गलत ढूंढते हैं सही ढूंढते हैं,
जो सब ढूंढते हैं यहीं ढूंढते हैं
जो मिलता नहीं बस वही ढूंढते हैं
वो मिल जाए गर तो कमी ढूंढते हैं
कमी से परेशां ज़मीं ढूंढते हैं
ज़मीं भी बहुत दूर की ढूंढते हैं
बहुत दूर खुद में नमी ढूंढते हैं
नमन अनमने बन खुदी ढूंढते हैं
खुदी में खुदा बंदगी ढूंढते हैं
खुदा नाम बंदे बदी ढूंढते हैं
बदी नेक से सट लगी ढूंढते हैं
लगी में तने ताज़गी ढूंढते हैं
गुमे फूल पत्ती हरी ढूंढते हैं
कांटे जो चितवन हँसी ढूंढते हैं
हँसी घुलमिली पी खुशी ढूंढते हैं
खुशी इश्तिहारों की सी ढूंढते हैं
मुनादी में खबरों का जी ढूंढते हैं
खबर हो डरों में डली ढूंढते हैं
डर की वजह की धड़ी ढूंढते हैं
वजह से धनक गड़बड़ी ढूंढते हैं
शुबहे बा शक हर घड़ी ढूंढते हैं
टिकटिक न जानी कही ढूंढते हैं
अज़ानों में अपनी सुनी ढूंढते हैं
अँधेरे जला रोशनी ढूंढते हैं
सुबह रोज़ की हड़बड़ी ढूंढते हैं
जल्दी जली दोपहरी ढूंढते हैं
जले शाम हाज़िर छड़ी ढूंढते हैं
सहारे इमारत खड़ी ढूंढते हैं
साँपों में सीढ़ी चढ़ी ढूंढते हैं
चढ़े हों तो पारे कई ढूंढते हैं
कई मन के मारे परी ढूंढते हैं
परीज़ाद सपने नई ढूंढते हैं
पुराने रिसाले बही ढूंढते हैं
बाढ़ों से बच कर रही ढूंढते हैं
सूखे सफर तिश्नगी ढूंढते हैं
पिपासा जिज्ञासा रंगी ढूंढते हैं
रंगों में फ़ाज़िल कड़ी ढूंढते हैं
कड़ी जोड़ती फुलझड़ी ढूंढते हैं
पटाखों में बड़की लड़ी ढूंढते हैं
फूटे बरस की भरी ढूंढते हैं
भरती नदी और तरी ढूंढते हैं
लहर से किनारे ज़री ढूंढते हैं
किनारों के खोटे खरी ढूंढते हैं
खरी मनकरी मसखरी ढूंढते हैं
ठठ्ठों से जहमत बनी ढूंढते हैं
बनों में छितर चांदनी ढूंढते हैं
सितारों पे हरकत जगी ढूंढते हैं
नजूमी कलम दिल्लगी ढूंढते हैं
कल के नज़ारे अभी ढूंढते हैं
गुज़रा हुआ कल सभी ढूंढते हैं
जो है उसमें कुछ बानगी ढूंढते हैं
सांचों में सच सरकशी ढूंढते हैं
बगावत के पल हमनशीं ढूंढते हैं
रिन्दों में पर्दानशीं ढूंढते हैं
पर्दों में बातें बुरी ढूंढते हैं
बदमाश सारे नबी ढूंढते हैं
शरीरों में शहरी शबी ढूंढते हैं
कस्बों में हसरत दबी ढूंढते हैं
दबे गाँव गाड़ी रुकी ढूंढते हैं
सिगनल में तीखी सखी ढूंढते हैं
मिर्चों से आँखें धुंकी ढूंढते हैं
नज़रें उतारे यकीं ढूंढते हैं
भरोसे फलक में मकीं ढूंढते हैं
पता नाम सा कुछ कोई ढूंढते हैं
कहीं कुछ भी हासिल नहीं ढूंढते हैं
हिसाबों की गोली दगी ढूंढते हैं
लगी जो लगन की पगी ढूंढते हैं
पग थक गए बेदमी ढूंढते हैं
मुक़र्रर के दम ज़िंदगी ढूंढते हैं
ज़िंदा मुरादें सगी ढूंढते हैं
अपने से सब आदमी ढूंढते हैं
अलख ढूंढते अलग ही ढूंढते हैं
वो जो हैं जहां वो वहीं ढूंढते हैं
"एक कबूतर चिट्ठी लेकर, पहली-पहली बार उड़ा, मौसम एक गुलेल लिए था पट से नीचे आन गिरा" (श्री दुष्यंत कुमार की "साये में धूप" से )
Dec 2, 2010
Nov 4, 2010
बेनकाब बेशराब
उफ़-आह रंग साज़ हैं, लुब्बे लुबाब में
बेलौस बांटते हैं सिफ़र, दो के आब में
नीचे सिफ़र दिया, यही ऊपर की सल्तनत
ऐसा बयाँ इस साल भी, लिक्खा किताब में
कैसा बयान था, वहाँ किसका मकान था
चल बाँट लें बन्दर के नांईं, सब हिसाब में
इतनी कमी ज़मीं की बसर में हुई, पता
सामंत की नज़र है अब के, माहताब में
आकाश से ऊंचा हुआ , उठकर गया जहाँ
जाती नहीं आवाज़ तक, उस आफ़ताब में
आवाज़ गोलियों से गालियों से, दाब दो
या बस ख़बर से दाग दो, नक़्शे जवाब में
ख़बरें चमक रहीं हैं, बरसते महा नवीस
चींटों के पर झड़ जा रहे, साहिब रुआब में
झड़ के गिरे पत्ते कहें, चिड़िया से डाल की
हम पर वे चलके जाएंगे, तेरे ही ख्वाब में
जो ख्वाब चंद आँख का, वो खाम ख्वाब है
क्या देखता है सुरसुरी, बंद के हिजाब में
बेलौस बांटते हैं सिफ़र, दो के आब में
नीचे सिफ़र दिया, यही ऊपर की सल्तनत
ऐसा बयाँ इस साल भी, लिक्खा किताब में
कैसा बयान था, वहाँ किसका मकान था
चल बाँट लें बन्दर के नांईं, सब हिसाब में
इतनी कमी ज़मीं की बसर में हुई, पता
सामंत की नज़र है अब के, माहताब में
आकाश से ऊंचा हुआ , उठकर गया जहाँ
जाती नहीं आवाज़ तक, उस आफ़ताब में
आवाज़ गोलियों से गालियों से, दाब दो
या बस ख़बर से दाग दो, नक़्शे जवाब में
ख़बरें चमक रहीं हैं, बरसते महा नवीस
चींटों के पर झड़ जा रहे, साहिब रुआब में
झड़ के गिरे पत्ते कहें, चिड़िया से डाल की
हम पर वे चलके जाएंगे, तेरे ही ख्वाब में
जो ख्वाब चंद आँख का, वो खाम ख्वाब है
क्या देखता है सुरसुरी, बंद के हिजाब में
Oct 31, 2010
निशाचरण
यों इत्ते सा कड़वा है काफ़ी गुलाबी, ओ मन इससे ज्यादा न करना कसैला
रे दुखवा रे जा जा ओ रतिया के छैला
रे जा जा बहस का गगन खुरदुरा है
उमस का गहन लोपता फरहरा है
खोले आँखें तमस की पहर तीसरे में
गजर का वजन गाज का दूसरा है
ये टिकटिक की घड़ियाँ हैं भारी प्रभारी, विभा का समय चूर दिखता है मैला
रे दुखवा चला जा ओ रतिया के छैला
रे जा अब कभी और जा कर सुनाना
सजा का तरन्नुम विषादों का गाना
उठा सब तमाशा, हताशा की भाषा
फसक का फ़साना, यही बस बजाना
साज़ पकडें कहाँ सुर लगा दूसरा जी, लो जी भर गया नाद तनहा बनैला
रे दुखवा रे गा जा ओ रतिया के छैला
रे जा ना उठा जा रे गल्ले से छल्ला
ये हल्ले में हल्ला ये इल्मों का इल्ला
घिस-घिस गिला पिस मिला हाथ में जो
जुड़ीं चार दमड़ी झड़ा एक अधिल्ला
अन्धेरे उगलते अठन्नी का मीठा, बढ़ा खून चीनी, खिलाते करैला
रे दुखवा जिमा जा ओ रतिया के छैला
रे जा भाई रे, थक गए जाग के दम
गिने कितने गिरते दिनों में मुहर्रम
निशा दीप में याद की ज्योतियों में
मोतियों सीपियों सागरों में जमा गम
मनन से कई देव दानव निकाले, सुधा की सुराही पे छींटा बिसैला
रे दुखवा पिया जा ओ रतिया के छैला
रे जा कर न जा, रह भी जा धुन्धपाती
यूं भर-भर बढ़ा जा, कलेजे की थाती
रात साथी है तू, कूचे लम्हों के बाबा
अजूबा खुशी, बात आती है जाती
सरापों में बुलबुल सियापों से मेला, महाकाल अंतिम बसेरा उजेला
रे दुखवा न जा रह जा रतिया के छैला
..रे दुखवा न जा छोड़ जा ना अकेला
..रे दुखवा सुला जा ओ रतिया के छैला
..रे दुखवा..
रे दुखवा रे जा जा ओ रतिया के छैला
रे जा जा बहस का गगन खुरदुरा है
उमस का गहन लोपता फरहरा है
खोले आँखें तमस की पहर तीसरे में
गजर का वजन गाज का दूसरा है
ये टिकटिक की घड़ियाँ हैं भारी प्रभारी, विभा का समय चूर दिखता है मैला
रे दुखवा चला जा ओ रतिया के छैला
रे जा अब कभी और जा कर सुनाना
सजा का तरन्नुम विषादों का गाना
उठा सब तमाशा, हताशा की भाषा
फसक का फ़साना, यही बस बजाना
साज़ पकडें कहाँ सुर लगा दूसरा जी, लो जी भर गया नाद तनहा बनैला
रे दुखवा रे गा जा ओ रतिया के छैला
रे जा ना उठा जा रे गल्ले से छल्ला
ये हल्ले में हल्ला ये इल्मों का इल्ला
घिस-घिस गिला पिस मिला हाथ में जो
जुड़ीं चार दमड़ी झड़ा एक अधिल्ला
अन्धेरे उगलते अठन्नी का मीठा, बढ़ा खून चीनी, खिलाते करैला
रे दुखवा जिमा जा ओ रतिया के छैला
रे जा भाई रे, थक गए जाग के दम
गिने कितने गिरते दिनों में मुहर्रम
निशा दीप में याद की ज्योतियों में
मोतियों सीपियों सागरों में जमा गम
मनन से कई देव दानव निकाले, सुधा की सुराही पे छींटा बिसैला
रे दुखवा पिया जा ओ रतिया के छैला
रे जा कर न जा, रह भी जा धुन्धपाती
यूं भर-भर बढ़ा जा, कलेजे की थाती
रात साथी है तू, कूचे लम्हों के बाबा
अजूबा खुशी, बात आती है जाती
सरापों में बुलबुल सियापों से मेला, महाकाल अंतिम बसेरा उजेला
रे दुखवा न जा रह जा रतिया के छैला
..रे दुखवा न जा छोड़ जा ना अकेला
..रे दुखवा सुला जा ओ रतिया के छैला
..रे दुखवा..
