Feb 23, 2013

अंतर्धुन्ध


दिसंबर की उँगलियों में, फंसता फंसाता हुआ, स्थगित,
विलंबित सफ़र को, और लंबा बनाता हुआ, अफ़सानागो तथाकथित,
तकरीबन ठेलता, ठंडी हवा को खेंच, कुड़कुड़ाता अलबत्ता व्यथित,
जोर से खांसता हुआ, और खंखारने की बुनावट बनावटी,
लगती है और पेचीदा होती जाती है, चाय पान तक यात्रा, कटी-फटी  
ठिठुरा देशाटन प्रदेश ही नहीं है, धुंध से भरा,
प्रफुल्ल सामंजस्य के, शिथिल में ठहरा   
अभी अलस्सुबह, या कि देर शाम,  
स्वयं प्रवेश की छाती में भी पड़ा, है कड़ा, कोहरा छिपे नाम

छिपे नाम कौन, बड़ा सुलझा, टाई के पेंच में उलझा, आईने में अदृश्य पार्थ,
छिपे नाम जौन, इत्मीनान के आत्मीय में कुलबुलान, नादीदा मौन, साथ,
कि खुले आम खड़े खड़े दौड़ना, रथयात्रा में खुद-खुश को भी जोड़ना, हे जगन्नाथ
साष्टांग कई बातों के डर के बावजूद, साहब जनाब का वजूद, बगैर आश्चर्य के चकित
पावन से कुछ एक दशमलव समयानुसार पतित,
पतले होते समीकरणों में मोटे घटक अज्ञात, नए पहाड़े पहाड़,
दूरियां तय करने के लिए बिठाए गए गोटे, समुचित जुगाड़,
अभिन्न बीज के उगने का गणित, फलित दुनियादारी का जंगल  तमाम,
इन्हीं राहों में मिला, कोहरा आमद के मुहाने, बूझो तो जाने, कवायद का ईनाम.

ईनाम में जैसे, निकल आती है, अटकल में राह, पनाह में तनाव ले पहुँचते,
ईनाम में जैसे, गरम होती दुनिया में, ठन्डे होते हुए स्वभाव के, अमरबेल रिश्ते
बकाया बारिश में धुले तो दिखे, अरे साधारण ही तो थे, महानुभाव फ़रिश्ते
आसान भी नहीं, समझना पूरे सवाल, सीमित मेधा का ये जन्जाल, दूभर है
मसलन चीन की उन्नति कथानुसार, अमरीका के खाऊपन पर, सालमसाल निर्भर है
कहो और, मंदी का दौर, धनी दुनिया पर लंबित हैं  खांचे अनुप्रस्थ
लेकिन हर नज़र बाशिंदे वहाँ के, अधिकतर, दिखे हैं अपन से खासे स्वस्थ
शायद दुनिया भर में संतोष के पैमाने अलग, पर दुःख और धुंध के बयानों में बड़े साम  
ऐसा ही सोच, कोहरा ढाले विस्थापित दोस्तों के नाम, एक और जाम.

एक और जाम भर कर, हर नई यात्रा में जो खाली समय तत्पर, अचानक,
जाम ज़ाहिर सभी गई-बीती विडंबनाओं का शायर, हमसफ़र मानक,
आवाजों से उबाल फेंटता, गुजरी यात्राओं पर सवाल टेकता कथानक,
चली यादों सा घुरघुराता इंजन, या कि भोंपू सा कर्कशा आज का वाचन,
या नज़र की बीनाई में पैठ आए सहज का, भरसक आलिंगन,
गुज़र जाता है, फिर रह रह कर गुज़रता है,
या कि अव्यक्त का डिठौना लगा, लावे का छौना ठिठुरता है,
कि तनिक गर्मी, क्षणिक झपकी-थोड़ी राहत दे नमी, सफ़र के पर धाम
सतर कोहरा सधा है खुदा, यूं ही टलना है गुमशुदा, धूप का परिणाम.

परिणाम की धूप का इन्तज़ार, धुंध के बहाने, आने फलाने, लोग मिलते व्यस्त,
परिणाम सा एक हत्थे, उकडूँ बैठा पत्थर है मील का, धंसा जिसके मत्थे, वरदहस्त,
कौन देगा वर? सब ताबड़तोड़ इधर उधर, अपने आस के पास पर, ज्वर पस्त,
धुंध में आकाश से पाताल गूँज, रोष, मेरा बिलकुल नहीं है कोई इस काल दोष,
तनिक सुनो इस निमित्त में कुबेर से होड़ है समझो तो चित्त में वाचाल कोष,
मुखर इतना है अगर कि खबर को खबर,
लगे कि बदल गया बसर या कि बहर को लगी नज़र,
तो राई के धुएं से बचा कोहरा क्या चिरचिराती इच्छा का मोहरा कलाम,  
सकुशल नित्या में काबिज एक उड़नफल, बदली लोकप्रिय मिथ्या पर विराम.

विराम के बारे सोचना, जल्दी है क्या? कि समय का है क्या कहना,
विराम इस धुंध में कितना, सामर्थ्य ने अपनी, सोच के ऊपर, ओढ़ा या पहना,
होना है कोई नियम, लेकिन होता नहीं, सदा वर्तमान में (या संतुलित) बने रहना,
इतनी शिकायतें, और उसपर हिदायतें, सुनी और कही, क्या गलत क्या सही, ज़माना,
पास में है उम्मीद एक कारण और ज्ञान जितना भी है, या नहीं जो बताना,
किस तर्क में गौण होता जा रहा निष्कर्ष, किस पहचान में पैदल, फील और वजीर,
एक जैसे, बिसात बिछाने की फ़िराक में, पढ़ गए अलगव्यवहारिक तकदीर,
जिस की लिखी रेखाओं में बीहड़ है, भूल में भुलइया, रंग कोहरा, धुंध दीवानीटीम टाम,
उसी दीवानगी को ढूँढना है, बांटने को गया सारा प्यार, और करने को नया सारा काम,
फिर थाम कर चलना है हाथ, साथ के साथ, ये जो कोहरा है साथी, छिपा मनराम. 
[ ता  अंजाम  ]