May 28, 2010

एकी यात्रा

आवाज़ तन्द्रा और कमजोरी किसी कहानी कविता से नहीं पैदा हुईं थीं उनकी,
उनका न संग पता था न थिर-रूप, पता-ठिकाना था भी और नहीं भी था सरे आम में,
उल्काएं थीं या थिरकी मुद्राएं शायद परस्पर अनुरोध में या संग्राम में.

जिसके पैर भी न देखे थे, आँखें पीछे ही पीछे लगी रहीं उनके, छोड़ कर मुंह देखना था ज्ञान नहीं था,
अंधा न था जो विश्वास था, उपहास की उक्तिओं में संदेशा,  अंदेशा मुखकी रगों में पिपिरही थी अनमनी,
वैसा संगीत था जिसमें नींद थी जागने के बावजूद, कभी-कभी संतुष्ट सोते पुष्ट होते अध्याहास महाधनी,
जामुन के रंग की यात्राएं थी शायद मन-घनी अधबनी.

जहां कपडे लत्ते साबुन मठरी, कंघी और संदूक और बंधे थे अधमुंदी नींद में,
तेल पानी था या कूचियाँ थीं गठरी में या नहीं / याद नहीं,
क्या फांकते गऐ यह भी हांकते गऐ दिन किसे निशा सांय,
कौन झाँक गया, बुझा चूना, कत्था, तमाखू, उल्टे हाथ ही रखा था बाएँ / दाएँ
सीधे आगे निकला था नाक सी सीध सा रस्ता,
मेढ़े से टेढ़ा तेज देसी पत्ता बिदेसी ठाठ बाट अलबत्ता, चहकता रोक सके तो रोक

भाग की झोंक में एक से ज़्यादा एक मौके, नसीबन कुछ एक धोके,
ऊपर की माया की शीतल छाया और छाया की तपती नोक,

शौक और धुंए के लंबे कैप्सूल थे, काले फेफड़े थे जैसे रेत में ईंधन,
धुकधुक की ड्योढ़ी में अंतराल था, ठोड़ी में दाग, टूट में घुटने, नस में वसा रसायन,
खून में बढ़ती चीनी, कविताओं में दुःख वातायन.

जब दूर (या पास?) बर्फ तह-दबे दबाए-पगे बाण ले आग-धूल निकलते थे उत्तर उत्तरायण,
उपरस्थ अस्त होते थे व्यस्त हवाईयान बे राग-मूल आयन-पलायन,
तब भ्रम में शान्ति, शान्ति और दया तेल थे हड्डी की रीढ़ में,
सोख्ते थे एकालाप बंबई, दिल्ली, दुबई, कलकत्ते वगैरह की भीड़ में,
समानार्थी थे सन्दर्भ में आखेट, आतंक, दवा, दहन. भोजन, शोषण शमन इत्यादि योजन

एकत्रित थे सभ्य सुसंस्कृत व्यसन / सुशिक्षित,
तच्छक के इन्तज़ार थे कथा श्रोता होते थे सर्वधाम परीच्छित,
जिनकी परिच्छाओं में पर्चियां थीं, गुपचुप तैरती कदमताल में पर्चियां,
कदमताल की किस्मत थीं जिनकी पारदंश पारकाल,

परादेश भरे खाली कैनवास थे बर्फ और धूप के सीमाबद्ध बयान में थे आशा और आस्था सखेद,
झक सफ़ेद थी उम्मीद यों कि कहते हैं ऐसा सब रंग मिल बनाते हैं जब इन्द्रधनुष लोपता है शून्य में,
कोई यहीं खोता है जब बारिश होती है रोती बाढ़ में बहता है सब नया आने के लिए जिस दिन,
पुराना गुज़रता है ठक ठकाता जागते रहो ख्वाब है दूर हरी घास का मैदान पास बेफसल,
बड़ी सारी लाल चींटियाँ हैं अंतस्, काटती हैं लाल होता हैं, यहां बाँबियाँ हैं बाँबियों में

क्यारियों के सामर्थ्य पर, चिंगारियों पर, गीले-सीले शिकवे छाते हैं मानसून के बादल और समय का संकोच,
कोंचती किताबें यहीं बनती हैं हादसों और सब्जबागों के साथ बंट खप गए जंगल पहाड़ सपनों और आशंकाओं में,
संभावनाओं के दिए तले यही उगते हैं मदार, बबूल / रेत में
बादशाह बचे जाते हैं बच्चों के पढ़ने और चारण और कठपुतलियों के खेल के लिए सर्वांग प्रफुल्ल.