Oct 21, 2010
नापचबना
सफर में हो?...
सफर में हो? कहाँ हो? और कैसे? यार बाजीमार,
तनिक फुर्सत तो आओ, बैठ लें, हो बात दो से चार.
अमां हो किस जहां? वैसे ही क्या धुनधार करते हो?
सरचढ़ी गड़बड़ी, धड़ फक्कड़ी लठमार करते हो?
मजलिस है मियाँ वैसी, कि बैठक है अलग इस बार?
सुनते हो किसी की, या खुदी दरकार करते हो?
नुक्ता मत पकड़ना, गलतियां तो, और भी भरमार,
बढ़ती जा रहीं जस उम्र, तस सर बाल चांदी तार.
कहाँ रिक्शे के पट्टे, आध दर्जन साथ लद फद कर,
गए अर्जन को क्या-क्या, नील छापे झूलते स्वेटर,
वो सरगम पाठ, लंबी डांठ, छोटी छुट्टियों के ठाठ,
दबी जो बीच उंगली चाक, फटे फट हाथ पर डस्टर.
वो पट्टी टाट की, गर्दों में लिपटी बहस गुत्थामार,
जुमेंरातों को लगते दिन शुरू के, खास मंगल वार.
लड़ाकू था जो इक बिन बात, बोलो क्या हुआ उसका
औ दो जो हांकता था हर जगह, वो ठसक का फुसका
चार चिरकुट, जिन्हें तुम पीठ पीछे चढ़ चिढ़ाते थे
कई वो भी, नमक के गीत गाने का जिन्हें चस्का
वही जन डार से बिसरे, कला के कूट छापामार,
बया के घोंसले, तन फूल-पत्ती, बेल बूटेदार.
सुना घोंघा बसंतों में विवाह-ए-प्रेम कर ऐंठा,
उड़ा दांतू जहाजों से फिरंगी देस जा बैठा,
पढ़ाकू कड़क फौजी है तो मौजी है दुकानों में,
वो तेली सूट बूटों में, बैदकी में नगर सेठा.
कहो ना राम दे! सोचा नहीं वैसे हुए शाहकार,
काम से कलम बनना था दाम ले हो गए तलवार.
ये क्या कहते हो जानी धुंधलके की सी कहानी है,
गई वो याद मास्टर साब कहते गुरबखानी है,
कि काली डायरी भी तुमसे पूछे नाम क्या लिखना,
वजह की आयतों में किस जगह बिंदी लगानी है.
हाँ माना व्यस्त हो, सो सटकते भूतों से ये व्यवहार,
उम्मीदों की हरारत जी बही खातों से है ज्योनार.
अपन का क्या, अपन ढर्रे में ढल जाएँ प्यादे हैं,
लगे चमचम के शीरे में, मगर मिर्चों में ज्यादे हैं,
चक्कर-बात, झंझावात आते हैं हिलाते हैं,
अपन जड़ हैं तो मन के जोड़ पर धागे इरादे हैं.
बचपन से गए नप-चब गए, हालात बन इसरार,
चांदमारी ये कुदरत की, सेंत में बन गए अशआर.
अरे हाँ सुन लिया, कहते हो ऐसे अब नहीं लिखते,
नई फसलों के मौसम हैं, कहन के हैं अलग रस्ते,
हमी टेढ़े के टेढ़े दुम दिनों क्या साल नलकों में,
रही ढपली पुरानी राग ताजे जब नहीं बजते.
बनी बंसी से बासी सुर निकलते आ रहे इस पार,
जो दब लेंगे तो बदलेंगे, बदी नेकी के ऐ सरकार.
अजी कितना बदल कर आज भी कितना नहीं बदला,
मुखौटे नाम बदले खेल वैसा दलबदल घपला,
मुलुक की बत्तियाँ पतली, मोटक्के धर्म साए दिन,
अभी भी रात बहते कौंधती केवल सफल चपला.
ढही फितरत, रही मेहनत, सही दरबार के सहकार,
नहीं फुर्सत तो साथी मेट जाना इस दिशा के द्वार
सफर में हो?...
सफर में हो? कहाँ हो? और कैसे? यार बाजीमार,
तनिक फुर्सत तो आओ, बैठ लें, हो बात दो से चार.
अमां हो किस जहां? वैसे ही क्या धुनधार करते हो?
सरचढ़ी गड़बड़ी, धड़ फक्कड़ी लठमार करते हो?
मजलिस है मियाँ वैसी, कि बैठक है अलग इस बार?
सुनते हो किसी की, या खुदी दरकार करते हो?
नुक्ता मत पकड़ना, गलतियां तो, और भी भरमार,
बढ़ती जा रहीं जस उम्र, तस सर बाल चांदी तार.
कहाँ रिक्शे के पट्टे, आध दर्जन साथ लद फद कर,
गए अर्जन को क्या-क्या, नील छापे झूलते स्वेटर,
वो सरगम पाठ, लंबी डांठ, छोटी छुट्टियों के ठाठ,
दबी जो बीच उंगली चाक, फटे फट हाथ पर डस्टर.
वो पट्टी टाट की, गर्दों में लिपटी बहस गुत्थामार,
जुमेंरातों को लगते दिन शुरू के, खास मंगल वार.
लड़ाकू था जो इक बिन बात, बोलो क्या हुआ उसका
औ दो जो हांकता था हर जगह, वो ठसक का फुसका
चार चिरकुट, जिन्हें तुम पीठ पीछे चढ़ चिढ़ाते थे
कई वो भी, नमक के गीत गाने का जिन्हें चस्का
वही जन डार से बिसरे, कला के कूट छापामार,
बया के घोंसले, तन फूल-पत्ती, बेल बूटेदार.
सुना घोंघा बसंतों में विवाह-ए-प्रेम कर ऐंठा,
उड़ा दांतू जहाजों से फिरंगी देस जा बैठा,
पढ़ाकू कड़क फौजी है तो मौजी है दुकानों में,
वो तेली सूट बूटों में, बैदकी में नगर सेठा.
कहो ना राम दे! सोचा नहीं वैसे हुए शाहकार,
काम से कलम बनना था दाम ले हो गए तलवार.
ये क्या कहते हो जानी धुंधलके की सी कहानी है,
गई वो याद मास्टर साब कहते गुरबखानी है,
कि काली डायरी भी तुमसे पूछे नाम क्या लिखना,
वजह की आयतों में किस जगह बिंदी लगानी है.
हाँ माना व्यस्त हो, सो सटकते भूतों से ये व्यवहार,
उम्मीदों की हरारत जी बही खातों से है ज्योनार.
अपन का क्या, अपन ढर्रे में ढल जाएँ प्यादे हैं,
लगे चमचम के शीरे में, मगर मिर्चों में ज्यादे हैं,
चक्कर-बात, झंझावात आते हैं हिलाते हैं,
अपन जड़ हैं तो मन के जोड़ पर धागे इरादे हैं.
बचपन से गए नप-चब गए, हालात बन इसरार,
चांदमारी ये कुदरत की, सेंत में बन गए अशआर.
अरे हाँ सुन लिया, कहते हो ऐसे अब नहीं लिखते,
नई फसलों के मौसम हैं, कहन के हैं अलग रस्ते,
हमी टेढ़े के टेढ़े दुम दिनों क्या साल नलकों में,
रही ढपली पुरानी राग ताजे जब नहीं बजते.
बनी बंसी से बासी सुर निकलते आ रहे इस पार,
जो दब लेंगे तो बदलेंगे, बदी नेकी के ऐ सरकार.
अजी कितना बदल कर आज भी कितना नहीं बदला,
मुखौटे नाम बदले खेल वैसा दलबदल घपला,
मुलुक की बत्तियाँ पतली, मोटक्के धर्म साए दिन,
अभी भी रात बहते कौंधती केवल सफल चपला.
ढही फितरत, रही मेहनत, सही दरबार के सहकार,
नहीं फुर्सत तो साथी मेट जाना इस दिशा के द्वार
सफर में हो?...
