Aug 15, 2008

एक दिन/ रात आज़ाद

रात के सफ़र कटें, आख़िर सफ़र बयान बने
तुम बनो, हम बनें, काश हिन्दोस्तान बने

सिर्फ़ इतना ही गुलामों ने आज़ादों से कहा
शायद इस साल, कुछ और नए इंसान बनें

किले कीलों से जड़े हैं, महफिलें मस्तूलों में,
यही कहना है, थोड़ी बेहतर सी पहचान बने

वो ही चेहरे हैं ज़र्द, थामे हुए हैं झंडों को
कहाँ उन्हें रंग मिलें, गर्द पे मुस्कान बने

बढ़त की बाढ़ बड़ी, आला दफ्तरों से आती हैं
थाना कचहरी की है, कि कैसे यहाँ ईमान बने

इतने सालों से यही सुन के, कब उकताएंगे
मेहरबां ऐसे हालात से,आप अब परेशान बनें

[.. आज़ादी की जितनी भी शुभकामनाएं हो सकती हैं ,उनके साथ उतनी ही चेतन संवेदनाएं भी ... ]

Aug 11, 2008

नज़रबट्टू

एक पिंजरा, एक बदरी, एक प्याली चाय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय।

खोज में जो भी मिले, या ना मिले, मिल जाय मन,
सब एक सा हो, या नहीं हो, हो तनिक दीवानापन,
मद हो, न हो मद-अंध, बन्दे एक ना हों, साथ हों ,
मादक बहस, विस्तार नभ, चुटकी हो बातों से चुभन।

चार खम्भे, सर्प-रस्सी, सूप के पर्याय,
तर्क हों पर ना मिटें मन, मर्म के अभिप्राय ।
प्रियवर जवाबों में लड़ें, सहयोग के अध्याय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय।

ढूंढ ढक चिट्ठी की मिट्टी, नेह की बारादरी,
नम नफ़ासत से नसीहत, स्वप्न से छितरी परी,
अक्ल के कुछ शोर, पल अलगाव खींची डोर पर,
पल तने बदलाव, पलकें रसभरी की टोकरी ।

इन विविध धनुषों के तीरे, इन्द्र भी शरमाय,
रूपकों को रूप की ही नज़र ना लग जाय ।
बोरियां भर मिर्च मिर्चें धौंक कर समझाय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय ।

...एक पिंजरा, एक बदरी, एक प्याली चाय,
बस हों कई नन्हीं सी बातें भेद में अतिकाय ।

[ऐसे ही]

Aug 1, 2008

कथाहारा

मर्म के सब पाँव बोझिल हो चुके हैं
टीस के तलवे तले फटती बिवाई,
रिस गई है रोज़मर्रा रोशनाई,
प्रीत के पद / राज़ अंतर्ध्यान हो कर खो चुके हैं।
योजना की भीड़ में सहमे सफ़े सबहाल,
बेसरपैर बातों के घुले दिन साल,
आदम-काल, बिखरी पीड़ के निर्वाण के पल धो चुके हैं।
चुक गई है, छद्म अन्तर से निरंतर में रुंधी बातों की गिनती,
ढूंढता है प्रश्नचिन्हों में बसी विश्राम धारा ।
कथाहारा....

कथाहारा....
हाँ वही पागल, घुमक्कड़ बचपनों की नीम को जो चाशनी में घोलता था।
अनदिखे खारिज किए उन्माद को, अवसाद को,
तिल-तिल दुखाने के नकाबों को सफ़ों में खोलता था ।
डोलता संकरे पथों में, घाट में, पगडंडियों में,
मोल भावों के बिना, जग जोर जागी मंडियों में,
समर के मैदान ले, सागर / नगर के तट तहों में,
चुन तराशे कथा-किस्से धार-धारा तोलता था ।
बोलता था, गोल मोलों में, कहाँ कैसे रंगीलों ने रंगा,
रंगबाज हाथों से कहाँ, कितनी सलीबों में टंगा,
टाँके लगा कैसे चला, जब लोचनों / आलोचकों ने तीर मारा ।
कथाहारा....

कथाहारा ..
कथन के मूक में मन ढूंढता रहता गया।
लंबे समय से काजलों को जोत से ले,
तर्पणों को स्रोत से ले,
किरमिचों की भीत में भरता गया
खाली गगन में छाँव तारे,
वृन्द में अटके किनारे,
खूंट से खींचे विकल व्याकुल सभी सारे,
सभी के अनकहों की व्यंजना के बाँध ले चलता गया ।
रिसता गया रिमझिम कमंडल, हो गया कृशकाय, स्वर पूछे
कहे ऐ मित्र तुमने क्यों पुकारा ?
कथाहारा ..

कथाहारा ..
कहाँ छूटा सफर में, धुन धुनों में धिन तिना ताना बजाने में ।
विषम बीता, विषय बीते,
विशद से काल क्रम जीते, बहाने में
तमन्नाएं उड़ीं, यूँ बाज बन, गाने बने रोदन छुपाने में
पुराने दिन, उन्हीं के अटपटे संवाद,
पुस्तक में दबे सिकुड़े पड़े प्रतिवाद
सूखे-फूल सुख में दुःख गए सन्दर्भ के अपवाद,
बचे कितने दिखेंगे दृश्य-छिलके, लौट आने में ।
मगर लौटे - जहाँ हिचके, कभी झिझके, कहीं कर्तव्य आड़े हैं,
सुलभ की वर्तनी दूषित मिली, सामर्थ्य के चंहु ओर बाड़े हैं,
कभी बेमन रहा, बेखुद कहीं, विन्यास का गारा ।
कथाहारा....

कथाहारा....
सिफ़र है यूँ कहाँ बांचे पुराने खोखले विश्वास ।
इस दम खांसते हैं बम,
फटे शोधों के घटनाक्रम
सफल हैं वन, विहंगम वर्जना के मुंहलगे कटु हास ।
घृणा के घोर से सिंचित
कटे आमों को जीमे जो महामंडित
खिंचे खानों में खंडित
है सियासत, सरफिरे हैं दीन दाता, रंग करे हैं धर्म से इतिहास।
है विगत मनु वेदना, ऐसे समय सम भाव की बातें लगे हैं बेतुकी, बेकार,
बेमतलब सरायें हैं बनी प्रतिशोध के आगार,
शायद है यही, अतिहास की कारा
कथाहारा....
थकाहारा....

आप सब के लिए :- दो महीने का समय अपने युग में खासा होता है - इतने अंतराल के बाद भी आप सब जो झाँक जाते हैं, पसंदों में शरीक करते हैं, उस प्रोत्साहन के बड़े माने हैं- पिछले दिनों जैसा कह रहा था उलझ के ज्वर जाल खासे थे - खैर ये सब तो जीने के रंग हैं - अभी प्रयास है नियमित होने का यदि नियति की नेमत रहे - सस्नेह - मनीष

Jul 25, 2008

जीवनसाथी

तुमको बस देखूं, तुम्हारी आँख में तारे पढूं
मुश्किलों के दिन, दियों की जोत के बारे पढूं

बन में परेशां परकटे, बादल उतर आएं जहाँ
बिजलियों के बीच बहकर, धीर के धारे पढूं

धूल उड़ बिछ जाएगी, थोड़ा सफ़र है गर्द का
ग़म समय में याद करके, याद के प्यारे पढूं

राहत मिले फ़ुर्सत करूं, फ़ुर्सत मिले राहत करूं
उलझ के ज्वर जाल टूटें, प्यार के पारे पढूं

क्या करूं क्या ना करूं, किस बात की तौबा करूं
सबसे बड़े गुलफ़ाम, तुमके नाम के नारे पढूं

इस बार से, उस पार से, हर जन्म से, अवतार से
मांग लूँ हर बार, सुख दुःख संग सब सारे पढूं

May 27, 2008

अटपटे कपाट

पिछले एक महीने के अवकाश के समय जोड़ जोड़ कर लिखी हुई - जब ख़ुद पढ़ा तो लगा कि ईंट / मट्टी वाले चूल्हे में मिटिया की हांडी में खिचड़ी सी पक रही है और आवाज़ आ रही ख़ुद-बुद -ख़ुद-बुद-बुद-बुद -ख़ुद-बुद....

