फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
योजन भर के अरमानों में, संक्षिप्त रूप से बह जाना।
ज्यों द्वेष नहीं कर पाते हो,
उपदेश सहज कर लाते हो।
चित तेज धार पर जाते हो,
पट मंथर- मंथर आते हो ।
ऐसे करतब दिखलाने में,
नट, खट से झट कर जाने में,
सब सही नहीं करना साथी ,
कुछ भूल चूक छापे लाना ।
फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
लेनी देनी की भूल चाल, गुन सब के बहलाते जाना ।
है समय आज का विषम विकट,
रफ़्तार बाँटती डांट डपट।
चेहरे आश्वासन लपट लिपट,
अंदाज़ नहीं क्या कलुष कपट ।
तुम कारीगर के हाथों को ,
औ छिन्न-भिन्न मधु खातों को ,
सहला बस देना एक बार,
मरहम की पुड़िया धर जाना ।
फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
मातम को हुश हड़का देना, खुश बंद द्वार को दे आना
जो बड़े रहें बढ़ते जाएँ,
जो खड़े रहें चढ़ते जाएँ।
जो अड़े रहें भिड़ते जाएँ,
जो पड़े रहें, सहते जाएँ।
ऐसा रहता ही होता है,
बादल को पानी बोता है,
तुम झूम-धूम को सरस-बरस,
थोड़ा सा पानी दे जाना ।
फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
पुन लाज सजा कर मौसम की, फक्कड़ झंडे भी से आना ।
23 comments:
जो बड़े रहें बढ़ते जाएँ,
जो खड़े रहें चढ़ते जाएँ।
जो अड़े रहें भिड़ते जाएँ,
जो पड़े रहें, सहते जाएँ।
आप लिख रहे, लिखते जाएँ,
हम पढ़ रहे, पढ़ते जाएँ... !
ऐसा रहता ही होता है,
बादल को पानी बोता है,
तुम झूम-धूम को सरस-बरस,
थोड़ा सा पानी दे जाना ।
आपकी भी एक खास अदा है साहेब......
अरे सरल तरीके से इतनी बढ़िया कविता बन सकती है। वाह। हरी मिर्च की यह तासीर है - नहीं पता था।
है समय आज का विषम विकट,
रफ़्तार बाँटती डांट डपट।
चेहरे आश्वासन लपट लिपट,
अंदाज़ नहीं क्या कलुष कपट ।
तुम कारीगर के हाथों को ,
औ छिन्न-भिन्न मधु खातों को ,
सहला बस देना एक बार,
मरहम की पुड़िया धर जाना ।
सरस और सार्थक
गाजा बाजा के बाजीगर
फुटकर-चिल्लर देते जाना
क्या बात कह गए जोशिम साहब, जिधर देखो उधर बड़े-बड़े नोट, चिल्लरों की तो आजकल बहुत ही दिक्कत चल रही है!
भइए मजा आ गया । आपकी भाषा पर हमें रश्क होता है । अच्छी चिल्लर है खनकाते हुए बढ़ते जाईये । हम खनक को सुनकर मस्त हो रहे हैं ।
क्या करते हो मनीष भाई!!! इतना बेहतरीन लिखने को किसने कहा आपसे...बाकी सब क्या दुकान में ताला डाल दें?? बताईये!! बताईये!! :)
फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।""
बच्चों को हम अक्सर हलाला और फिल्ज़ कहते हैं जो खिलखिलाते(खनकते) प्यारे लगते हैं, हम बड़े रियाल और दरम जैसे फीके काग़ज़ के फूल से....
साधारण सा गीत असाधारण सा भाव लिए ....
मनीष भाइया आज पहली बार आपके ब्लाग मै आने का सौभाग्य मिला."साधाराण सा साधारण गीत" से शुरु किया तो गाडी "चलोगे?", "छोटे सावाल" से होते हुए "प्रथम" पर जाकर रुकी. आप तो शब्दों के जादुगर हैं. लेकिन ये बात मजे कि लगी कि रास अल खेमा मै रह्ते हुए आपका कवि ह्र्दय लिखने के लिये दोबारा प्रेरित हो गया है. अगली कविता/ लेख का इन्तजार रहेगा!
Bahut khoob !!
Aise hee likhte rahiye ..
Aur
hum pad ker khush hote rahein !
जो बड़े रहें बढ़ते जाएँ,
जो खड़े रहें चढ़ते जाएँ।
जो अड़े रहें भिड़ते जाएँ,
जो पड़े रहें, सहते जाएँ।
क्या बात कही है.. बहुत अच्छे.. सुंदर रचना..
भाव,शब्द के जादूगर
बस यूं ही लिखते जाना....
अतीव सुन्दर !
'बादल को पानी बोता है'- वाह! क्या बात है!
मनीष भाई, कहाँ अंतर्ध्यान हो गए हैं? हमारी गली में आजकल आना-जाना बंद है!
hush hudak.... vah lovely prayog!
hush hudak.... vah lovely prayog!
what next?
जोशी जी, साधारण का असाधारण गीत है यह। अद्भुत। अगले गीत का इंतजार है।
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आई....अब लगता है बार बार आना पड़ेगा. बहुत खूब लिखा है.
कलरव और कोलाहल के बीच ये खामोशी कैसी है, ये कैसी व्यस्तता है जो एक कवि को उसकी लय और प्रवाह और गति से भटका रही है. ऐसा क्या है जो स्थगित हो गया है छंद का फूटना, राग का आरोह, और एक जिद्दी धुन का जुबान पर फिर फिर लौटना. ऐसा क्या है की ग़ज़ल आदमी को नहीं गा रही है और सफर आदमी को नहीं तै कर रहा है..
दूसरे शब्दों में अजगर अपनी मांद में सो रहा है, क्योंकि उसके खंडित व्यक्तित्व को अखबार निकलने से फुरसत नहीं, पर आप क्यों खामोश हैं महीने भर से बॉस
कहाँ हैं भाई....कुछ लिखें...
क़दमों को ठहरने का हुनर ही नहीं आया
सब मंजिलें सर हो गयीं, घर ही नहीं आया.
क़दमों को ठहरने का हुनर ही नहीं आया
सब मंजिलें सर हो गयीं, घर ही नहीं आया.
क्या है भीडू? कुछ लिख नईं रयेला है?
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