Oct 16, 2010
एक पन्ना डायरी
अजनबी हम तुम कहीं, अपने जनम पिछले, मिले होंगे कसम से
हमको जो ऐसा लगा, तो कह दिया, चाहे कहो हम बेशरम से
कुछ खैर तो होगा, जमा पिघला पुराना, कह सुना कह के सुनाना
बात ऐसी चल गई, शाम-ए- अजब क्यों ना रुकी, तुमसे न हमसे
क्या रहा बीता हुआ, कैसा अभी, और हो न हो किस ढंग का कल
साथ कुछ दो बात, क्या कर रंग ज़्यादा हैं, किताबों में फिलम से
फिर रंग के जो हाथ, सो चलते रहें, रह जाए जैसा भी हुनर हो,
उनमे नरमी और गर्मी, कुछ बेसबर का टोटका, थोड़ा नियम से
मज़मून के तारे चले जब रात द्वारे, वक्त कैसे ढल गया, चुटकी बजी
उन दलदलों को पाट के, जागी दुकानों में सने, छिन पल गरम से
उस कांच में चलती रहीं, लहरें चमक जो थीं, शहर की हड़बड़ी में
इस आंच के साए, कई ठहरी मिठासें थीं घुली , प्यालों में क्रम से
और भी बातें बचीं, हों और किस दिन, सिलसिले जब हों सफर में
इब्तिदा से इन्तेहाँ, छोटी रही जो भूल हो, या चूक हो भूले करम से
हमको जो ऐसा लगा, तो कह दिया, चाहे कहो हम बेशरम से
कुछ खैर तो होगा, जमा पिघला पुराना, कह सुना कह के सुनाना
बात ऐसी चल गई, शाम-ए- अजब क्यों ना रुकी, तुमसे न हमसे
क्या रहा बीता हुआ, कैसा अभी, और हो न हो किस ढंग का कल
साथ कुछ दो बात, क्या कर रंग ज़्यादा हैं, किताबों में फिलम से
फिर रंग के जो हाथ, सो चलते रहें, रह जाए जैसा भी हुनर हो,
उनमे नरमी और गर्मी, कुछ बेसबर का टोटका, थोड़ा नियम से
मज़मून के तारे चले जब रात द्वारे, वक्त कैसे ढल गया, चुटकी बजी
उन दलदलों को पाट के, जागी दुकानों में सने, छिन पल गरम से
उस कांच में चलती रहीं, लहरें चमक जो थीं, शहर की हड़बड़ी में
इस आंच के साए, कई ठहरी मिठासें थीं घुली , प्यालों में क्रम से
और भी बातें बचीं, हों और किस दिन, सिलसिले जब हों सफर में
इब्तिदा से इन्तेहाँ, छोटी रही जो भूल हो, या चूक हो भूले करम से
Oct 10, 2010
गुज़रते बादल
जाने वो जब भी समन्दर से गुज़रते होंगे
डूब कर खुद-ब-खुद अन्दर से गुज़रते होंगे
उनकी देखी हुई दुनिया वैसी दुनिया है जहाँ
बरसते होंगे जहां जिस बहर से गुज़रते होंगे
दरबदर आस के दरो दर के रिसाले से कहीं
चलते चाकों में घन ठहर से गुज़रते होंगे
ऐसा सुन पाए नहीं उफ़ या आह बहते हों
खबर मालूम थी वो नश्तर से गुज़रते होंगे
सुना आँखों की हँसी बातों से न दूरी थी
पास कितने जी बवंडर से गुज़रते होंगे
कभी चट्टान पे खिली धूप को खुलकर देखो
वो उस बहार के कोहबर से गुज़रते होंगे
गुज़रते बादल किसी के हुए न हुए सबके हुए
चाहे खुद हों न हों नम घर से गुज़रते होंगे
डूब कर खुद-ब-खुद अन्दर से गुज़रते होंगे
उनकी देखी हुई दुनिया वैसी दुनिया है जहाँ
बरसते होंगे जहां जिस बहर से गुज़रते होंगे
दरबदर आस के दरो दर के रिसाले से कहीं
चलते चाकों में घन ठहर से गुज़रते होंगे
ऐसा सुन पाए नहीं उफ़ या आह बहते हों
खबर मालूम थी वो नश्तर से गुज़रते होंगे
सुना आँखों की हँसी बातों से न दूरी थी
पास कितने जी बवंडर से गुज़रते होंगे
कभी चट्टान पे खिली धूप को खुलकर देखो
वो उस बहार के कोहबर से गुज़रते होंगे
गुज़रते बादल किसी के हुए न हुए सबके हुए
चाहे खुद हों न हों नम घर से गुज़रते होंगे
Aug 20, 2010
पत्नीव्रतांश
तुम नहीं थीं.
उन दिनों
रोज़ों के दिन
मैं
तुम्हारे बिन यहाँ
कुछ अस्त था कुछ व्यस्त था.
ऐसा बना
कैसे कहूँ
सब अनमना
इतने दिनों
तुमसे बिना झगड़े
लड़े कैसे बहा
सीधा सधा
चलता रहा वो दर असल
सब था अनर्गल
जिस विधा
अभ्यस्त था.
मन था निखट्टू
उन जिन दिनों
जब तुम नहीं थीं.
मोना गए कुछ दिनों बंगलौर थी छः साल से अटे काम को अंजाम देने, नानी मामा मित्रादि से मिलने [ और हो सकता है झकाझक बारिश देखने]; उसी के लिए लिखी ; वैसे इसे कल रात पोस्ट करने का मन था; अब क्या कहें कवितानुसार थोड़ी लड़ाई हो गई सुनी और कहा दोनों, सबेरे सुलह तो दोपहर को पोस्ट, ऐसा आया समय - थोड़ी लड़ाई प्रेम का गुड़ है :-)
उन दिनों
रोज़ों के दिन
मैं
तुम्हारे बिन यहाँ
कुछ अस्त था कुछ व्यस्त था.
ऐसा बना
कैसे कहूँ
सब अनमना
इतने दिनों
तुमसे बिना झगड़े
लड़े कैसे बहा
सीधा सधा
चलता रहा वो दर असल
सब था अनर्गल
जिस विधा
अभ्यस्त था.
मन था निखट्टू
उन जिन दिनों
जब तुम नहीं थीं.
मोना गए कुछ दिनों बंगलौर थी छः साल से अटे काम को अंजाम देने, नानी मामा मित्रादि से मिलने [ और हो सकता है झकाझक बारिश देखने]; उसी के लिए लिखी ; वैसे इसे कल रात पोस्ट करने का मन था; अब क्या कहें कवितानुसार थोड़ी लड़ाई हो गई सुनी और कहा दोनों, सबेरे सुलह तो दोपहर को पोस्ट, ऐसा आया समय - थोड़ी लड़ाई प्रेम का गुड़ है :-)
Aug 17, 2010
जंगबाज़
ऐसा मैं नहीं कर पाता सहज न पूरा जान पाता हूँ
इसीलिये पढ़ता जाता हूँ महज खुली किताबें उनकी बातें
जितना हो सकता है बिनबुलाए आता जाता अदृश्य
छीलता जाता हूँ प्याज़
और दुआएं देता हूँ उन सब को जो कुछ कुछ संभव करते हैं जनगण
और ऐसा होता है, होता जाता रहता है च्युत भी अद्भुत भी मन.
ऐसा होता जाता है दोधार नामाकूल जहां जमीन घूमती है टेढ़ी रोज़
एक स्रोत्र से निकलती है नदियां नशे की और रोगतोड़ दवाइयां भी नई खोज
वहीँ से बनती हैं जहां कारें बंदूकें बदलती हैं और औज़ार जिनसे पुल बनाते है
गजाभिराज जहाज जो तेल, माल मजदूर नेपाम और सिपाही दूर से दूर ले जाते हैं
बिजली के खम्भे बड़े, तंरगे तैरती है कुशलक्षेम की आवाजें तार जाती
हवा में मुनाफे, सौदे, दोस्ती और आतंक के नक़्शे सरमाए पहुंचाती जहां अभी
चक्कियां नहीं पीसती औरतें धुत्त पतियों से पिटती हैं सड़कें पहुँची हैं मुंहबाए वहाँ भी
मोटे होते जाते हैं कुछ ठेकेदार, कुछ ज़्यादा पढ़ पाते हैं कुछ बच्चे अंधियारे में
फलतः जिनके हाथ नहीं होते हथियार हथकरघे या हल, पहल के नवद्वारे में
जहां तक पहुँचती है रोशनी कुछ उजास आती है कुछ खटास बहस के बंटवारे में
ऐसे ही होता जाता है मीठा तीत ताप शीत दुनिया में कुछ यहाँ जहाँ
शान्ति के परम और विस्फोट के परचम में आता है एक ही नाम नोबल याद के सहारे में.
नाम ऐसे ही नाम बड़े नाम के खाते आते हैं हर सावन फ़ेहरिस्त में फलते जाते हैं
फूलती जाती हैं इतिहास में किताबें और स्कूलों में बस्ते
सडकों और अस्पतालों की पट्टियाँ बदलते कसते
असमानता की फैलती खाई पर फुसलाव के विचित्र ज्ञापन बरसते हँसते
लगातार के कटाव में ज़मीर के पड़ाव जाते हैं, आसमान आबशार ज़मीन पलटते जाते हैं
कारोबार से नए चौराहे उगते जाते हैं नए क़ानून आविष्कार
विचार, वर्जनाएं, उनकी रेखाएं कारक, नायक कलहकार
धार से बहते जाते हैं वो नाम विस्मृत होते हैं जो अडिग थे उस धार
या जिन्होंने किया ताउम्र विवादों, बेचारों और किताबों से सरोकार
इन सबके कारण और बावजूद कितना कुछ करने का रह जाता है
कहने से छूटता है बीच का अनकहा, अनसुना कह जाता है
आशा के साथ बदलती भाषा में बुढ़ाती सोच का व्याकरण घटता बह जाता है,
सोच में ऐसा होता है सोचना खचपच होता दीखता है अक्षांश देशांतर सींचना
बबूल और बबूले फूली आग में झोंकी आहुतियाँ चिटकती पीढ़ियाँ
सरल विवेक में दिवास्वप्न से निकलना दुरास्वप्न में दाखिल
होना रूमानियत का किसी किताब या नारे का संबल
कहीं दूर से दिखता है ध्रुवतारा कहीं उधार का कम्बल
दलदल के दालान तक आने पर अंततोगत्वा पुनर्नवा बचाव
विवादित पृष्ठभूमियों में ध्यानाकर्षित धूपछाँव प्रस्ताव
खोट में जाता इंसानियत का मानवता से जुड़ाव
और घर से निकलने के बाद दिखता तना सर्वव्यापी खिंचाव
संस्कृति की देह और देह की संस्कृति के बीच बहाव
व्यग्र विचलित और कल्पित ध्वनि के विहंगम भ्रमरांगण
मैं जान पाता हूँ बस उतने ही घमासान जितने दूर से दिखते हैं
उनके बीच में हरी लकीरें भी हो सकती हैं और धब्बे कत्थई लाल बिंदु से
जो बौछारें हो सकते थे धीरे-धीरे पड़ते हाशिए में काले
धीरे-धीरे अपना-अपना गहन गाढ़ा सान्द्र बहकाने वाले
साथी दुर्बल दिनमान जो नसों में कभी बहते ओज को क्षणिक लिखते हैं
गल्प में फिर भी निर्बल जंगली घास पैठती है सर उठा बनफूल बागों में सेंध लगाते
मिश्र धातु का पंचपात्र बनते बनाते व्यक्तित्व का आचमन
अपरिचित सप्तसिंधु से यथा कथा प्रतिरूपेण मिलता है मनन
यहाँ भी वैसा ही दीखता है आइनों में जैसा वहाँ है ब्रम्ह्वदन
आदर और सहमति के बीच साम्य न बना पाने पर सहमति से परे हटना
होता जाता है अकर्मण्य श्रद्धा के यातायात में निश्चित की दुर्घटना
हादसों से टापते चले आते है शब्दवेध के छोड़े सारे वाक्प्रमथों के झुण्ड
ध्वनिपारित व्यवस्था के अधिनायक एरावतों के वक्र तुंड
वक्र दृष्टि, वक्र विद्या, वक्र सृष्टि चक्र शून्य किंचित चिंता का भीम ताल
कुमुदिनी के छींट भर, जलकुम्भी दल विशाल
शिकायतों के दायरे अंबार आलोचनाओं के फन तनते है अंदर कराल
सामूहिक दुस्साहस से घनी भीड़ की अंगवाल से दम जोड़ता ज़हीन सवाल
किस दृष्टि से लगता है एक जग सब गलत किस कोण वही पूरा बेमिसाल?
