Jul 2, 2013

इस जनम में एक और दिन


गर दे जीगरा दे जो, नमक से खार ना खाए
खड़े को लड़खड़ाने के, दिनों की याद रह जाए

किनारे रास्तों के घोंसले, चढ़ पेड़ सोचे जा  
नई राहें उड़ानों की, जड़ी मिट्टी न मिटवाए

ठिकाना घर बदलने का, दाग दस्तूर है दुनिया 
जमा वो भी नहीं होता, जहां से भाग कर आए,

सफ़ों में दर्ज चुन्नट से, भरी सिलवट है पेशानी 
रफ़ू चक्कर से अब होते, पैरहन वक्त सिलवाए 

मुए मिर्चों के मिसरे ये, कटे किर्चों में जा बिखरे,
रोशनी जोड़ कर तोड़े, शक्ल दरपन को ना भाए

शिकायत आदतन होठों में आ, अखबार होती है
बहस करवट बदलती बात, झपकी रात सुस्ताए  

गुज़ारी ज़िंदगी भी बल, तुम्हारी बात जैसी है
भली काफ़ी लगे ये और, थोड़ी समझ ना पाए