....अभी फिर अनिश्चित कालीन अवकाश - थोड़ा काम आ गया है - जाने से पहले लम्बी कविता ....


उन दिनों.....
बड़े सबेरे अखबार बिकते थे लारीखाने में,
पैदल दौड़ते थे,
बसें पायदानों तक ठूंसी जाती थीं,
हड़बड़ी की घंटियाँ बजाते थे, रिक्शे, दूधवाले और साईकल सवार,
दिन शुरू होते थे दुनिया के जिनके चढ़ते-चढ़ते,
दोपहर तक बस अड्डे में ज़्यादा गाडियाँ नहीं रहती थी,
रहते थे इंतज़ार के मुसाफिर,
अगले कम-ज़ोर हौले-हल्के सफर के
भरम में, या शाम के आने में।
बड़े ग़म तब भी थे ज़माने में।
उन दिनों.....


उन दिनों....
सुफ़ैद के सलेटी पैमाने में,
गलियारों के इसी तरह आने और आ के जाने में,
सौ फीसदी झूठ नहीं मिला,
न मिला सच शत-प्रतिशत,
पहाड़ों में हिमनद टांगें तोड़ पिघलते रहे,
पठारों में जुगनुओं के झुरमुट सवाल सूरज से जलते रहे,
बड़ी रात के आवारा, चाँद को बिताते गए,
सितारों की भीड़ में जवां बरगद, नीड़ तक पगडंडियाँ बनाते, गुल खिलाते गए,
रेत से पतली नदी ने भी चाहा था कैसे पूछ जाना,
कि तुम्हें कोई क्यों "ऐसे" समझा ही नहीं?,
"जैसे" तुमने चाहा कह पाना,
कूट शब्दों में,
उबलते कछारों के मातहत,
दूर का इन्द्रधनुष तब भी सतरंगी था।

कौतूहल, कंपन और क्रोध के बीच समतल में केवड़ा, कनेर और बांस उगने लगे थे।

उन दिनों......
जब आम के बौर फूल कर गए थे बिखर,
महक ही महक में थी भरी दोपहर,
जो भी कुछ कहा जा रहा था, उस पल - उस पहर,
वो सब कहा जा चुका था,
बस पूरा सुना नहीं गया था,
बड़ी नदियाँ खुले आसमान/ मैदान और खट्टे करौंदे
बड़े, खुले और खट्टे होते थे,
हम नवजात कान थे और महफ़िल की सीलन पुरानी नहीं थी,
फल तोड़ने को नहीं निकले थे उस समय,
अपने चश्मों से बाहर,
घाम का लाज़िम इन्तज़ाम नहीं था ।

चौके को लीपने और नित्य के मंजन से फ़ुरसत भी मिलनी चाहिए थी

उन दिनों.......
क्या वही था -जो हुआ था,
या होने वाला था,
होना चाहिए था या हो कर भी नहीं हुआ,
अंगूठी से थान, काली टोपियों से झांकते सफ़ेद कान,
निकलते रहे गोगिया पाशा के गिली-गिली फरमान,
बंद चिरागों में ठूंस कर दिया वरदान, था अनछुआ,
गर्द की जो एक और पर्त थी एक और रोशनदान पर,
उसपर उचकती छोटी उँगलियों की छापें लगी थीं,
बाहर साहस और आस्था जुलूसों में डंटे थे,
आँगन में, मजनू की पसलियों पर जीरा नमक लगा कर,
इत्मीनान हो रहा था ,
मसौदे की तलाश का।

टूटते तारे को दूरबीन से देखने के कार्यक्रमों की रूपरेखा का समय था।

उन दिनों....
खुश के पैबंद और रगड़ के कमरबंद साजे,
ऐसे ही बड़के थे हुए ताज़गी के अकलबंद किस्से,
बुहार कर छाया को ताप के मनमाने, मनचले हिस्से,
कायदे, ताड़ के पेड़, शहतूत के दरख्त, अमरबेलें और शरीफ़े,
लतीफ़े बारी-बारी अपना-अपना महीन बुनते गए,
और चुनते गए ठहाकों की वृत्तियाँ, नाम के बंडल, धमाकों के वजीफ़े
सलेट पर इबारतें लिखी/ मिटाई/ काटपीटी/ बनाई जा रहीं थी,
नेपथ्य में अंगुलियों पर धागे बांधे जा रहे थे,
होने वाला बड़ा मजमा जमने लगा था,
श्रोता और सिपाही अपने अपने मोर्चों पर जाने लगे थे।

परदे उठाने की उम्मीद यूँ थी कि अवतार निकलेंगे जल्द ही इस द्वार से या उस द्वार से।

उन दिनों.....
पैदायशी हिचकियाँ आने लगीं थीं,
ठीक उस वक्त - जब तालियाँ हथेलियों से फिसल रहीं थीं,
मेले में एक बच्चे के खोने की घोषणा हो रही थी,
और मोम के जहाजों के आग का दरया पार की सफल यात्रा पर
जलसे के परचम तन चुके थे ,
इतना सब होने के बावजूद (या कारण?)
क्यों हम बड़े नामों को तब भी खंगाल कर टेर रहे थे?
कलफ करे कुर्तों पर इस्त्री का लोहा फेर रहे थे ,
जब हमें कोई संबल, पुचकार या दिलासा नहीं थे चाहिए,
हम गोदाम को शहर बना आए थे,
रगों की बूंदों को कलम की स्याही में मिला कर ।

ऐसा क्यों लगता था कि अगली पीढियों का आसमान उगा रहे थे हम गरम मेमने?

