Dec 13, 2007

किर्चों में सजा इन्द्रधनुष

[ १९८६ की लिखी कविता जो अभी तक .. लगभग .. याद है - ब्लौग शुरू करने के पहले की शायद आख़िरी ]

जब,
सपने टूट गिरते हैं,
पतझड़ के पातों से, रूखे / मुरझाये
राख की मेड़ों से, ढहते/ भुरभुराए
दिशाएं जब, बन पड़ती हैं तमस घनघोर,
और लीलने लगता है - एक, शून्यलाप कठोर,
तब कहीं
ढ़ुलकी बूंदों से,
धरती बन जाती है नरम
फूट पड़ता है अदद अंकुर,
रुकता नहीं क्रम
हो न हताश
मत छोड़ विश्वास
उठ पुरूष ,
जीवित है इन्द्रधनुष

3 comments:

Unknown said...

जैसा कि तीसरा सप्तक के किसी कवि ने कहा था 'कविता वह अभिव्यक्ति है जो पाठक को उद्वेलित करती है’ वैसा ही इस मौलिक रचना में इन्द्र्धनुष के दर्शन से लगता है और मानो हर मन में एक आशा कि किरण जग जाती है।

नीरज गोस्वामी said...

आप की प्रशंशा में अब मेरे पास शब्द कम पढने लगे हैं अपना लिखे ही शब्द दुहराता प्रतीत हो रहा हूँ. लिखते रहें यूँ ही हमेशा.
नीरज

महेंद्र मिश्र said...

हां ऐसा ही है जीवन ......आशाओं से भरे होकर जीने वालों का....डरर्ने वालों को यहां कुछ नहीं हासिल.......जियो...