Apr 11, 2010

बेतार की जिरह

कुछ सोच हैं, हैरान हूँ, परेशां हूँ बा वजह,
खुद के नाम हम कहूं, या यूं कहूं कि मैं.

क्या यूं कहूँ, ज़र्रा हूँ फू, सहरा में गुम गया,
एक जड़ हूँ बगीचे में, या गुंचों में है जगह.

किन खुशबुओं   में ख़ाक हूँ, किस रंग में फ़ना,
मैं हूँ यहाँ, या चुक गया, दफ़ना हूँ किस सतह.

या शाम का भूला हूँ, सो भटका हूँ रात भर,
तारो भला बतला तो दो, आएगी कब सुबह.

क्यों   धूप में ठंडा हुआ, जल में जला हूँ क्यों,
हर ओर समंदर, तो क्यों, प्यासा हूँ तह-ब-तह.

ना बोलती हैं मछलियां, क्यों बोलती नहीं,
चुपचाप तैरती हैं,  ये रहती हैं   किस तरह.

इस खेल में देरी हुई,  मुश्किल थी, माफ कर,
ना जानता किस मात में, किसने कहा था शह.

लगता यूं गम मसरूफ़ हैं,रूमानी किताब में,
लो चुप हुआ बस हो गई, बेतार की जिरह.

Apr 8, 2010

भोथरा

लोहा आवाज़ की बुलंदी   पर बिखरने में लगा है,
लोहा   कागज   के कगारों से  छितरने में लगा है.
और है तेज़ मुहिम, ईमारतों में लगाने  की  लोहा,
ये मुआ गोलियों, छुरों, छर्रों में बदलने में लगा है.


लोहे को लिखना नहीं हे महंत,
उसे बाँट देना छोटे छोटे आतातायी हिस्सों में
जैसे वाक्यों को बहस में और शब्दों को ध्वनियों में साधना
उकसाने की धार, तर्क की नोक या मुद्रा कटार में
तेज़ तर्रार अफ़लातूनी परिभाषाओं के साज सिंगार में
पूरे विश्वास से
चोगे में पढ़ी पसंद को गुण-ज्ञान में छांट बाँटना

लोहे से प्रेम नहीं करना हे महंत
गल कर निकल सकता है जैसे पीठ का पराक्रम
शैशव की पाठ्य पुस्तक से निकल भागता है रेत के टीलों में
वहाँ हवा लहरिया लहरें बनाती है
जैसी भी बारिश हो झट गुम हो जाती है
संज्ञाशून्य कोलाहल के अखबार में
हल नहीं बनते, हलाहल फैलते है जंग में गड़ती कीलों में

लोहे से सावधान हे महंत
विश्राम के समय, इस ज़माने से काला, भुरकुस भरम है,
चूल में चीखता है पुराना चौखट में घुसा है गरम है
तरीके में बसा है बस इतनी मजबूरी है
पुलों नव कलों पाँच तारा ठिकानों में
विकास के सारे संरक्षित परिधानों में
कंक्रीट के पैमानों में
कुछ एक को परदे रखना ही ज़रूरी है

पूछना नहीं लोहे की जड़ हे महंत
डर लगता है नए सवालों के निकल आने में
कोई खासा षडयंत्र रहा होगा जो सभ्यता ने छुपाया है
कहा किसी ने वैदेही की रेखा से चुना
कहीं बड़े सबेरे आँख खुली तो सुना
रगों में नहीं मिलेगा कलरव इन दिनों,
भोथरा
माथे से गिरा, आँख ने टपकाया है