उन दिनों.....
एक निष्कपट उचाट के साथ रहते-रहते,
सपाट भरी ऊष्मा को भरोसा होता गया था कहते-कहते,
कभी कबीले रंग बदल कर फूलों की क्यारी होंगे
कभी साथ गाड़े सुर स्वलाप के आलापों पर भारी होंगे
और वैसी सारी कसमें टूट कर निकलेंगी गिरफ़्त की बहस से
"क्या करना है" बेहतर होगा "कौन कह रहा है" के सहज से
महज पद्मासन की बपौती पर ध्यान नहीं होंगे,
होंगे नींद से उठकर ठंडे पानी के स्नान, धुंध के अवसान नहीं होंगे,
क्या इसीलिए मल-मल कर धोते गए सादगी और इबादत?
जब अधपकी झपट और न्यायपालिका में हाजिरी लगाते थे,
अंगूठा ऊपर कर / एक बाहर, तीन अन्दर उंगली उठाते थे।

कुछ बड़े सन्दूकों के ताले अभी भी पूरे नहीं खुलते चूलों में फँसे, जंग के चलते।

उन दिनों....
उम्मीद की परिधियों पर चहचहे ,
कागजों के गुड़मुड़ाऐ गोले, सबूत थे गवाह रहे,
उथली ही सही, किसी को, कहीं से, कुछ तो, परवाह कहे,
रेल की पटरियों सा, साथ साथ चलने से,
क्या बेहतर है उन का, एक साथ मिलने से?
मैं क्यों नहीं समझ पाता तुम्हें पूरा? यह समझ पाने की अधूरी कला,
मैं निमित्त था या था देश, काल, प्रबल के प्रवाह में छिना छला?
इन सारे सवालों के महकमे, इफ़रात के दिन रात उकसाएंगे,
धुएँ दुमछ्ल्लों में उछलेंगे, और प्रदूषण में खो जायेंगे,
अगली आबादी में कवायद लगाएंगे, आरामकुर्सी पर थके पैर,
फूटेंगे प्रारम्भ भी संयम की परिणिति में बन कच्चे आम और मीठे बेर,
कहीं न कहीं नए बाँकुरे फिर ज़रूर फूल जाएंगे।

तब भी सीटियाँ गुहार मारेंगी इस मंच को, जब पटकथा में बहुरूपिये सूत्रधार ही रह जाएँगे

..... इन दिनों .....
सच और अपच के दरमियाने में
आलस, आस्था, अचरज और आक्रोश के चूमने चबाने में
नए सुख/नए ग़म और पुराने आनंद के युगल गीत गाने में
समय समाप्त है इस समय, इस कविता को पढने पढ़ाने का,
शायद नहीं, नहीं शायद, इस कविता के उखड़ने उखड़ जाने का ?

..... उन दिनों..... ?
..... इन दिनों .....?

May 18, 2008

चुप : गरमी के मौसम में

खिड़की खुली रक्खें, हवा से चोर झोंके आएंगे,
पीठ पल्लों पर धरेंगे, मौन को बहलाएंगे ।

जालियों से जूझ कर के,
राहतों को मूँद कर के,
उलझनों के वाक्य आधे,
बाबतों की बूँद भर के,

ओंठ पर अठखेलियाँ कर, शब्द पढ़ कर गाएंगे,
गीत छंदों से खुलेंगे, मुक्त हो उड़ जाएंगे।

इस गगन से मगन बनकर,
कह विरह सह भग्न अन्तर,
वेश भूषा आगतों की ,
स्वागतों भर मर्म मंतर,

आप हम फिर कब मिलेंगे? कब कहाँ गुम जाएंगे?
भीड़ है भरकम, कदम कम, रास्ते पुँछ जाएंगे ।

राह जब उत्साह धरती,
व्यंजना मन मान अड़ती,
ताड़ती कथ कण अबोले ,
ना लिखा अभिप्राय पढ़ती,

अनकही गूंजें बिलख कर, शोर मन भर लाएंगे ,
मौन से कोलाहलों में, साथ चल कर जाएंगे ।

चुप लिखा था भेद सारा,
चुप छुपा मैला किनारा ,
चुप गिरे मनके छनन से,
चुप मिला दरिया बेधारा ,

बक- बोल- बतिया कर ई साथी, बहक में मद पाएंगे ,
देर हो अंधेर हो, सौं नित कदम मिल जाएंगे,

खिड़की खुली रक्खें ....

खिड़की खुली रक्खें, बहुत से और मौके आएंगे,
इस तरह बातें करेंगे, उस तरह हड़काएंगे,
कब मिलेंगे ना पता, पर बाट जोहे जाएंगे,
जब मिलें इस साथ पर, कुछ कहकहे ले भाएंगे,
ताक धर देंगे सुराही, डूब कर मन लाएंगे,
अपनी तरल शामों में गिन गिन तल्खियां सहलाएंगे।

खिड़की खुली रक्खें ....

दिवस जात नहिं लागहिं बारा - देखिये एक महीना उड़ गया - पिछले एक महीने में दो हफ्ते काम, काम का आराम, आराम का काम, और काम, और काम, बाकी समय राम राम दुआ सलाम । ऊपर से किरकिट की खिट खिट - अभी गाडी पूरी लाईन पर नहीं है - अगले हफ्ते तक संभावना है - ढंग का माफ़ीनामा लिखने का भी समय नहीं - समझिए ...ऊपर से आज दिल्ली पुन हार गई - अगर कविता सही न लगे तो दोष दिल्ली का.....[ :-)] -स्नेह और धैर्य पर ही यह पुराने ज़माने का ब्लॉग कायम है - साभार - मनीष

Apr 18, 2008

साधारण का साधारण गीत

फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
योजन भर के अरमानों में, संक्षिप्त रूप से बह जाना।

ज्यों द्वेष नहीं कर पाते हो,
उपदेश सहज कर लाते हो।
चित तेज धार पर जाते हो,
पट मंथर- मंथर आते हो ।

ऐसे करतब दिखलाने में,
नट, खट से झट कर जाने में,
सब सही नहीं करना साथी ,
कुछ भूल चूक छापे लाना ।

फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
लेनी देनी की भूल चाल, गुन सब के बहलाते जाना ।

है समय आज का विषम विकट,
रफ़्तार बाँटती डांट डपट।
चेहरे आश्वासन लपट लिपट,
अंदाज़ नहीं क्या कलुष कपट ।

तुम कारीगर के हाथों को ,
औ छिन्न-भिन्न मधु खातों को ,
सहला बस देना एक बार,
मरहम की पुड़िया धर जाना ।

फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
मातम को हुश हड़का देना, खुश बंद द्वार को दे आना

जो बड़े रहें बढ़ते जाएँ,
जो खड़े रहें चढ़ते जाएँ।
जो अड़े रहें भिड़ते जाएँ,
जो पड़े रहें, सहते जाएँ।

ऐसा रहता ही होता है,
बादल को पानी बोता है,
तुम झूम-धूम को सरस-बरस,
थोड़ा सा पानी दे जाना ।

फुटकर-चिल्लर के बाजीगर, गाजा-बाजा गाते आना।
पुन लाज सजा कर मौसम की, फक्कड़ झंडे भी से आना ।