प्रश्नकाल प्रश्नावृत घेरती है कसैली झुंझलाहट अहंकाल सहने की महीन आहट
कहाँ जाएँ इस हाल, कैसे हटाएँ दुखारविन्द से धवल प्रभात निर्वात
विचित्रविधि समय के चलचित्रविधि प्रसंगों में पुन रंग अहसास की बात
या कि बस खुद को बचाकर चलकर किसी तरह इस लंबे पहर की रात
त्राहि माम लगता है कटुघात, कभी खुद भी नहीं बचता आत्मसात अम्ल वर्षा खार बरसा
स्वयंपाकी स्वयंताकी स्वयंझांकी व्यवहारिक मनसा
कर्मणा और वाचा पर कब भारी पड़े अचानक कब ऐसा हो सहसा
समय भी न बचे और अतुकांत फफोला जीवाश्म में बदलता जाए शायद किसी पुराने शहर सा
शायद इतना समय होता ही नहीं शहर में पूरा समझने का ऐसा मैं नहीं कर पाता सहज
न पूरा जान पाता हूँ इसीलिये फिर लड़ता जाता हूँ खुद से महज
खुली किताबों से उनकी बातों से जितना हो पाता हूँ अटकलबाज़
जिरह के बख्तरों में कैद गिनती का जंगबाज़.
छीलता जाता हूँ प्याज़.
इसीलिये पढ़ता जाता हूँ महज खुली किताबें उनकी बातें
जितना हो सकता है बिनबुलाए आता जाता अदृश्य
छीलता जाता हूँ प्याज़
और दुआएं देता हूँ उन सब को जो कुछ कुछ संभव करते हैं जनगण
और ऐसा होता है, होता जाता रहता है च्युत भी अद्भुत भी मन.
ऐसा होता जाता है दोधार नामाकूल जहां जमीन घूमती है टेढ़ी रोज़
एक स्रोत्र से निकलती है नदियां नशे की और रोगतोड़ दवाइयां भी नई खोज
वहीँ से बनती हैं जहां कारें बंदूकें बदलती हैं और औज़ार जिनसे पुल बनाते है
गजाभिराज जहाज जो तेल, माल मजदूर नेपाम और सिपाही दूर से दूर ले जाते हैं
बिजली के खम्भे बड़े, तंरगे तैरती है कुशलक्षेम की आवाजें तार जाती
हवा में मुनाफे, सौदे, दोस्ती और आतंक के नक़्शे सरमाए पहुंचाती जहां अभी
चक्कियां नहीं पीसती औरतें धुत्त पतियों से पिटती हैं सड़कें पहुँची हैं मुंहबाए वहाँ भी
मोटे होते जाते हैं कुछ ठेकेदार, कुछ ज़्यादा पढ़ पाते हैं कुछ बच्चे अंधियारे में
फलतः जिनके हाथ नहीं होते हथियार हथकरघे या हल, पहल के नवद्वारे में
जहां तक पहुँचती है रोशनी कुछ उजास आती है कुछ खटास बहस के बंटवारे में
ऐसे ही होता जाता है मीठा तीत ताप शीत दुनिया में कुछ यहाँ जहाँ
शान्ति के परम और विस्फोट के परचम में आता है एक ही नाम नोबल याद के सहारे में.
नाम ऐसे ही नाम बड़े नाम के खाते आते हैं हर सावन फ़ेहरिस्त में फलते जाते हैं
फूलती जाती हैं इतिहास में किताबें और स्कूलों में बस्ते
सडकों और अस्पतालों की पट्टियाँ बदलते कसते
असमानता की फैलती खाई पर फुसलाव के विचित्र ज्ञापन बरसते हँसते
लगातार के कटाव में ज़मीर के पड़ाव जाते हैं, आसमान आबशार ज़मीन पलटते जाते हैं
कारोबार से नए चौराहे उगते जाते हैं नए क़ानून आविष्कार
विचार, वर्जनाएं, उनकी रेखाएं कारक, नायक कलहकार
धार से बहते जाते हैं वो नाम विस्मृत होते हैं जो अडिग थे उस धार
या जिन्होंने किया ताउम्र विवादों, बेचारों और किताबों से सरोकार
इन सबके कारण और बावजूद कितना कुछ करने का रह जाता है
कहने से छूटता है बीच का अनकहा, अनसुना कह जाता है
आशा के साथ बदलती भाषा में बुढ़ाती सोच का व्याकरण घटता बह जाता है,
सोच में ऐसा होता है सोचना खचपच होता दीखता है अक्षांश देशांतर सींचना
बबूल और बबूले फूली आग में झोंकी आहुतियाँ चिटकती पीढ़ियाँ
सरल विवेक में दिवास्वप्न से निकलना दुरास्वप्न में दाखिल
होना रूमानियत का किसी किताब या नारे का संबल
कहीं दूर से दिखता है ध्रुवतारा कहीं उधार का कम्बल
दलदल के दालान तक आने पर अंततोगत्वा पुनर्नवा बचाव
विवादित पृष्ठभूमियों में ध्यानाकर्षित धूपछाँव प्रस्ताव
खोट में जाता इंसानियत का मानवता से जुड़ाव
और घर से निकलने के बाद दिखता तना सर्वव्यापी खिंचाव
संस्कृति की देह और देह की संस्कृति के बीच बहाव
व्यग्र विचलित और कल्पित ध्वनि के विहंगम भ्रमरांगण
मैं जान पाता हूँ बस उतने ही घमासान जितने दूर से दिखते हैं
उनके बीच में हरी लकीरें भी हो सकती हैं और धब्बे कत्थई लाल बिंदु से
जो बौछारें हो सकते थे धीरे-धीरे पड़ते हाशिए में काले
धीरे-धीरे अपना-अपना गहन गाढ़ा सान्द्र बहकाने वाले
साथी दुर्बल दिनमान जो नसों में कभी बहते ओज को क्षणिक लिखते हैं
गल्प में फिर भी निर्बल जंगली घास पैठती है सर उठा बनफूल बागों में सेंध लगाते
मिश्र धातु का पंचपात्र बनते बनाते व्यक्तित्व का आचमन
अपरिचित सप्तसिंधु से यथा कथा प्रतिरूपेण मिलता है मनन
यहाँ भी वैसा ही दीखता है आइनों में जैसा वहाँ है ब्रम्ह्वदन
आदर और सहमति के बीच साम्य न बना पाने पर सहमति से परे हटना
होता जाता है अकर्मण्य श्रद्धा के यातायात में निश्चित की दुर्घटना
हादसों से टापते चले आते है शब्दवेध के छोड़े सारे वाक्प्रमथों के झुण्ड
ध्वनिपारित व्यवस्था के अधिनायक एरावतों के वक्र तुंड
वक्र दृष्टि, वक्र विद्या, वक्र सृष्टि चक्र शून्य किंचित चिंता का भीम ताल
कुमुदिनी के छींट भर, जलकुम्भी दल विशाल
शिकायतों के दायरे अंबार आलोचनाओं के फन तनते है अंदर कराल
सामूहिक दुस्साहस से घनी भीड़ की अंगवाल से दम जोड़ता ज़हीन सवाल
किस दृष्टि से लगता है एक जग सब गलत किस कोण वही पूरा बेमिसाल?
प्रश्नकाल प्रश्नावृत घेरती है कसैली झुंझलाहट अहंकाल सहने की महीन आहट
कहाँ जाएँ इस हाल, कैसे हटाएँ दुखारविन्द से धवल प्रभात निर्वात
विचित्रविधि समय के चलचित्रविधि प्रसंगों में पुन रंग अहसास की बात
या कि बस खुद को बचाकर चलकर किसी तरह इस लंबे पहर की रात
त्राहि माम लगता है कटुघात, कभी खुद भी नहीं बचता आत्मसात अम्ल वर्षा खार बरसा
स्वयंपाकी स्वयंताकी स्वयंझांकी व्यवहारिक मनसा
कर्मणा और वाचा पर कब भारी पड़े अचानक कब ऐसा हो सहसा
समय भी न बचे और अतुकांत फफोला जीवाश्म में बदलता जाए शायद किसी पुराने शहर सा
शायद इतना समय होता ही नहीं शहर में पूरा समझने का ऐसा मैं नहीं कर पाता सहज
न पूरा जान पाता हूँ इसीलिये फिर लड़ता जाता हूँ खुद से महज
खुली किताबों से उनकी बातों से जितना हो पाता हूँ अटकलबाज़
जिरह के बख्तरों में कैद गिनती का जंगबाज़.
छीलता जाता हूँ प्याज़.
