कह कहे साहब हमारे लाट, कुछ ना झाम करना
बंधु, आईन्दा से, केवल काम के ही काम करना
क्या धरा है? तेज धारा है, समय की है गति दृतमान
शामें शोख, हैं दिन धूम, धरती है नगर परिधान
क्या है देखनी, जो रात-बीती, बात-बीती, बुझ गई
बत्ती जला ले, रोशनी कर, देख बाकी घूमते रंग शान
इस घास पर चलना मना है, पैर को थम थाम रखना
जाम भर कर काम करना, मुंह भरे रम राम रखना
देख ले महाराज कितने काज हल कर चल रहे हैं
नींव से मेहराब तक हर कान सीसे ढल रहे हैं
मूरतों सी सूरतों पर मूंछ आनी रह गई बस
पूंछ की दरकार है, सरकार के ही बल रहे हैं
बलवा बहादुर बंद हैं, वादों में धमका धाम करना
और ज्यादा बोल दें, तो दुश्मनों से साम करना
बल पड़े रस्से, खड़े हो जा रहे, रस्ते बनें हैं
बम निवाला छाप भी, गुलदान में हँसते बनें हैं
फूलते वो जाएंगे, जो योजना के काम सारे
बड़े महंगे नाम नारे, दाम से सस्ते बनें हैं
बिक चुके सब खास, आबादी में सूरत आम रहना
निमिष भर की कल्पना में, कल्प में आवाम रहना
....बंधु, आईन्दा से, केवल काम के ही काम करना
7 comments:
bahut khoob sir achcha laga ye gadbadjhala...sorry badbadjhala...
Good one to read aloud.
Made me smile.
बिक चुके सब खास, आबादी में सूरत आम रहना
निमिष भर की कल्पना में, कल्प में आवाम रहना
....बंधु, आईन्दा से, केवल काम के ही काम करना
ये तो जिंदगी की फिलासफी हो गयी ...
बंधु, आईन्दा से, केवल काम के ही काम करना > जी गांठ बांध ली है बात!
गुरु जी ! ये बस आप के बस का रोग है .... बेहतरीन ... बेहतरीन !!
कथ्य कैसे अपना स्वरूप स्वयं रच लेता है, यह रचना इसका अच्छा उदाहरण है। "कह कहे" उस अट्टहास को भी इंगित करता है जो किसी दूसरी की मजबूरी पर उभर आया हास सामाजिकत्ता के बन्धन वश ढाँक दिया जाता है। शब्द कितने अंतर्बद्ध होते हैं, यह इसी तरह के मुक्त प्रवाह में समझ आता है। जब भी, पर ऐसा ही!
मूरतों सी सूरतों पर मूंछ आनी रह गई बस
पूंछ की दरकार है, सरकार के ही बल रहे हैं
वाह...क्या खूब हड़बड़झाला
यानी बड़बड़झाला अर्थात
गड़बड़झाला है।
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