Apr 8, 2008

उदारीकरण : उपसंहार

बाज़ार के बीचों बीच भरापूरा धंसता हुआ,
बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
पीछे मुड़ कर देखता है / आगे चलता है,
पोले खम्भे से भट भिड़ता है,
पीछे देखता ही क्यों है?
लम्बी दौड़ का कछुआ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ
पीछे देखता है शायद,
बाज़ार के मुहाने से पीछे का अरण्य,
जिसमें अभी भी हिरन, खरगोश, गिलहरियाँ हैं शायद,
शेर, छछूंदर और कनखजूरे, इल्लियाँ और तितलियाँ शायद,
बेताल, बनदेवता और बनमानुसों के अलावा,
कितने और सारे खोये शायद,
उल्टे पैर, तोतले स्वर, पीपल के गाछ,
भय से अचरज से अपवाद बनते हुए,
पत्तियों के साथ-साथ खाद बनते हुए,
और देखता है शायद/ उठता,
उपलों में सीझा धुआं ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
कंधे झाड़ता है,
सम्हलता है,
अपनी झेंप में विश्वास,
और कनखियों में साख,
(और आदमीयत?) की पुष्टि मलता है,
और चलना शुरू करता है/ फिर आगे चलता है,
खुले अखबारों चीखते चैनलों को चीरते संसार का जायज़ा लेने में व्यस्त,
अस्त और उदय की जुगलबंदी में लगातार त्रस्त,
अविश्वास की मौज में छंटा विद्रोही,
डिग्रियों, साक्षात्कारों, असल-नसल और जनमपत्रियों का बटोही,
लपक कर लपकता है,
कुछ अपने हिस्से की दुआ ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
आगे सा ही बढ़ता है,
तमाम जगती, जगमगाती, रोशनियों,
रेहड़ी, दुकानों, और उनके निशान- परेशानियों को पूछता,
ताकते, टोकते विज्ञापनों में पुरस्कार ढूँढता,
निशेधाज्ञाओं और षड्यंत्रों की जद्दोजहद में,
कमनज़र समेटता है, कम्बल, गद्दे, रजाईयां,
और जैसी भी गरमी की बिखरी परछाईयां,
रात में अलाव की लकडियों के लिए,
जंगल में और नहीं लौटना चाहता,
लील न ले कहीं,
कोई पुराना ठंडा कुआं ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
आड़ी, टेढ़ी, जलेबी लकीरों में खींचता है,
नियति, सम्बन्ध और बाज़ार की संभावनाओं के बीच,
सफ़ेद, बुर्राक़ और प्रकाश का अन्तर,
खनखनाते नसीब और खखारती आत्मा के पशोपेश में,
जो नहीं देखना है उसे परदे के पीछे,
या मुठ्ठी के भींचे अन्दर,
या रोशनी की पीठ के गुच्छे तारों में,
या हाशिये और प्रवाह के एकसाथ समानांतर,
खेलता है,
चाव से लतों में फेंट कर,
साँप, सीढ़ी और जुआ ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
धीरे-धीरे छोड़ता है, असबाब, माल-टाल,
फरुआ, हल, तसला, असलहा, चैन, गैंती, रेगमाल,
फिर भी
जुतने और जोतने के दोधारी अस्तित्व में अभी तक वर्तमान,
एक गंडा भर बांधे है श्रीयुक्त श्रीमान,
कुछ स्वस्थ कुछ थकेहाल,
ताबीज़ भरे है हंस के पंख, लोमड़, गैंडे और बाघ के बाल,
हाल चाल/ में सधे चेहरे जानता चिन्हाता है,
गउओं, कउओं, गिद्धों, गिरगिटों में बतंगड़ बनाता है,
(और कान के पीछे काला टीका अब नहीं लगवाता है)
तीन सौ दो, चार सौ बीस को गिनती नहीं मानता,
खिड़कियों पर सलाखें, जंगले, मोटी जालियां लगवाता, ठोंकता,
सजाता है द्वार पर,
संटी वाला पहरुआ।

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
पता नहीं, मौका तलाश रहा है,
पता नहीं ज़िंदा है या अवकाश रहा है,
पता नहीं कर्तव्य के निर्वाह में है,
या बेचैन आरामगाह में है,
यह भी पता नहीं कभी,
उसकी आंखों के कोनों से टहल गया अतिरेक
विदा का था या मुक्ति का,
प्रश्न भूले बिसरे हुलसता है, कभी एक,
अभी भी समझ में नहीं आता है,
उन्माद का सृजन,
पुरवा था या पछुआ?

बाज़ार में -और अन्दर घुसता हुआ,
भूल से भूल लिखता हुआ,
वो तो जा चुका, निकल गया,
क्या था? कहाँ, किसका हुआ?

Apr 4, 2008

आशा का गीत : आशा के लिए


बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
वह संग चलते मरमरी अहसास के दिन

जो अंत से होते नहीं भी ख़त्म होकर
सच ठीक वैसे मृदुल के परिहास के दिन

हल्के कदम की धूप के, टुकड़े रहें जी
सरगर्म शामों के धुएँ, जकड़े रहें जी
राजा रहें साथी मेरे, जो हैं जिधर भी
बाजों को अपनी भीड़ में, पकड़े रहें जी

हों मनचले नटखट, थोड़े बदमाश के दिन
बस ना धुलें, अच्छे समय के वास के दिन

दूब हरियाली मिले, चाहे तो कम हो
रोज़े खुशी में हों, खुशी बेबाक श्रम हो
राहें कठिन भी हों, कभी कंधे ना ढुलकें
पावों में पीरें गुम, तीर नक्शे कदम हो

मैदान में उस रोज़ के शाबाश के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन

कारण ना बोलें, मुस्कुरा कंधे हिला कर
झटक कर केशों को, गालों से मिला कर
पानी में मदिरा सा अनूठा भास दे दें
हल्के गुलाबी रंग से भी ज़लज़ला कर

कुछ अनकही, भरपूर तर-पर प्यास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन

दीगर चलें, चलते रहें राहे सुख़न में
प्यारे रहें, जैसे जहाँ में, जिस वतन में
जो आमने ना सामने हों, साथ में हों
क्लेश के अवशेष बस हों तृप्त मन में

मिलते रहें, चम-चमकते विश्वास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन

Mar 29, 2008

हलफ़नामे पर विवाद होना ही है

इस बात पर भौहें तनी, पलकें उठीं, और पुतलियों के नृत्य हैं।
कह्कशाँओं में अधिकतर, लोभ के ही भृत्य हैं।

अतिशय अभी अति-क्षय नहीं,
अनुराग है रंग-राग से,
हाँ चाहतों से भय हटा,
है प्रीति प्रस्तुत भाग से।
स्वागत शरण दे सर्वदा, संतुष्टि रहती अलहदा,
परमार्थ के वाणिज्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

सूख जाएँ स्वेद कण,
जीवन मरण दलते रहें,
अधिकार से हुंकार भर,
जयकार जन चलते रहें।
सादर शिखर की भोगना में, गौमुखी परियोजना में,
बघनखे औचित्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

गूँज है मेरी सुनो,
मेरी सुनो, मेरी सुनो,
मेरे कथन, पत्थर वचन,
उबटन से मेरी तुम बनो।
मेरे सुखद में झोंक श्रम, तुम अर्चना कर लो प्रथम,
दैदीप्य हम आदित्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

लोभ- धन, सम्मान का,
सर्वोच्च उत्तम ज्ञान का,
हाँ मूल से, अवशेष से,
या पुष्टि का, स्थान का।
जिस भी कलम से मान लें, जितने मुकद्दर छान लें,
कुछ स्वार्थ हिय के कृत्य हैं,
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

जोड़कर जीवन में भ्रम,
जीते हैं साझे रीति क्रम,
तब तक रहें आसक्त जन,
जब तक रहेंगे तन में दम।
आहुति के मन घृत्य हैं, मानव-जनम के नित्य हैं,
अस्तित्व के साहित्य हैं
...और पुतलियों के नृत्य हैं?