घेरे चाक चौबंद कभी तोड़ कर बढते हैं कभी घोर में घेरते हैं अकथित अमूल्य,
अतुल्य निशाचरों के एकांत की उपासनाएं हैं जहां जिन्हें पहचानते नहीं थे कुछ जानने लगे हैं,
उनके एकांत में बाम हैं, पीठ में धप्पियाँ हैं, बिसरे उमस की हवा बिखरे हैं भूले पर चलते हैं चलाचल,
एक लंबी ऊंघी मशीन हैं भूरे कबाड़ी कागज़ किताबें, लंगड़, लट्ठे-पट्ठे निगलती, निकालती/ दखल
आत्मीय एकांत, बुलबुले खुल बंद खुले, वही सब अन्तोपरांत

सीमान्त दीप्त दीमकों का रचा प्रिय भूगोल- दीवालों के इतिहास में धूर मात्रा,
ऐसे अनायास की यात्रा में अनेक में एक में अनेक की यात्रा है एकी यात्रा.

7 comments:

Udan Tashtari said...

निःशब्द-अद्भुत!!!!

डॉ .अनुराग said...

शौक और धुंए के लंबे कैप्सूल थे, काले फेफड़े थे जैसे रेत में ईंधन,
धुकधुक की ड्योढ़ी में अंतराल था, ठोड़ी में दाग, टूट में घुटने, नस में वसा रसायन,
खून में बढ़ती चीनी, कविताओं में दुःख वातायन.

अकविता की अगर समझ कहूँ तो अच्छी नहीं है मुझमे....पर आपके लिखे में कुछ ऐसा है जो जाना पहचाना लगता है .देखा भाला सा .कुछ ऐसा है जो सिर्फ आप इस्तेमाल करते है .या आपके ज़ेहन में उगता है बारम बार जैसे ये ......
क्यारियों के सामर्थ्य पर, चिंगारियों पर, गीले-सीले शिकवे छाते हैं मानसून के बादल और समय का संकोच,
कोंचती किताबें यहीं बनती हैं हादसों और सब्जबागों के साथ बंट खप गए जंगल पहाड़ सपनों और आशंकाओं में,
संभावनाओं के दिए तले यही उगते हैं मदार, बबूल / रेत में
बादशाह बचे जाते हैं बच्चों के पढ़ने और चारण और कठपुतलियों के खेल के लिए सर्वांग प्रफुल्ल.

ओर इन पंक्तियों में जैसे आपने अपना बचपन उडेला है ........
उनके एकांत में बाम हैं, पीठ में धप्पियाँ हैं, बिसरे उमस की हवा बिखरे हैं भूले पर चलते हैं चलाचल,
एक लंबी ऊंघी मशीन हैं भूरे कबाड़ी कागज़ किताबें, लंगड़, लट्ठे-पट्ठे निगलती, निकालती/ दखल

बेमिसाल.......

चंद्रभूषण said...

@डियर जोशिम, कुछ पत्राचार हो जाए। उलझा हुआ हूं। आपकी कविता अभी पढ़ी नहीं है।

Unknown said...

This reminded me of my favorite poet Muktibodh and the following lines from his poem चम्बल की घाटी में came to mind.
चिंता हो गयी कविता को पढ़ते ही,
उसमें से अँधेरे का भभकारा उमड़ा;
तिलमिला,आत्मा
प्रतिक्रया करती हुई
चित्रमयी अजन्ता की गुहा जैसी होती गयी |

मीनाक्षी said...

आपकी चित्रात्मक भाषा शैली और उसमें भीगे भाव चमत्कृत कर जाते हैं..

विधुल्लता said...

आपकी पोस्ट पर पहली बार ..हूँ कभी-कभी जाने पहचाने लोगों से ऊब होती है ....बस देख रही थी ,क्या कुछ और भी लिखा जारहा है ...बहुत ज्यादा तो कह सकने की स्थिति में नहीं हूँ लेकिन कहूँगी आपके लेखन में आंतरिक एकता है यहाँ अर्थ प्राप्ति की ऐसी संभावनाओं की तलाश है जहां जाने-पहचाने विचार भीतर चुपके-चुपके अपना काम करते रहतें हेँ
क्यारियों के सामर्थ्य पर, चिंगारियों पर, गीले-सीले शिकवे छाते हैं मानसून के बादल और समय का संकोच,..ये पंक्तियाँ महत्वपूर्ण है .सही मायनों में दुःख और अनंत शब्द का अपने आप में क्या कोई मतलब है...लेकिन अकेले इस पर एक बड़ा और बढ़िया आकार खडा किया जा सकता है .गहरी अमूर्त भाषा देर तक बांधे रहती है ...बधाई

Unknown said...

Cool new look !!!