Jul 29, 2010
कायाप्रवाह
हर दिन- प्रतिदिन, दिन-ब-दिन
एक सुर, एक लय, एक ताल
कब बाल बराबर बढ़ती है उमर
कब चलते-टहलते-बहलते युग जैसा बस एक पहर
कब एक रुका लम्हा, जैसे अविराम सालों साल
दिन तब दिन, खुश, शायद नाखुश, बहरहाल
दिन हल्के बीतते हैं उस दिन, सब होते आते हैं जिस दिन
वो दिन बीत जाते हैं, बीज जाते हैं कल्प वृक्ष दिन छद्म काल
और कुछ दिन हल्के सधे बिना हल के, वो दिन बरगलाये से भग्न भाल
मिली उंगली के मरोड़, अधखिली बातों के अधलिखे डोर डोर
अजदही स्मृति के अपभ्रंश से चेतन शेष दंश दिन बहुत बहुत कमज़ोर
बर्रे दिन छींट जाते हैं मुक्त पंख कुछ दिन, कुछ बादरद कुछ बेमिसाल
एक दिन उथल पुथल साँस में, एक दिन फूल उगते हैं बांस में,
फाँस के फूले चार दिन हताश दिन, निमिष से मन्वंतर तक कई सौ पचास दिन
एक साथ गिर पड़ते हैं सब दिन, उस दिन तंगहाल
दहन कक्षों से घुसती चली आती है उबाल,
एक दिन में में दो हज़ार रातों की धुंध तत्क्षण/ तत्काल
उधड़ते ध्वस्त दिन भागते दिन, वो दिन या बीहड़ वृहद जाल
दिन जब दिन, दिन पर आते हैं
पीढियाँ बढ़ जाते हैं बड़ी सारी सीढियां एक साँस चढ़ जाते हैं उछाल
हांफते हैं, कांपते हैं
क्या चाह पाते हैं क्या चाह कर भी भांप नहीं पाते हैं कुंद शैवाल
ऊष्मा सत्य की या अवसाद की, दिन किस शाम ठिठुर जाते हैं नौनिहाल
उम्र के दराजों में घुप के पुलिंदे दिन, डर प्रार्थना प्रार्थना और डर के भर के दिन
बोल के चुप के छुप के दिन, और डर और प्रार्थना कर, कुछ तो और कर के दिन
दिन कट कर, काट कर, कात कर, बेबात कर, अब इस छल, इस पल, इस समय प्रवाल
भित्तियां जोड़ फिर जोड़ किस दिन बनाएंगे कुछ दिन बनेंगे कुछ हाल
दिनकर शर के बिंधे कायाप्रवाह दिन, किस दिन ढलेंगे कंधे दिन निढाल
आज इस रात की जात बगैर जमात, कितनी ज्वाल में शीत कितना शीत में ज्वर ज्वाल
एक सुर, एक लय, एक ताल
कब बाल बराबर बढ़ती है उमर
कब चलते-टहलते-बहलते युग जैसा बस एक पहर
कब एक रुका लम्हा, जैसे अविराम सालों साल
दिन तब दिन, खुश, शायद नाखुश, बहरहाल
दिन हल्के बीतते हैं उस दिन, सब होते आते हैं जिस दिन
वो दिन बीत जाते हैं, बीज जाते हैं कल्प वृक्ष दिन छद्म काल
और कुछ दिन हल्के सधे बिना हल के, वो दिन बरगलाये से भग्न भाल
मिली उंगली के मरोड़, अधखिली बातों के अधलिखे डोर डोर
अजदही स्मृति के अपभ्रंश से चेतन शेष दंश दिन बहुत बहुत कमज़ोर
बर्रे दिन छींट जाते हैं मुक्त पंख कुछ दिन, कुछ बादरद कुछ बेमिसाल
एक दिन उथल पुथल साँस में, एक दिन फूल उगते हैं बांस में,
फाँस के फूले चार दिन हताश दिन, निमिष से मन्वंतर तक कई सौ पचास दिन
एक साथ गिर पड़ते हैं सब दिन, उस दिन तंगहाल
दहन कक्षों से घुसती चली आती है उबाल,
एक दिन में में दो हज़ार रातों की धुंध तत्क्षण/ तत्काल
उधड़ते ध्वस्त दिन भागते दिन, वो दिन या बीहड़ वृहद जाल
दिन जब दिन, दिन पर आते हैं
पीढियाँ बढ़ जाते हैं बड़ी सारी सीढियां एक साँस चढ़ जाते हैं उछाल
हांफते हैं, कांपते हैं
क्या चाह पाते हैं क्या चाह कर भी भांप नहीं पाते हैं कुंद शैवाल
ऊष्मा सत्य की या अवसाद की, दिन किस शाम ठिठुर जाते हैं नौनिहाल
उम्र के दराजों में घुप के पुलिंदे दिन, डर प्रार्थना प्रार्थना और डर के भर के दिन
बोल के चुप के छुप के दिन, और डर और प्रार्थना कर, कुछ तो और कर के दिन
दिन कट कर, काट कर, कात कर, बेबात कर, अब इस छल, इस पल, इस समय प्रवाल
भित्तियां जोड़ फिर जोड़ किस दिन बनाएंगे कुछ दिन बनेंगे कुछ हाल
दिनकर शर के बिंधे कायाप्रवाह दिन, किस दिन ढलेंगे कंधे दिन निढाल
आज इस रात की जात बगैर जमात, कितनी ज्वाल में शीत कितना शीत में ज्वर ज्वाल
Jul 18, 2010
थकान कथान
चौबिस घंटा, बार महीना, जीवन में जीना दर जीना
पढ़े पहाड़े, रट कर झाड़े
बड़ी किताबों पर सर फाड़े
लड़के मौसम, दिन जगराते
कहाँ पता, कब आते जाते
खेल कूद कम, मन भुस मारे, पिच्चर थेटर ढांक बुहारे
खर्चे पर्चों में कल सारे, मेरु दंड कर भर कस सीना
[जीवन में जीना दर जीना]
कूप जगत से नीचे नीचे
बूड़े पहिरे ,बूझे पीछे
धूप नसेनी पकड़, गगन मुख
किस छत धाए मन, तन रुक रुक
फेर घटा कर सौ से एक कम, कम लगता जो मिलता हरदम
काक दृष्टि को चोटी परचम, खदबद मानुस, धार पसीना
[जीवन में जीना दर जीना]
कब उबरे कब, उठकर जागे
मृग माया छुट, सरपट भागे
बस कर कहकर, छोड़ छाड़ कर
जंगल चाहत, आर पार कर
रेत भरी मुट्ठी बह जाए, समय अजब झांकी कह जाए
भरे भंवर में रह सह जाए, बचता खोता ख़ाक सफ़ीना
[जीवन में जीना दर जीना]
[,,बाबा ढूंढ ढूंढ थक जाता, चालिस चोरों में मरजीना.. ]
आख़िरी पंक्ति बीवी को चिढाने के लिए
पढ़े पहाड़े, रट कर झाड़े
बड़ी किताबों पर सर फाड़े
लड़के मौसम, दिन जगराते
कहाँ पता, कब आते जाते
खेल कूद कम, मन भुस मारे, पिच्चर थेटर ढांक बुहारे
खर्चे पर्चों में कल सारे, मेरु दंड कर भर कस सीना
[जीवन में जीना दर जीना]
कूप जगत से नीचे नीचे
बूड़े पहिरे ,बूझे पीछे
धूप नसेनी पकड़, गगन मुख
किस छत धाए मन, तन रुक रुक
फेर घटा कर सौ से एक कम, कम लगता जो मिलता हरदम
काक दृष्टि को चोटी परचम, खदबद मानुस, धार पसीना
[जीवन में जीना दर जीना]
कब उबरे कब, उठकर जागे
मृग माया छुट, सरपट भागे
बस कर कहकर, छोड़ छाड़ कर
जंगल चाहत, आर पार कर
रेत भरी मुट्ठी बह जाए, समय अजब झांकी कह जाए
भरे भंवर में रह सह जाए, बचता खोता ख़ाक सफ़ीना
[जीवन में जीना दर जीना]
[,,बाबा ढूंढ ढूंढ थक जाता, चालिस चोरों में मरजीना.. ]
आख़िरी पंक्ति बीवी को चिढाने के लिए
Jun 7, 2010
बढ़ते हुए बच्चे
रे ओ इधर, छोटी लहर, जलधार बहने को चली
आ निश्छ्ला, कल कल किलक, उद्गार कहने को चली
आ चल चली ठुमकी ठुमक, नव पग नवल पदचाप ले
नव कल्पनाएँ सृजन वन, सह त्रृण तने खुद आप ले
रचने निविड़ में नीड़, अपनों में खुदी पहचान बन
कृष्णावृता जंजाल में, निज का सुलझ रुखसार मन
तन्वी कला, मंडल प्रभा, विस्तार भरने को चली
रे ओ इधर, छोटी लहर, जलधार बहने को चली
किस वेग बढ़ जाती लता, लगता अभी झपकी पलक
संवाद मढ़ संवेग चुन, धुन धड़कती धक् लक्ष्य तक
अचरज मृदुल छुट पाँव, हाथों में ढला फौलाद कब
भय तनिक सा खटमिठ मना, घर छोडती औलाद जब
लब स्वप्न, उर स्वर उदधि, सागर पार करने को चली
रे ओ इधर, छोटी लहर, जलधार बहने को चली
झिल मिल बदल परिवेश में, पथ ढूंढते पल्लव पथिक
इत समय सम बनते गए, पितु मात कम साथी अधिक
गत पार कालों की कला, क्या तब चला समझा दिए
अब मिल जुला कैसा बुरा, या क्या भला बतला गए
सब समझ, नासमझी सहज, संसार सहने को चली
रे ओ इधर, छोटी लहर, जलधार बहने को चली
(१) प्रियंकर कहते हैं चालीस से ऊपर की उम्र का यही होता है सो दायित्व का निर्वाह
(२) अलग रंग से चिन्हांकित “पल्लव” अनुप्रास का मारा है – उसके स्थान पर अपने बच्चों के नाम लगा कर पढ़ें तो और भला (या भला ) लगेगा
आ निश्छ्ला, कल कल किलक, उद्गार कहने को चली
आ चल चली ठुमकी ठुमक, नव पग नवल पदचाप ले
नव कल्पनाएँ सृजन वन, सह त्रृण तने खुद आप ले
रचने निविड़ में नीड़, अपनों में खुदी पहचान बन
कृष्णावृता जंजाल में, निज का सुलझ रुखसार मन
तन्वी कला, मंडल प्रभा, विस्तार भरने को चली
रे ओ इधर, छोटी लहर, जलधार बहने को चली
किस वेग बढ़ जाती लता, लगता अभी झपकी पलक
संवाद मढ़ संवेग चुन, धुन धड़कती धक् लक्ष्य तक
अचरज मृदुल छुट पाँव, हाथों में ढला फौलाद कब
भय तनिक सा खटमिठ मना, घर छोडती औलाद जब
लब स्वप्न, उर स्वर उदधि, सागर पार करने को चली
रे ओ इधर, छोटी लहर, जलधार बहने को चली
झिल मिल बदल परिवेश में, पथ ढूंढते पल्लव पथिक
इत समय सम बनते गए, पितु मात कम साथी अधिक
गत पार कालों की कला, क्या तब चला समझा दिए
अब मिल जुला कैसा बुरा, या क्या भला बतला गए
सब समझ, नासमझी सहज, संसार सहने को चली
रे ओ इधर, छोटी लहर, जलधार बहने को चली
(१) प्रियंकर कहते हैं चालीस से ऊपर की उम्र का यही होता है सो दायित्व का निर्वाह
(२) अलग रंग से चिन्हांकित “पल्लव” अनुप्रास का मारा है – उसके स्थान पर अपने बच्चों के नाम लगा कर पढ़ें तो और भला (या भला ) लगेगा
May 28, 2010
एकी यात्रा
आवाज़ तन्द्रा और कमजोरी किसी कहानी कविता से नहीं पैदा हुईं थीं उनकी,
उनका न संग पता था न थिर-रूप, पता-ठिकाना था भी और नहीं भी था सरे आम में,
उल्काएं थीं या थिरकी मुद्राएं शायद परस्पर अनुरोध में या संग्राम में.
जिसके पैर भी न देखे थे, आँखें पीछे ही पीछे लगी रहीं उनके, छोड़ कर मुंह देखना था ज्ञान नहीं था,
अंधा न था जो विश्वास था, उपहास की उक्तिओं में संदेशा, अंदेशा मुखकी रगों में पिपिरही थी अनमनी,
वैसा संगीत था जिसमें नींद थी जागने के बावजूद, कभी-कभी संतुष्ट सोते पुष्ट होते अध्याहास महाधनी,
जामुन के रंग की यात्राएं थी शायद मन-घनी अधबनी.