... हाँ पुतलियों के नृत्य हैं..
...और लोभ के ही भृत्य हैं।

Mar 26, 2008

सवेरे का सपना : स्वप्न का प्रलाप : तनाव के दिन

बहुत -बहुत दिनों से सपना सवेरे की नींद तोड़ता है,- सार में बराबर सा, - रूप हो सकता है थोड़ा बहुत ऊपर नीचे हो - हो सकता है बाहर निकले तो कुछ कम हो, पर होगा नहीं - उसमें समय अभी है - फ़िलहाल है कविता जैसा कुछ -अगले और पिछले अंतरालों का तर्जुमा -

यह नहीं होता-तो क्या होता?
कहाँ होता ? किधर होता?
किरण के फूटने से एक पल पहले,
अंधेरे में खडा कुछ देखता,
बस एक पल, जिसमें, विवादों के/ विषादों के पलायन का,
निपटता माजरा होता।
मगर कैसे ?

यूँ नहीं होता, अलग होता, अजब होता,
सजावट में, लिखावट में, करम में, आज़्माइश में,
अजायब सा धुआं होता,
बहिश्तों में..,
काश कोई फ़रिश्तों में,
मेरे नज़दीक आ कर बैठता,
और गुफ़्तगू, वरदान, वादा छोड़, अपने हाथ का ठंडा,
मेरे घनघोर अन्तिम की अनल के दरमियाँ रखता।
अमर जल बांटता।

आधी नींद चलती,
और डर ढूँढता, घर ढूँढता,
मुझसे अलग, मेरी नकल से दूर.
कितनी दूर ?
जितने लोक से अवतार,
मंथन की भरी नीहारिका के पार,
जा डर बैठता,
उस दूर मोढ़े पर।
अकेला।

खरे संताप की सीढ़ी,
चले सपने के चलने में,
कोई तहाता,
ठेल देता उस दुछ्त्ती में,
जहाँ पर कूदने के बाद भी मैं,
जा नहीं पाता,
निविड़ में भागता,
और भागता जाता,
छोर, बस एक अंगुल दूर,
केवल एक अंगुल दूर,
रह कर छूटता जाता।
पसीना फैलता।

और फिर वैसा नहीं होता,
शिथिल, बर्रौं सा मंडराता,
घूमता, घूम कर आता,
रुके सन्दर्भ को धुन बांटता,
फिर जागने का डंक दे जाता,
नहीं सपना, वही फूटी किरण,
है आँख में चुभती,
चीरती रक्त का आलस,
जीतती-हार, की हस्ती।
मिथक गाता।

तनावों में, उबासी से तनी जम्हाईयों को ले भरे,
एक और दिन आता।

Mar 21, 2008

होलिफ़ लैला

देखिये, होली में जो देस में हैं सब हल्के हो रहे हैं, आप सब को शुभ कामनाएं, हम तो अरब देश में पड़े हैं, और होली में काम पर जा रहे हैं, आप कुछ गुझिया हमारे लोगों के नाम की भी खा लीजियेगा और ... [ बाकी आप सब विद्वान् हैं ]

तो जो होली में हमारे जैसे काम पर जा रहे हैं उनका एक होली गीत -

राजा ने रानी की, सुननी सुनानी है
जोतों को रातों को, कहनी कहानी है

जब भोर हो, ताज़ा-ताज़ा तमाशे हों
कुछ कर जुटे, कहके जोशे जवानी है

जितनी उम्मीदों से, सपने बनाये हैं
उतनी बनाने में, मेहनत लगानी है

बातें बनाने से, मौसम बदलते हैं?
मौसम बदलने की, बातें बनानी हैं

अब ये मोहर्रम के, दिन तो नहीं हैं
रंग के इरादों को, होली मनानी है


पुनश्च :

बूटी ने बम-बम की,तबियत को खोला है
जिन्नों को बोतल में, वापस घुसानी है [ :-)]

Mar 15, 2008

नहीं लिखने के बहाने - ५

सिर्फ़ कोशिश है बस, हर कोशिश में लटक जाती है
एक टक देखने जाता हूँ, मेरी आँख झपक जाती है

और निगाहें भी ग़लत से, किसी दम मिल जो गईं
आईने बन के तो आते है, मुई शक्ल चटख जाती है

फिर अगर चेहरे ही दिखे, उन सब मुखौटों से अलग
पहले पानी में बहे जाते हैं, और लाज भटक जाती है

मेरे पानी के ग़म जुदा है मेरे पानी के गुज़र से
रूह आतिश पे ठहरती है, एक घूँट हलक जाती है

क्या हैं वसीयत के वहम, या के विलायत के करम
ये समझ बूझ के पाने में, चढ़ी नज़्म अटक जाती है

Mar 4, 2008

हाशिये पर अल्प विराम

लगता नही कभी बनाएगी,
कविता मुझे तो, बेफ़िकर, बेखौफ़, सीधा, सच्चा और होशियार ।

कुछ नहीं करती सिर्फ़ कविता,
न लाड़, न प्यार, न ईर्ष्या, भेद न दुत्कार
जैसे कुछ नहीं कर पाते,
अकेले के अरण्य में दहाड़ते मतिभ्रम,
डर के प्रतिहार,
डाकिये के बस्ते में, खुंसे बैरंग चिट्ठे,
पानी पी कर फैलते, क्रोध के विस्तार,
वहां तक - पहुँच ही नहीं पाते -
जहाँ के लिए चले थे?

कोशिश, सिर्फ़ प्रयास, ले लिपटाते हैं,
तुक पर कौतुक के पैबंद,
मोरपंख हैं दिखते, पर हड्डी हैं छंद
मेरुदंड, कतरे-कातर / पकड़े-
आदम-हव्वा, हूर-लंगूर रक्त, समता और सिन्दूर
और वैसे सारे जुमले,
जो एक-दो, दिन-रात मिले, मिल-जुले/ जैसे -
उबले-अंडे, चीनिया-बादाम, चना-जोर लपेटे अखबार,
छंद देखते ही रहते हैं- संयम, विवेक और सदाचार
जिनको दिव्य पैतृक उच्चारण ही, ले उड़ते हैं साधिकार,
एक समय, एक और समय, वही समय हर बार ?

बगैर चमत्कार किये जीते हैं गाभिन छंद-
हवा, मिट्टी, खुले, धुएँ और धूल के बीचों-बीच,
जैसे शर्म, दर्प, अर्पण, हिचक, अस्पष्ट, चाहत,
विराग, संदेह और सम्मान -
वितानों में आते हैं, और आते-जाते हैं लगातार
जिनको भूलते भी जाते हैं, प्रार्थी, पदाभिलाषी, महामानव-
आते अपनी तुर्रम- टोपी, मकान, ताज, सामान दिखाते, बताते हैं-
चलो अपनी दूकान बढाओ, कहीं और ज़मीन ले जाओ यार,
चलो पीढियों के यायावर, विस्थापन के रक्तबीज,
पैरों के तलवों की आग भगाते,
भाईचारों की भीड़, और इसके चुप आतंक के परम पार ?

गुरुओं के पीछे लगे आते हैं धवल चेले,
मान-अभिमान, कलमा-कलाम, ठेलम-ठेले,
लूट और लूट के कमाल के हिस्सेदार,
मद, पैसा, पैदाइश, पीं-पीं, पों-पों, इस्टाम्प, हस्ताक्षर
कतर-ब्योंत के मतलब तराशते, उचकते-उचकाते/ सहचर
ज़ुबानदराज़ कैंचियाँ, चाकू, कई हथियार
कागज़ के सादे, खड़े ही टुकड़े पर/ धार-दार,
दो-पाँव, एक आवाज़, हो पाने के पहले
एक के बाद एक, पुन अनेक/ वार
जैसे बाँट जाने की वसीयत,
लेकर जनमता है, हर एक परिवार ?

