बार

[आप क्या कहते हैं? ]

14 comments:

Tarun said...

Ab hum kya kahen, aapne itna khuch keh diya. Kuch chora hi nahi.

Bari achi terah bandha hai shabdo ko

azdak said...

मैं यह कहता हूं कि कभी मिर्ची वाली प्‍लेट आपकी गोद में सजवाकर आपके साथ बैठूं, और सवाल करूं कि होजुर, ये कहंवा-कहंवा की उड़ानें हो रही हैं?..

Pratyaksha said...

इतनी सीधी सच्ची बेखौफ कहने के बाद भी ?

Unknown said...

"लगता नही कभी बनाएगी,
कविता मुझे तो, बेफ़िकर, बेखौफ़, सीधा, सच्चा और होशियार ।"
कौन से डोक्यूमेन्ट पर यह शर्त लिखी है ?!

बस एक ही काम करती है कविता....रूह का मिरर इमेज बन सकती है...

वैसे आप धीरे धीरे शब्दों को अपने पास आने दे रहे हैं...ज़रा ध्यान से कहीं बेफ़िकर, बेखौफ़, सीधा, सच्चा और होशियार बना ही ना दे...

बेहद पसंद आई।

भोजवानी said...

कबीर सा रा रा रा रा रा रा रा रारारारारारारारा
जोगी जी रा रा रा रा रा रा रा रा रा रा री

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

कविता और कुछ करे या न करे, पर हमारी इंसानियत और भावनाओं को बचाए रखने की जददोजहद तो कर ही सकती है।
वैसे इस दिल से निकली कविता के लिए इस कवि की ओर से बधाई।

Shiv Kumar Mishra said...

बहुत खूब सर. बहुत खूब.

वैसे एक बात पूछता हूँ. इतनी निडरता अगर कविता नहीं ले आई तो फिर कौन जिम्मेदार है?

अजित वडनेरकर said...

जैसे बाँट जाने की वसीयत,
लेकर जनमता है, हर एक परिवार ?

भाई , मैं तो यही मान रहा हूं कि फोन पर हुई बात को सही करने में लगे हैं आप। सच, लगे रहें। ये छौने से , पखेरु से, फल-फूल-पत्ती से शब्द सहजता से जब आपकी छांह में दिखते हैं तो अर्थवान हो उठती है कविता।

Sandeep Singh said...

मेरा सिर गरम है, इसलिए भरम है।
क्या करूं, कहां जाऊं, दिल्ली या उज्जैन।
मुक्तिबोध से पहले गजानन माधव इस भरम में इस कदर उलझे कि अंधेरे को तार-तार कर गए।चारों ओर बिखरी कविता और पलक झपकते, खुलते बनते-मिटते बिम्ब, शब्दों का संजाल आपको इस कदर बेचैन करता कि जो कुछ बाहर आया ही नहीं अभी गर्भ में समाया है, संभावनाओं में उसे भी तराश लेते हैं।
'बगैर चमत्कार किये जीते हैं गाभिन छंद-
हवा, मिट्टी, खुले, धुएँ और धूल के बीचों-बीच,
जैसे शर्म, दर्प, अर्पण, हिचक, अस्पष्ट, चाहत,
विराग, संदेह और सम्मान -
वितानों में आते हैं, और आते-जाते हैं लगातार....
जारी रहने की संभावना लिए। अच्छा है।

siddheshwar singh said...

मैं भी अजीब आदमी हूं
आलसी तो शायद नंबर एक का
हरी मिर्च की तिताई भा गई
भूल गया स्वाद मिष्टी और केक का
अच्छा है-बोफ़्फ़ाईन

मीनाक्षी said...

आज आपकी इस कविता को पढ़कर अचानक मन में सवाल पैदा हुआ. गिलास में रखी ताज़ी हरी मिर्च और आपकी कविता में क्या सम्बन्ध हो सकता है?

डॉ .अनुराग said...

भाई वाह आपने तो किसी को भी नही बख्शा हजूर

रवीन्द्र प्रभात said...

वेहद सुंदर और सारगर्भित कविता , बधाईयाँ !

राज भाटिय़ा said...

बहुत खुब ,वहां तक - पहुँच ही नहीं पाते -
जहाँ के लिए चले थे?
एक एक शव्द तरीफ़ का मोहताज हे,
धन्यवाद एक सुन्दर कविता के लिये