जहां कपडे लत्ते साबुन मठरी, कंघी और संदूक और बंधे थे अधमुंदी नींद में,
तेल पानी था या कूचियाँ थीं गठरी में या नहीं / याद नहीं,
क्या फांकते गऐ यह भी हांकते गऐ दिन किसे निशा सांय,
कौन झाँक गया, बुझा चूना, कत्था, तमाखू, उल्टे हाथ ही रखा था बाएँ / दाएँ
सीधे आगे निकला था नाक सी सीध सा रस्ता,
मेढ़े से टेढ़ा तेज देसी पत्ता बिदेसी ठाठ बाट अलबत्ता, चहकता रोक सके तो रोक
भाग की झोंक में एक से ज़्यादा एक मौके, नसीबन कुछ एक धोके,
ऊपर की माया की शीतल छाया और छाया की तपती नोक,
शौक और धुंए के लंबे कैप्सूल थे, काले फेफड़े थे जैसे रेत में ईंधन,
धुकधुक की ड्योढ़ी में अंतराल था, ठोड़ी में दाग, टूट में घुटने, नस में वसा रसायन,
खून में बढ़ती चीनी, कविताओं में दुःख वातायन.
जब दूर (या पास?) बर्फ तह-दबे दबाए-पगे बाण ले आग-धूल निकलते थे उत्तर उत्तरायण,
उपरस्थ अस्त होते थे व्यस्त हवाईयान बे राग-मूल आयन-पलायन,
तब भ्रम में शान्ति, शान्ति और दया तेल थे हड्डी की रीढ़ में,
सोख्ते थे एकालाप बंबई, दिल्ली, दुबई, कलकत्ते वगैरह की भीड़ में,
समानार्थी थे सन्दर्भ में आखेट, आतंक, दवा, दहन. भोजन, शोषण शमन इत्यादि योजन
एकत्रित थे सभ्य सुसंस्कृत व्यसन / सुशिक्षित,
तच्छक के इन्तज़ार थे कथा श्रोता होते थे सर्वधाम परीच्छित,
जिनकी परिच्छाओं में पर्चियां थीं, गुपचुप तैरती कदमताल में पर्चियां,
कदमताल की किस्मत थीं जिनकी पारदंश पारकाल,
परादेश भरे खाली कैनवास थे बर्फ और धूप के सीमाबद्ध बयान में थे आशा और आस्था सखेद,
झक सफ़ेद थी उम्मीद यों कि कहते हैं ऐसा सब रंग मिल बनाते हैं जब इन्द्रधनुष लोपता है शून्य में,
कोई यहीं खोता है जब बारिश होती है रोती बाढ़ में बहता है सब नया आने के लिए जिस दिन,
पुराना गुज़रता है ठक ठकाता जागते रहो ख्वाब है दूर हरी घास का मैदान पास बेफसल,
बड़ी सारी लाल चींटियाँ हैं अंतस्, काटती हैं लाल होता हैं, यहां बाँबियाँ हैं बाँबियों में
क्यारियों के सामर्थ्य पर, चिंगारियों पर, गीले-सीले शिकवे छाते हैं मानसून के बादल और समय का संकोच,
कोंचती किताबें यहीं बनती हैं हादसों और सब्जबागों के साथ बंट खप गए जंगल पहाड़ सपनों और आशंकाओं में,
संभावनाओं के दिए तले यही उगते हैं मदार, बबूल / रेत में
बादशाह बचे जाते हैं बच्चों के पढ़ने और चारण और कठपुतलियों के खेल के लिए सर्वांग प्रफुल्ल.
घेरे चाक चौबंद कभी तोड़ कर बढते हैं कभी घोर में घेरते हैं अकथित अमूल्य,
अतुल्य निशाचरों के एकांत की उपासनाएं हैं जहां जिन्हें पहचानते नहीं थे कुछ जानने लगे हैं,
उनके एकांत में बाम हैं, पीठ में धप्पियाँ हैं, बिसरे उमस की हवा बिखरे हैं भूले पर चलते हैं चलाचल,
एक लंबी ऊंघी मशीन हैं भूरे कबाड़ी कागज़ किताबें, लंगड़, लट्ठे-पट्ठे निगलती, निकालती/ दखल
आत्मीय एकांत, बुलबुले खुल बंद खुले, वही सब अन्तोपरांत
सीमान्त दीप्त दीमकों का रचा प्रिय भूगोल- दीवालों के इतिहास में धूर मात्रा,
ऐसे अनायास की यात्रा में अनेक में एक में अनेक की यात्रा है एकी यात्रा.
उनका न संग पता था न थिर-रूप, पता-ठिकाना था भी और नहीं भी था सरे आम में,
उल्काएं थीं या थिरकी मुद्राएं शायद परस्पर अनुरोध में या संग्राम में.
जिसके पैर भी न देखे थे, आँखें पीछे ही पीछे लगी रहीं उनके, छोड़ कर मुंह देखना था ज्ञान नहीं था,
अंधा न था जो विश्वास था, उपहास की उक्तिओं में संदेशा, अंदेशा मुखकी रगों में पिपिरही थी अनमनी,
वैसा संगीत था जिसमें नींद थी जागने के बावजूद, कभी-कभी संतुष्ट सोते पुष्ट होते अध्याहास महाधनी,
जामुन के रंग की यात्राएं थी शायद मन-घनी अधबनी.
जहां कपडे लत्ते साबुन मठरी, कंघी और संदूक और बंधे थे अधमुंदी नींद में,
तेल पानी था या कूचियाँ थीं गठरी में या नहीं / याद नहीं,
क्या फांकते गऐ यह भी हांकते गऐ दिन किसे निशा सांय,
कौन झाँक गया, बुझा चूना, कत्था, तमाखू, उल्टे हाथ ही रखा था बाएँ / दाएँ
सीधे आगे निकला था नाक सी सीध सा रस्ता,
मेढ़े से टेढ़ा तेज देसी पत्ता बिदेसी ठाठ बाट अलबत्ता, चहकता रोक सके तो रोक
भाग की झोंक में एक से ज़्यादा एक मौके, नसीबन कुछ एक धोके,
ऊपर की माया की शीतल छाया और छाया की तपती नोक,
शौक और धुंए के लंबे कैप्सूल थे, काले फेफड़े थे जैसे रेत में ईंधन,
धुकधुक की ड्योढ़ी में अंतराल था, ठोड़ी में दाग, टूट में घुटने, नस में वसा रसायन,
खून में बढ़ती चीनी, कविताओं में दुःख वातायन.
जब दूर (या पास?) बर्फ तह-दबे दबाए-पगे बाण ले आग-धूल निकलते थे उत्तर उत्तरायण,
उपरस्थ अस्त होते थे व्यस्त हवाईयान बे राग-मूल आयन-पलायन,
तब भ्रम में शान्ति, शान्ति और दया तेल थे हड्डी की रीढ़ में,
सोख्ते थे एकालाप बंबई, दिल्ली, दुबई, कलकत्ते वगैरह की भीड़ में,
समानार्थी थे सन्दर्भ में आखेट, आतंक, दवा, दहन. भोजन, शोषण शमन इत्यादि योजन
एकत्रित थे सभ्य सुसंस्कृत व्यसन / सुशिक्षित,
तच्छक के इन्तज़ार थे कथा श्रोता होते थे सर्वधाम परीच्छित,
जिनकी परिच्छाओं में पर्चियां थीं, गुपचुप तैरती कदमताल में पर्चियां,
कदमताल की किस्मत थीं जिनकी पारदंश पारकाल,
परादेश भरे खाली कैनवास थे बर्फ और धूप के सीमाबद्ध बयान में थे आशा और आस्था सखेद,
झक सफ़ेद थी उम्मीद यों कि कहते हैं ऐसा सब रंग मिल बनाते हैं जब इन्द्रधनुष लोपता है शून्य में,
कोई यहीं खोता है जब बारिश होती है रोती बाढ़ में बहता है सब नया आने के लिए जिस दिन,
पुराना गुज़रता है ठक ठकाता जागते रहो ख्वाब है दूर हरी घास का मैदान पास बेफसल,
बड़ी सारी लाल चींटियाँ हैं अंतस्, काटती हैं लाल होता हैं, यहां बाँबियाँ हैं बाँबियों में
क्यारियों के सामर्थ्य पर, चिंगारियों पर, गीले-सीले शिकवे छाते हैं मानसून के बादल और समय का संकोच,
कोंचती किताबें यहीं बनती हैं हादसों और सब्जबागों के साथ बंट खप गए जंगल पहाड़ सपनों और आशंकाओं में,
संभावनाओं के दिए तले यही उगते हैं मदार, बबूल / रेत में
बादशाह बचे जाते हैं बच्चों के पढ़ने और चारण और कठपुतलियों के खेल के लिए सर्वांग प्रफुल्ल.
घेरे चाक चौबंद कभी तोड़ कर बढते हैं कभी घोर में घेरते हैं अकथित अमूल्य,
अतुल्य निशाचरों के एकांत की उपासनाएं हैं जहां जिन्हें पहचानते नहीं थे कुछ जानने लगे हैं,
उनके एकांत में बाम हैं, पीठ में धप्पियाँ हैं, बिसरे उमस की हवा बिखरे हैं भूले पर चलते हैं चलाचल,
एक लंबी ऊंघी मशीन हैं भूरे कबाड़ी कागज़ किताबें, लंगड़, लट्ठे-पट्ठे निगलती, निकालती/ दखल
आत्मीय एकांत, बुलबुले खुल बंद खुले, वही सब अन्तोपरांत
सीमान्त दीप्त दीमकों का रचा प्रिय भूगोल- दीवालों के इतिहास में धूर मात्रा,
ऐसे अनायास की यात्रा में अनेक में एक में अनेक की यात्रा है एकी यात्रा.
May 23, 2010
आजकल फ़िलहाल..