कुछ नहीं करती, सिर्फ़ कविता,
लौट आती है, वापस गोल घूम, दशाब्द, गोलार्ध, घर-संसार
कठौतियों में बिस्तरबंद मस्बूक़ सवाल, जिरह, खोज समाचार,
लइया, सत्तू, आलू-प्याज, रोटी-पराठे, पुराने गाने,
चार-दोस्त, चतुरंग, तरल तार
ब्रह्माण्ड से अणु-खंड तक लगता ही नहीं,
बदलता/ बदल पाता है/ बदल पाएगा, आदिम शोधों का खंडित व्यवहार
मानिए नग़्मानिगार, जनाब सुखनवर, कविराज, लेखक पाठक, पत्रकार
लगता नही कभी बनाएगी,
कविता मुझे तो, बेफ़िकर, बेखौफ़, सीधा, सच्चा और होशियार
बस यही अंत है, यही है शुरू, यही बात बार-बार, हर बार

[आप क्या कहते हैं? ]

Feb 27, 2008

समझौता [ पसिंजर ?]

[ देखें - कौन पुल सा थरथराता है ?]

क्रांतिपथ के थे पथिक, जो श्रृंखलाओं में जड़े हैं
अब कहाँ जाएँ सनम, मजबूरियों के स्वर चढ़े हैं

युगों जैसे साल बीते,
भंवर से जंजाल जीते,
अव्वलों की प्रीत बोते,
परीक्षा के पात्र रीते,

भर गए जब सब्र प्याले, बुत मशीनों में गढ़े हैं
और हैं विद्रूप के प्रतिरूप, कल भर कर लड़े हैं

उजला दमकता वर्ग है,
साधन में सुख उपसर्ग है,
इतना सरल रुकना नहीं,
बस दो कदम पर स्वर्ग है,

कैसे तजें संभावना, संन्यास में तो दिन बड़े हैं
भोज भाषण बाजियाँ, सरगर्मियों के घर खड़े हैं

क्यों रुकें? क्या इसलिए,
संवेदना ना मार डाले,
काश राखों के ह्रदय में,
दिल जलें तो हों उजाले,

ऐसा नहीं होगा, तिमिर ने जेब में जेवर पढ़े हैं
स्वप्न भ्रंशों में मिले हैं, पात पर पत्थर पड़े हैं

क्रांतिपथ के थे पथिक.......

[अब न रोएँ - उदास भी न होएं - क्या होएं ?]

स्पष्टीकरण -
(१ ) यहाँ "कल" से आशय आज और कल वाले कल से नहीं बल्कि कल-पुर्जे वाले चलते पुर्जे "कल" से है ;
(२ ) इसका मुखड़ा पचीस -तीस साल पुराना घर घुस्सू पड़ा रहा है [ शायद चाणक्य सेन की मुख्य मंत्री या मन्नू भंडारी की महाभोज के बाद का] - कविता कल शाम- रात में खुली -
(३ ) सबेरे पांडे जी ने दो अचंभित करने वाली कविताएँ पढ़ाईं - (http://kabaadkhaana।blogspot.com/2008/02/blog-post_26.html; http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/02/blog-post_1798.html) पहली पर प्रतिक्रिया - इसी का hangover रहा होगा
(४ ) इसका किसी भी आज-कल की बहस से रत्ती भर ताल्लुक नहीं है - अगर लगता भी हो तो समझें मरीचिका है
(५) इस बार खीज जैसी नहीं लगती, स्वभाव से ज्यादा संयत है
(६ ) बुढौती की कठौती से निकाला मीटर है (http://kataksh.blogspot.com/2008/02/blog-post_25.html) ये कहीं की भी सूंघ हो सकती है - (दिल्ली, भोपाल, पटना लखनऊ, जयपुर, बंगलुरू.... - बम्बई छोड़ कर - उसका पता नहीं - बम्बई में इतना समय है कि नहीं अंतर्देशी / लिफ़ाफ़ा लिख के पता करना है) ;
(७) इतने अधिक स्पष्टीकरण हो गए - पक्का बुढौती की कठौती है

Feb 23, 2008

किताब हिसाब

[याने अफसाना नंबर दो ; उर्फ़ जहाज का पंछी; उर्फ़ घुमक्कड़नामा - एक]

क्या किया? क्या ना किया?, किस भीड़ से कथनी निकाली
क्यों थमे? कब चल पड़े? बहते बसर, सैलाब से अटकल मिलाली
कुछ इस तरह बस्तों ने शब्दों से वफ़ा ली

इतने इलाके घूम-चक्कर
बैठ घर दम फूलता
प्रतिरोध का ऊबा लड़कपन
पोस्टरों सा झूलता

हाँ दबदबा दब सा गया
जब लीक में बूड़े महल
पर शोर डूबे हैं नहीं
तैयार हैं, जब हो पहल

बेढब सफ़ों में मिर्च डाली, हो सका जितना नयी कोशिश निकाली
इंतजारों में खलल की फिक्र फेंकी, चुहल में कदमों से दो मंजिल जुड़ाली
हाँ इस तरह ......

यारों की भी, थी सूरतें,
ईमारतें रहमो करम
पर भागते कांटे रहे
भरते भरे बोरों शरम

कुछ भरम छूटे हाथ रूठे
किस्मतें घुलती रहीं
आवारगी आंखों की जानिब
उम्र संग ढलती रहीं

जिस आँख से चकमक मिले, उनकी पकड़ धक्-धक् सम्हाली,
कुछ मौन से, कुछ फोन से, बतझड़ भरे, रहबर मिली होली-दिवाली
हाँ इस तरह ......

सब खोह में मौसम न थे ,
कुछ काम भटके जाप थे
ताने सुने बाने बुने
हिस्सों में बंट कुछ शाप थे

कुछ रंग कुछ जोबन करा
कुछ झाड़ डैने छुप धरा
छौंके हुए अफ़सोस ने
कायम सा कुछ रोगन भरा

हिम्मत भी जैसी जस मिली, वो हौसलों में नींव डाली
ताली-दे-ताली पैर पटके, ढोल पीटे, हिनहिना सीटी बजा ली
हाँ इस तरह ......

Feb 17, 2008

कोट-पीस दफ्तरी


[ उर्फ़ नौकरी की छनी खीज - - दोस्तों के शब्दों में - नग़्मा- ए- ग़म-ए-रोज़गार ]

कमख़्वाब नींद, कमनज़र ख़्वाब, डर मुंह्जबानी
ऊबे निश्वास, भटके विश्वास, उफ़ किस्से-कहानी

सुबह होड़-दौड़, शाम आग-भाग, कौतुकी खट राग,
मृगया मशक्कत, दीवानी कसरत, धौंस पहलवानी

कूद-कूद ढाई घर, बैठ सवा तीन, बिसात रंगीन
मग़ज़ घोर शोर, रीढ़ कमज़ोर, गुज़र-नौजवानी

फा़ईल खींच-खांच, नोटशीट तान, फ़र्शी गुन गान
रग-रग पे खून, खालिस नून-चून, रंग साफ़-पानी

नमश्कार-पुरश्कार, आदाब-अस्सलाम, सादर-परनाम
ठस आलमपनाह, हुकुम बादशाह, चिड़ी की रानी

Jan 27, 2008

रोटी बनाम डबल रोटी ?

