हर दिन- प्रतिदिन, दिन-ब-दिन
एक सुर, एक लय, एक ताल
कब बाल बराबर बढ़ती है उमर
कब चलते-टहलते-बहलते युग जैसा बस एक पहर
कब एक रुका लम्हा, जैसे अविराम सालों साल
दिन तब दिन, खुश, शायद नाखुश, बहरहाल
दिन हल्के बीतते हैं उस दिन, सब होते आते हैं जिस दिन
वो दिन बीत जाते हैं, बीज जाते हैं कल्प वृक्ष दिन छद्म काल
और कुछ दिन हल्के सधे बिना हल के, वो दिन बरगलाये से भग्न भाल
मिली उंगली के मरोड़, अधखिली बातों के अधलिखे डोर डोर
अजदही स्मृति के अपभ्रंश से चेतन शेष दंश दिन बहुत बहुत कमज़ोर
बर्रे दिन छींट जाते हैं मुक्त पंख कुछ दिन, कुछ बादरद कुछ बेमिसाल
एक दिन उथल पुथल साँस में, एक दिन फूल उगते हैं बांस में,
फाँस के फूले चार दिन हताश दिन, निमिष से मन्वंतर तक कई सौ पचास दिन
एक साथ गिर पड़ते हैं सब दिन, उस दिन तंगहाल
दहन कक्षों से घुसती चली आती है उबाल,
एक दिन में में दो हज़ार रातों की धुंध तत्क्षण/ तत्काल
उधड़ते ध्वस्त दिन भागते दिन, वो दिन या बीहड़ वृहद जाल
दिन जब दिन, दिन पर आते हैं
पीढियाँ बढ़ जाते हैं बड़ी सारी सीढियां एक साँस चढ़ जाते हैं उछाल
हांफते हैं, कांपते हैं
क्या चाह पाते हैं क्या चाह कर भी भांप नहीं पाते हैं कुंद शैवाल
ऊष्मा सत्य की या अवसाद की, दिन किस शाम ठिठुर जाते हैं नौनिहाल
उम्र के दराजों में घुप के पुलिंदे दिन, डर प्रार्थना प्रार्थना और डर के भर के दिन
बोल के चुप के छुप के दिन, और डर और प्रार्थना कर, कुछ तो और कर के दिन
दिन कट कर, काट कर, कात कर, बेबात कर, अब इस छल, इस पल, इस समय प्रवाल
भित्तियां जोड़ फिर जोड़ किस दिन बनाएंगे कुछ दिन बनेंगे कुछ हाल
दिनकर शर के बिंधे कायाप्रवाह दिन, किस दिन ढलेंगे कंधे दिन निढाल
आज इस रात की जात बगैर जमात, कितनी ज्वाल में शीत कितना शीत में ज्वर ज्वाल
3 comments:
कायाप्रवाह होता रहता है धीरे धीरे, पता नहीं चलता है। डाकूमेन्ट्री की तरह जीवन निकल जासा है।
First थकान कथान and then कायाप्रवाह .
Seems like a series being written.
Good work.
बहुत खूब! बेहतरीन!
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