क्या बताएं कब औ क्या करना है जी हुज़ूर
कैसे जीना, या किस तरह मरना है जी हुज़ूर
वैसे हैं जितने वक्त, ये मौका-ए-कायनात में
हर शाम घर में चूल्हा भी जलना है जी हुजूर
फिर मान भी लें रस्म-ए-नंगई का है रिवाज़
आदत हमें नहीं, ये बदन ढंकना है जी हुजूर
अब बेघर कहाँ रहेंगे जो हम दिल अजीज़ हैं
छत और तले दीवार को रखना है जी हुज़ूर
चश्म-ओ-चिराग तिफ़्ल हैं नादाँ हैं इस समय
तालीम के इन्तेज़ामात भी धरना है जी हुज़ूर
क्यों विज्ञापनों के राज में कहते हो सीधा चल
क्या यह नहीं सपने में सा चलना है जी हुज़ूर
कैसे जीना, या किस तरह मरना है जी हुज़ूर
वैसे हैं जितने वक्त, ये मौका-ए-कायनात में
हर शाम घर में चूल्हा भी जलना है जी हुजूर
फिर मान भी लें रस्म-ए-नंगई का है रिवाज़
आदत हमें नहीं, ये बदन ढंकना है जी हुजूर
अब बेघर कहाँ रहेंगे जो हम दिल अजीज़ हैं
छत और तले दीवार को रखना है जी हुज़ूर
चश्म-ओ-चिराग तिफ़्ल हैं नादाँ हैं इस समय
तालीम के इन्तेज़ामात भी धरना है जी हुज़ूर
क्यों विज्ञापनों के राज में कहते हो सीधा चल
क्या यह नहीं सपने में सा चलना है जी हुज़ूर
May 9, 2010
अल्ज़्हाईमर
... ये मां के लिए, जो जाने कितने सालों से, बेनागा रोज सप्तशती कवच के पाठ को ही पूजा मानती थी.....इदं फलं मयादेवी स्थापितं पुरतस्तव, तेन मे सफलावाप्तिर्भवेत् जन्मनिजन्मनि.....– गए दो तीन सालों में इस बीमारी ने धीरे धीरे घुस पैठे स्मृति हुनर विवेक शब्द अर्थ सब हरे हैं, मां ने ब आस्था ..इदं फलं.. को नहीं छोड़ा है – हर सन्दर्भ में, व्याख्या में वाक्य, वार्ता में, कारण में, सबके कल्पनाशील निवारण में, तकियाकलाम ..इदं फलं..
....शायद यह भी कि ये कविता तथाकथित आनुवांशिक संभावनाओं के होने न होने के अपने भय के लिए भी है, तथाव्यथित होने से पहले..... वैसे मां और बच्चों में फर्क क्या है....
- - - - -
नोक से भी नुकीला
अन्धकार के पहले चमकता चमकीला अन्धकार
समुद्र के नीचे का एक और गहरा सम उग्र
और आकाश से सुदूर एक और क्षितिज आकाश अपार
दृष्टि पटल की सातवीं तह के परदे कुहासे के पार
कितने मन द्वार हैं अभेद्य, कितने अनुनाद सुप्ताकार.
भागफल के असामान्य अंधकूप
कोशिकाओं की कोशिकाओं के अणुओं परमाणुओं के वर्ग मूल रूप
संचित जमा हुआ भय - भयंकर भय अपरम्पार
जलधि का भय,
तड़ित का भय,
विदेह का भय,
इति वैश्वानर का भय,
उभरता दबे पाँव घुसपैठी गुत्थियों गलतियों घुस भरा भय
शनैः शनैः घड़ियों के समय के पार का समय
एक दिन आकंठ आएगा
इदं फलं – क्या ऐसा ही हो जाएगा?
ऐसे ही स्मृति वर्षा से हीन दीन दिनों में मैं कातर
ढूंढूंगा चित्रों में रेखाएं, गंध में सौरभ, आगतों में स्नेह
और स्नेह में संशय और संदेह में स्वागत झलक भर
परिकल्पना के कुटिल यथार्थ पर
खड़िया से चूरे सफ़ेद झरेंगे परम हंस झर झर
जटिल मटमैली लकीरें भाप साए
कितने पराए अपने, अपने कितने पराए
अजनबी बारहखड़ी लेखनी हस्ताक्षर
अगूंठा बन जाऊँगा कागज़ी कार्यवाईयों पर
बालसुलभ,
शायद हंसने की कोशिश की कोशिश में हंसकर
कोशिश जैसे कि बना रहे कुछ सम बंध,
संबंधों के इर्द गिर्द
कटती जाली से आती रहे नरम हवा सांस भर
कोशिश में कठिन टटोलूंगा
गिनतियाँ भूलने से पहले का स्खलित हिसाब
स्मृतियों से चूकते प्रसंगों में शेष स्वयं
कः कालः, काणि मित्राणि, को देशम्, कथं निगम
विचलित संवादों की परिधि के पूर्णाश्रय में
कौन सनद पाएगा,
दैनन्दिनी की त्रिज्या में
अनुभव का बीता तह तह, बह कर कपूर जाएगा
कलकल के पल, श्रम अनुक्रम संघर्ष अनन्य तम
शोणित के तीत, रोज़मर्रा के मीत,
जीविका और उपार्जन के किस्से पराक्रम
अतीत का व्यतीत निर्झर अंततः शुष्क शीत जाएगा
निर्मम है आज अभी कहना कुतरे जाने से पहले
दबे सुरों से, पहले घेर ले प्रारब्ध अधम
सर्वदा सदा नहीं रहा था
अन्यमनस्क , कर्तव्यविमूढ़-किं, असुगम
पार संस्कार के बंद तहखाने से खुले नक्षत्रों से आदोलित
इहलोक के स्नायुओं का टूटता दरकता पदचाप
लौटाव का तद्भव वार्तालाप
अस्थिर अटपट गजबज कथावाचित
परावर्तित आमूल शूल
मैं यह भी भूल जाऊंगा
अस्थियों में छुपा है वज्र मूल
स्व अवशेष स्वतः
अस्ति कश्चित वाग्विशेषः?
....शायद यह भी कि ये कविता तथाकथित आनुवांशिक संभावनाओं के होने न होने के अपने भय के लिए भी है, तथाव्यथित होने से पहले..... वैसे मां और बच्चों में फर्क क्या है....
- - - - -
नोक से भी नुकीला
अन्धकार के पहले चमकता चमकीला अन्धकार
समुद्र के नीचे का एक और गहरा सम उग्र
और आकाश से सुदूर एक और क्षितिज आकाश अपार
दृष्टि पटल की सातवीं तह के परदे कुहासे के पार
कितने मन द्वार हैं अभेद्य, कितने अनुनाद सुप्ताकार.
भागफल के असामान्य अंधकूप
कोशिकाओं की कोशिकाओं के अणुओं परमाणुओं के वर्ग मूल रूप
संचित जमा हुआ भय - भयंकर भय अपरम्पार
जलधि का भय,
तड़ित का भय,
विदेह का भय,
इति वैश्वानर का भय,
उभरता दबे पाँव घुसपैठी गुत्थियों गलतियों घुस भरा भय
शनैः शनैः घड़ियों के समय के पार का समय
एक दिन आकंठ आएगा
इदं फलं – क्या ऐसा ही हो जाएगा?
ऐसे ही स्मृति वर्षा से हीन दीन दिनों में मैं कातर
ढूंढूंगा चित्रों में रेखाएं, गंध में सौरभ, आगतों में स्नेह
और स्नेह में संशय और संदेह में स्वागत झलक भर
परिकल्पना के कुटिल यथार्थ पर
खड़िया से चूरे सफ़ेद झरेंगे परम हंस झर झर
जटिल मटमैली लकीरें भाप साए
कितने पराए अपने, अपने कितने पराए
अजनबी बारहखड़ी लेखनी हस्ताक्षर
अगूंठा बन जाऊँगा कागज़ी कार्यवाईयों पर
बालसुलभ,
शायद हंसने की कोशिश की कोशिश में हंसकर
कोशिश जैसे कि बना रहे कुछ सम बंध,
संबंधों के इर्द गिर्द
कटती जाली से आती रहे नरम हवा सांस भर
कोशिश में कठिन टटोलूंगा
गिनतियाँ भूलने से पहले का स्खलित हिसाब
स्मृतियों से चूकते प्रसंगों में शेष स्वयं
कः कालः, काणि मित्राणि, को देशम्, कथं निगम
विचलित संवादों की परिधि के पूर्णाश्रय में
कौन सनद पाएगा,
दैनन्दिनी की त्रिज्या में
अनुभव का बीता तह तह, बह कर कपूर जाएगा
कलकल के पल, श्रम अनुक्रम संघर्ष अनन्य तम
शोणित के तीत, रोज़मर्रा के मीत,
जीविका और उपार्जन के किस्से पराक्रम
अतीत का व्यतीत निर्झर अंततः शुष्क शीत जाएगा
निर्मम है आज अभी कहना कुतरे जाने से पहले
दबे सुरों से, पहले घेर ले प्रारब्ध अधम
सर्वदा सदा नहीं रहा था
अन्यमनस्क , कर्तव्यविमूढ़-किं, असुगम
पार संस्कार के बंद तहखाने से खुले नक्षत्रों से आदोलित
इहलोक के स्नायुओं का टूटता दरकता पदचाप
लौटाव का तद्भव वार्तालाप
अस्थिर अटपट गजबज कथावाचित
परावर्तित आमूल शूल
मैं यह भी भूल जाऊंगा
अस्थियों में छुपा है वज्र मूल
स्व अवशेष स्वतः
अस्ति कश्चित वाग्विशेषः?
May 6, 2010
बड़बड़झाला
कह कहे साहब हमारे लाट, कुछ ना झाम करना
बंधु, आईन्दा से, केवल काम के ही काम करना
क्या धरा है? तेज धारा है, समय की है गति दृतमान
शामें शोख, हैं दिन धूम, धरती है नगर परिधान
क्या है देखनी, जो रात-बीती, बात-बीती, बुझ गई
बत्ती जला ले, रोशनी कर, देख बाकी घूमते रंग शान
इस घास पर चलना मना है, पैर को थम थाम रखना
जाम भर कर काम करना, मुंह भरे रम राम रखना
देख ले महाराज कितने काज हल कर चल रहे हैं
नींव से मेहराब तक हर कान सीसे ढल रहे हैं
मूरतों सी सूरतों पर मूंछ आनी रह गई बस
पूंछ की दरकार है, सरकार के ही बल रहे हैं
बलवा बहादुर बंद हैं, वादों में धमका धाम करना
और ज्यादा बोल दें, तो दुश्मनों से साम करना
बल पड़े रस्से, खड़े हो जा रहे, रस्ते बनें हैं
बम निवाला छाप भी, गुलदान में हँसते बनें हैं
फूलते वो जाएंगे, जो योजना के काम सारे
बड़े महंगे नाम नारे, दाम से सस्ते बनें हैं
बिक चुके सब खास, आबादी में सूरत आम रहना
निमिष भर की कल्पना में, कल्प में आवाम रहना
....बंधु, आईन्दा से, केवल काम के ही काम करना
बंधु, आईन्दा से, केवल काम के ही काम करना
क्या धरा है? तेज धारा है, समय की है गति दृतमान
शामें शोख, हैं दिन धूम, धरती है नगर परिधान
क्या है देखनी, जो रात-बीती, बात-बीती, बुझ गई
बत्ती जला ले, रोशनी कर, देख बाकी घूमते रंग शान
इस घास पर चलना मना है, पैर को थम थाम रखना
जाम भर कर काम करना, मुंह भरे रम राम रखना
देख ले महाराज कितने काज हल कर चल रहे हैं
नींव से मेहराब तक हर कान सीसे ढल रहे हैं
मूरतों सी सूरतों पर मूंछ आनी रह गई बस
पूंछ की दरकार है, सरकार के ही बल रहे हैं
बलवा बहादुर बंद हैं, वादों में धमका धाम करना
और ज्यादा बोल दें, तो दुश्मनों से साम करना
बल पड़े रस्से, खड़े हो जा रहे, रस्ते बनें हैं
बम निवाला छाप भी, गुलदान में हँसते बनें हैं
फूलते वो जाएंगे, जो योजना के काम सारे
बड़े महंगे नाम नारे, दाम से सस्ते बनें हैं
बिक चुके सब खास, आबादी में सूरत आम रहना
निमिष भर की कल्पना में, कल्प में आवाम रहना
....बंधु, आईन्दा से, केवल काम के ही काम करना
Apr 11, 2010
बेतार की जिरह
कुछ सोच हैं, हैरान हूँ, परेशां हूँ बा वजह,
खुद के नाम हम कहूं, या यूं कहूं कि मैं.