थोड़ी मोहब्बत सभी पर उतरने दें
थोड़े करम चाहतों पर भी करने दें

सितारों की महफ़िल रहे आसमानी
ख़ुदा बंद जड़ को, ज़मीं से गुज़रने दें

बूंदों के रिसने को रोकें नहीं बस
सागर रहें, अंजुरी भर दो भरने दे

जब छूट पाएं वो फ़ाज़िल सवालों से
बैठक से बाहर, नज़र चार धरने दें

नर में नारायण, क्या ढूंढें मरासिम
का़फ़िर सनम, बुत-परस्ती तो हरने दें



खुलासा :
माना कि हमारे "बच्चे" कहीं पसंद कहीं नापसंद हैं
दोस्तों ने बात जो कही, हम ख़ुद भी रजामंद हैं
पर रेशम कहाँ से लाएं? कि हम कातते कपास हैं
अपने समय, जेबों, जिगर में यही छुट्टे छंद हैं

स्वागत एक बार फिर [:-)]


Jan 26, 2008

शब्द बौने

शब्द बौने
पायलों में रुन्झुने
ईख के गंडे चुने
हैं बड़े नटखट, सलोने
शब्द बौने

शब्द बौने
ले उडे तारे, चमाचम
चाँद, मारे आँख हरदम,
साज ताजों के बिछौने
शब्द बौने

शब्द बौने
कौंधते बिल्लौर घन
जोडें जुगत जादू जतन
पकड़ते कुर्तों के कोने
शब्द बौने

शब्द बौने
खेलते खिलते लड़कते
कात बातों को जकड़ते
क्यों लगे इस ख्वाब रोने
शब्द बौने

शब्द बौने
एक दिन साधन बनेंगे
आसमां आँगन बनेंगे
पर अभी छोटे हैं छौने
शब्द बौने

शब्द बौने
बाज क्यों ताने निगाहें
आस्था आगे की राहें
प्रार्थना ना जाए सोने
शब्द बौने

Jan 18, 2008

घुमक्कड़नामा -शून्य

टहलते,टहलते, गमक गुनगुनाते, रास्ते चमकते, चमक रूठ जाते
लरजते बरजते, खयालों में आते, रातों में छपते, छपक टूट जाते

बहानों से किस्से, गुमानों के मंज़र
तरीके बदलते रहे ख़ास अवसर
सलीके सुलझते अगर चैन पाते
वहीं आ गए इस सहर, घूमफिरकर

रिझाते ज़हन को कहीं थाम छाते, जहाँ बारिशों के से परिणाम आते,
अगरचे-मगरचे पहर भूल जाते, कमर कस के साथों में गोता लगाते

कहीं झाड़ झंखाड़ रखते बसाते,
वहाँ बाग़ बागों कनातें बिछाते
खटोले जगा कर, किताबें सजा कर
अकस्मात चलने के वाहन बनाते

करीने से बक्से में कपडे तहाते, ताले की चाभी गले में झुलाते
हथेली उठा कर, हवा में घुमाकर, अकल से सफर के बहाने बजाते

कम-सख्त मौसम, कहाँ रोक पाए
चलते चले बात बोले बुलाये
जहाँ भी रुके, वक्त छोटे हुए
वहां कुछ नए और सम्बन्ध आए

बगल के मकानों की घंटी बजाते, मुसकते नमस्कार कहते कहाते
तलब रोज़ रफ़्तार फ़िर ताक धरते, थिरकते थकाते शराफत उठाते

धड़कते कंगूरों में जगते धतूरे
काहिल, कलंदर, जाहिल, जमूरे
बड़े नाम कामों के स्वेटर बनाते
पड़े ख़त किताबत रहे सब अधूरे

किसी नाम अपनी पिनक दिल लगाते, कहीं बोतलों में खटक बैठ जाते
सरी शाम रोशन मजारों से तपकर, उमस दिल्लगी की पसीने बहाते


उपसंहार : (१) इस पोस्ट का जन्म मनीष के ब्लॉग ( http://ek-shaam-mere-naam।blogspot.com/2008/01/blog-post_15.html) में टिपियाने के दौरान हुआ (२) बहुत मन था कि " जेबों में चिल्लर खनकते बजाते,..." प्रयोग करूं लेकिन वो यूनुस का कॉपी-राईट है इसलिए फिर कभी (३) पिछली पोस्ट की हौसलाअफजाई सर आंखों पर

Jan 15, 2008

एक कविता लिखने की कविता

चल-चल, निशा की सोच में, मानव जगाले, चल
आ चल, कलम की नोक से, कागज़ जलाले, चल

दीखे दाख हैं दिन भर
खड़े गल्पों के रेती घर
तमन्ना की रसीदें तम
नयन भर मील के पत्थर

पलक भर भूल दुःख जीवन
अरे लिख रागिनी अनमन
कोई बस पढ़ जुड़ा लेगा
तेरे इस मन से अपनापन

द्वार दर खोल दे, खुल-खुल के हंसले, मुस्कुराले, चल
आ चल ... ......

दिन-कर के थके हारे
बसों ट्रेनों से भर पारे
भरे झोले में सच बावन
सम्हारे घर सुपन सारे

बैठ कर साँस भर सुस्ता
अभी काबिल बहुत रस्ता
पोंछ दे भ्रम की पेशानी
सहज जंजीर भर बस्ता

ठहर तब-तक, तनिक शब्दों से अपने, बदल पाले, चल
आ चल ... ......

सरल मसिगंध हो कर बढ़
अगम सम्बन्ध की नव जड़
उमड़ गढ़ स्वप्न में घन-बन
रचा अल्फाज़ से अंधड़

लिखे धारों में, नावों में
सुप्त बदरंग भावों में
बिछे फाजिल किनारों से
उन्हीं उन सब बहावों में

डुबा दिल, दम लगा, दम ख़म बढ़ा, मन आजमा ले, चल
आ चल ... ......

Jan 6, 2008

राम राज्य (१९४६ में लिखी एक कविता )

६ जनवरी २००२, ६ वर्ष पहले, बब्बा (पिता, श्री जगदीश जोशी ) ने अपना यहाँ का सफर समाप्त किया था । एक भरपूर तेज, उत्साह, उमंग, संवेदना, संघर्ष, आवाज़, यायावरी और वैसे ही सारे संवादों को जीने के बाद । संताप से नही वरन उनकी पूरी लगन से जी हुई ज़िंदगी और जिजीविषा के मान, बतौर अनुष्ठान, आज उनकी पुरानी कविता यहाँ लगा रहा हूँ । इसलिए कि एक तो आपको उनसे मिलाने का इससे अच्छा बहाना न मिलेगा और दूसरे कविता चाहें है पुरानी - संदर्भ से साझी है । १९४६ में उनकी उमर बीस को छूती सी होगी । २००८ में मैं बयालीस का हूँ, कसम खाके कह सकता हूँ कि इस तरह के भाव या शब्द विन्यास पकड़ पाऊँ तो भाग्य मानूं । इस ब्लौग का "बकौल" नाम बाविरासत है ( इस नाम से वे देशबंधु और आज में लिखते थे ) । बब्बा बहुआयामी शख्सियत थे । हम बच्चों ने, बच्चों के नज़रिये से देखा । सार्वजनिक व्यक्तित्व होने के हम से ज्यादा जानने वालों की कमी न थी ( अगर कविता अच्छी लगे तो साईड में "प्रेरणा और अनुराग" पढें ) । प्रस्तुत है १९४६ की - उसी वर्ष रीवा राज्य कवि सम्मेलन में प्रथम स्थान प्राप्त - कविता । यह कविता उनकी २००२ में संकलित "मिट्टी के गीत" से है जिसके प्रकाशक हैं विभोर प्रकाशन इलाहाबाद (थोडी लम्बी कविता है) - सधन्यवाद - मनीष

शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य

कुसुमित जीवन के मधुर स्वप्न, लहराते हैं मधुरिम बयार
वृक्षाली में गाती श्यामा, डालें झुकतीं लै मृदुल भार

कोमल शिरीष की कोंपल भी, नर्तन में आज हुई उन्मन
नीलम के पंखों में शोभित, नूतन पराग के से जलकण

कुछ मीठी मीठी सी फुहार, सिहरन उफ़ कैसी यह पीड़ा
उन्मद कपोल के मन्मथ के, लेखा ही यह कैसी ब्रीड़ा

पदचाप मौलिश्री के परिमल में मिस, वसुधा पर धर जाते
जाने क्यों से अनजाने में, सीधे पादप भी हिल जाते

शोभा की प्रतिमा सी वन में, यह कौन अरे जाती सीता
पति की वरधर्मक्रिया जिसने, स्थावर जंगम का मन जीता

छोड़ा जिसने निज राम-राज्य, वह जाता युग का सेनानी
उस सेनानी के साथ अरे, जाती जन-जन की कल्याणी

निर्वासित हाँ निर्वासन ही, तो पित्र प्रेम है मूर्तिमान
पित्र-इच्छा के आगे जग का, सारा वैभव रजगण समान

हाँ छोड़ दिया घर का वैभव, जग का वैभव पद तल आया
उस पार ब्रम्ह के पीछे ही, माया ने अपना पथ पाया

युग की समाधि में आज मौन, वह नव्य साधनामय विराग
उस निर्वासित के धनुस्वर से, अब भी कंपते हैं शेषनाग

पर आज लालसामय जीवन, विषयों की सान्धें अनविभाज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य

आशाओं के स्वर्णिम विहंग, कूके सरयू के कूलों पर
कोकिल भी भरती अपना स्वर, सुरमित डालों के झूलों पर

तट पर क्यों आँखें ठिठक रहीं, मृग सिंह साथ पीते पानी
केकी के साथ केलि रत सी, कोकिल क्या करती मनमानी

खाटें अमराई के नीचे, ग्रामीण जहाँ लेते बयार
नवयजन धर्म की रेखा भी, नभ के उर में करती विहार

रति सी ग्रामीण नवोढ़ायें, पनघट पर गगरी ले आईं
कुछ अरहर के खेतों में जा, क्रीडा को करने हुलसाईं

हल लिए कृषक के दल आते, गज की चालें भी शर्मातीं हैं
गर्दन की घंटी के स्वर में, कुछ और शब्द भी लहरातीं हैं

हाँ इन गायन घंटी स्वर में, कुछ और शब्द लहराते हैं
जब अन्तरिक्ष में वेदों के, कुछ महामंत्र टकराते हैं

कुछ दूर खेत में रही दूब, को चरने गायें जाती हैं
अयनों के भार वहन करने, में ही मानो थक जाती हैं

उनके आगे करते किलोल, बछड़े मृग शावक से जाते
माँ के दुलार की धमकी दे, अपने में ही कुछ कह जाते

है धर्म न्याय मानव अपनी, रखता है रे अर्जित सत्ता
मानव के स्वर के बिना नहीं, हिल सकता धरती पर पत्ता

वह राम अरे युग का मानव, मानव का ही तो साम्राज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य

वह राम अरे हाँ स्वप्नलोक, की अब जो विगत कहानी है
क्यों रामराज्य का नाम आज, लेते आंखों में पानी है

वह राम और वह राज्य और, वे मानव सब धुंधली रेखा
अब का मानव क्या जान सका, जिसने शोषण का युग देखा

यदि शोषण ही केवल होता, तब भी संतोष रहा भारी,
पर शोषित भी शोषण करता, उल्टी देखी दुनिया सारी

कहते इतिहास बताते हैं, मानव का गिरना ही गुलाम
पर आज गुलामों का गुलाम, बोलो मानव का कौन नाम

कवि तूने देखा राज्य और, आंखों से जौहर भी देखा
दिल्ली को रोटी ले जाते, राणा को भूखे भी देखा

देखा तूने जो सह न सका, मुग़लों की खर तलवारों से
जब छाती पर रानी चढ़ती, खंजर ले कर मीनारों से

हो याद मुझे आई मीना, उसकी भी एक कहानी है
पर देख आज की मीना को, आंखों में आता पानी है

हे लुटा रही माता बहने, अपनी अस्मत हाटों में
रुपयों से मोल हुआ करता, सुन्दरता बिकती बाटों में

दिल चाक हुआ इन गुनाहगार, आंखों ने है क्या-क्या देखा
पद के हित मानव ने अपनी, माता का सिर कटते देखा

कवि सुनो आज हिमगिरि सुनले, सुनलें विजयों की मीनारें
यह महल सुने ऊंचे - ऊंचे, सुनलें ज़ुल्मी की तलवारें

सुनलें जो न्याय बनाते हैं, सुनलें जो मानव को खाते
जो आज धर्म की आड़ लिए, अपने को ऊंचा बतलाते

जिनने छीने मां-बहनों के, वक्ष-स्थल से जा वसन हैं
कहना उनसे वचन नहीं ये, महाकाल के अनल दशन हैं

अरे बोतलों की छलकारें, नुपुर की झंकारें भी
मेरी निर्वसना माँ के, ज़ंजीरों की ललकारें भी

रूप दिया जिसने मरघट का, शस्य श्यामला को अविकल
जिनने मानव को ठठरी में, भूसाभर कर है किया विकल

जिनने माता के लालों पर, संगीनें भी चलवाई हैं
जिनने बेतों से जेलों में ,चमडियाँ बहुत खिचवायीं है

वे संभल चलें युग की वाणी, करवट लेकर हुंकार उठी
सोई नागिन भी निज संचित, विष से सहसा फुंकार उठी

उठ पडा अरे पीड़ित मानव, छीनेगा तुमसे मनुज राज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य
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Jan 2, 2008

दोपहर का गान

चलने लगा, चलता गया, बनता गया, मैं भी शहर
बेमन हवा, लाचार गुल, ठहरी सिसक, सब बेअसर

रोड़ी सितम, फौलाद दम, इच्छा छड़ी, कंक्रीट मन
उठने लगी, अट्टालिका, बढ़ती गयी, काली डगर

कमबख्त कम, पैदा हुआ, सीखा हुआ, वैसा नहीं
जिस रंग में, बदरंग था, उस ढंग में, सांचा कहर

उड़ने लगा, चिढ़ने लगा, इतरा गया, धप से गिरा
अब मौज को, क्या दोष दूँ, मेरा धुआं, मेरा ज़हर

आंधी चली, पानी गिरा, गिरता गया, कोसों गहर
तुम बोल थी, मैं मोल था, थी बीच में, ये दोपहर