क्या यूं कहूँ, ज़र्रा हूँ फू, सहरा में गुम गया,
एक जड़ हूँ बगीचे में, या गुंचों में है जगह.
किन खुशबुओं में ख़ाक हूँ, किस रंग में फ़ना,
मैं हूँ यहाँ, या चुक गया, दफ़ना हूँ किस सतह.
या शाम का भूला हूँ, सो भटका हूँ रात भर,
तारो भला बतला तो दो, आएगी कब सुबह.
क्यों धूप में ठंडा हुआ, जल में जला हूँ क्यों,
हर ओर समंदर, तो क्यों, प्यासा हूँ तह-ब-तह.
ना बोलती हैं मछलियां, क्यों बोलती नहीं,
चुपचाप तैरती हैं, ये रहती हैं किस तरह.
इस खेल में देरी हुई, मुश्किल थी, माफ कर,
ना जानता किस मात में, किसने कहा था शह.
लगता यूं गम मसरूफ़ हैं,रूमानी किताब में,
लो चुप हुआ बस हो गई, बेतार की जिरह.
खुद के नाम हम कहूं, या यूं कहूं कि मैं.
क्या यूं कहूँ, ज़र्रा हूँ फू, सहरा में गुम गया,
एक जड़ हूँ बगीचे में, या गुंचों में है जगह.
किन खुशबुओं में ख़ाक हूँ, किस रंग में फ़ना,
मैं हूँ यहाँ, या चुक गया, दफ़ना हूँ किस सतह.
या शाम का भूला हूँ, सो भटका हूँ रात भर,
तारो भला बतला तो दो, आएगी कब सुबह.
क्यों धूप में ठंडा हुआ, जल में जला हूँ क्यों,
हर ओर समंदर, तो क्यों, प्यासा हूँ तह-ब-तह.
ना बोलती हैं मछलियां, क्यों बोलती नहीं,
चुपचाप तैरती हैं, ये रहती हैं किस तरह.
इस खेल में देरी हुई, मुश्किल थी, माफ कर,
ना जानता किस मात में, किसने कहा था शह.
लगता यूं गम मसरूफ़ हैं,रूमानी किताब में,
लो चुप हुआ बस हो गई, बेतार की जिरह.
Apr 8, 2010
भोथरा
लोहा आवाज़ की बुलंदी पर बिखरने में लगा है,
लोहा कागज के कगारों से छितरने में लगा है.
और है तेज़ मुहिम, ईमारतों में लगाने की लोहा,
ये मुआ गोलियों, छुरों, छर्रों में बदलने में लगा है.
लोहे को लिखना नहीं हे महंत,
उसे बाँट देना छोटे छोटे आतातायी हिस्सों में
जैसे वाक्यों को बहस में और शब्दों को ध्वनियों में साधना
उकसाने की धार, तर्क की नोक या मुद्रा कटार में
तेज़ तर्रार अफ़लातूनी परिभाषाओं के साज सिंगार में
पूरे विश्वास से
चोगे में पढ़ी पसंद को गुण-ज्ञान में छांट बाँटना
लोहे से प्रेम नहीं करना हे महंत
गल कर निकल सकता है जैसे पीठ का पराक्रम
शैशव की पाठ्य पुस्तक से निकल भागता है रेत के टीलों में
वहाँ हवा लहरिया लहरें बनाती है
जैसी भी बारिश हो झट गुम हो जाती है
संज्ञाशून्य कोलाहल के अखबार में
हल नहीं बनते, हलाहल फैलते है जंग में गड़ती कीलों में
लोहे से सावधान हे महंत
विश्राम के समय, इस ज़माने से काला, भुरकुस भरम है,
चूल में चीखता है पुराना चौखट में घुसा है गरम है
तरीके में बसा है बस इतनी मजबूरी है
पुलों नव कलों पाँच तारा ठिकानों में
विकास के सारे संरक्षित परिधानों में
कंक्रीट के पैमानों में
कुछ एक को परदे रखना ही ज़रूरी है
पूछना नहीं लोहे की जड़ हे महंत
डर लगता है नए सवालों के निकल आने में
कोई खासा षडयंत्र रहा होगा जो सभ्यता ने छुपाया है
कहा किसी ने वैदेही की रेखा से चुना
कहीं बड़े सबेरे आँख खुली तो सुना
रगों में नहीं मिलेगा कलरव इन दिनों,
भोथरा
माथे से गिरा, आँख ने टपकाया है
लोहा कागज के कगारों से छितरने में लगा है.
और है तेज़ मुहिम, ईमारतों में लगाने की लोहा,
ये मुआ गोलियों, छुरों, छर्रों में बदलने में लगा है.
लोहे को लिखना नहीं हे महंत,
उसे बाँट देना छोटे छोटे आतातायी हिस्सों में
जैसे वाक्यों को बहस में और शब्दों को ध्वनियों में साधना
उकसाने की धार, तर्क की नोक या मुद्रा कटार में
तेज़ तर्रार अफ़लातूनी परिभाषाओं के साज सिंगार में
पूरे विश्वास से
चोगे में पढ़ी पसंद को गुण-ज्ञान में छांट बाँटना
लोहे से प्रेम नहीं करना हे महंत
गल कर निकल सकता है जैसे पीठ का पराक्रम
शैशव की पाठ्य पुस्तक से निकल भागता है रेत के टीलों में
वहाँ हवा लहरिया लहरें बनाती है
जैसी भी बारिश हो झट गुम हो जाती है
संज्ञाशून्य कोलाहल के अखबार में
हल नहीं बनते, हलाहल फैलते है जंग में गड़ती कीलों में
लोहे से सावधान हे महंत
विश्राम के समय, इस ज़माने से काला, भुरकुस भरम है,
चूल में चीखता है पुराना चौखट में घुसा है गरम है
तरीके में बसा है बस इतनी मजबूरी है
पुलों नव कलों पाँच तारा ठिकानों में
विकास के सारे संरक्षित परिधानों में
कंक्रीट के पैमानों में
कुछ एक को परदे रखना ही ज़रूरी है
पूछना नहीं लोहे की जड़ हे महंत
डर लगता है नए सवालों के निकल आने में
कोई खासा षडयंत्र रहा होगा जो सभ्यता ने छुपाया है
कहा किसी ने वैदेही की रेखा से चुना
कहीं बड़े सबेरे आँख खुली तो सुना
रगों में नहीं मिलेगा कलरव इन दिनों,
भोथरा
माथे से गिरा, आँख ने टपकाया है
Mar 25, 2010
वो जो बस नहीं है देह में ....
..यहीं कहीं है, रहेगा यहीं कहीं स्मृतियों के अवलेह में..
कार्तिक (२ जून २००४- २४ मार्च २००९) के लिए
ओ रे तारे, जहां दूर जाना ज़रा,
सारे तारे-जहां घूम आना ज़रा
दूर से ही वहीं, टिमटिमाना ज़रा,
ओ किरन की कनी, यूं दिखाना ज़रा
वो खुशी आंख से मिल खुली चुल्बुली,
चाहे जैसी कसी जिंदगी से मिली
हर कली मुश्मुशी, छांट लेना खिली,
मुस्कुराहट वही खिलखिलाना ज़रा
शब्द बौने, खिलौने, दवाएं- दुआ,
लाड़, मनुहार, सोना छुआ जो हुआ
ना हुआ इस जहां में जहां का हुआ,
वैसी दुनिया से दुनिया बढ़ाना ज़रा
कहते हैं, बिन दुखों का वो विस्तार है,
जहां से यहां अंत का द्वार है
पार संसार , ज़्यादा सी चमके खुशी
कष्ट कम हों, हो बेहतर ज़माना ज़रा
क्या करें है अकेला तेरा ये सफ़र,
बस तेरा हौसला हम इधर ना उधर
भर के मन से लगाना नया जो मिले,
याद आने की हद याद आना ज़रा
खुद-ब-खुद ना सही याद आना यूंहीं,
खो न पाना पुराना नए में कहीं
ढूंढ लेंगे किसी दिन वो तारे-ज़मीं,
उस जहां में ठिकाना बताना ज़रा
ओ रे तारे..
http://www.youtube.com/watch?v=eL5CZfYeE-o
कार्तिक (२ जून २००४- २४ मार्च २००९) के लिए
ओ रे तारे, जहां दूर जाना ज़रा,
सारे तारे-जहां घूम आना ज़रा
दूर से ही वहीं, टिमटिमाना ज़रा,
ओ किरन की कनी, यूं दिखाना ज़रा
वो खुशी आंख से मिल खुली चुल्बुली,
चाहे जैसी कसी जिंदगी से मिली
हर कली मुश्मुशी, छांट लेना खिली,
मुस्कुराहट वही खिलखिलाना ज़रा
शब्द बौने, खिलौने, दवाएं- दुआ,
लाड़, मनुहार, सोना छुआ जो हुआ
ना हुआ इस जहां में जहां का हुआ,
वैसी दुनिया से दुनिया बढ़ाना ज़रा
कहते हैं, बिन दुखों का वो विस्तार है,
जहां से यहां अंत का द्वार है
पार संसार , ज़्यादा सी चमके खुशी
कष्ट कम हों, हो बेहतर ज़माना ज़रा
क्या करें है अकेला तेरा ये सफ़र,
बस तेरा हौसला हम इधर ना उधर
भर के मन से लगाना नया जो मिले,
याद आने की हद याद आना ज़रा
खुद-ब-खुद ना सही याद आना यूंहीं,
खो न पाना पुराना नए में कहीं
ढूंढ लेंगे किसी दिन वो तारे-ज़मीं,
उस जहां में ठिकाना बताना ज़रा
ओ रे तारे..
http://www.youtube.com/watch?v=eL5CZfYeE-o
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