सिर्फ़ कोशिश है बस, हर कोशिश में लटक जाती है
एक टक देखने जाता हूँ, मेरी आँख झपक जाती है
और निगाहें भी ग़लत से, किसी दम मिल जो गईं
आईने बन के तो आते है, मुई शक्ल चटख जाती है
फिर अगर चेहरे ही दिखे, उन सब मुखौटों से अलग
पहले पानी में बहे जाते हैं, और लाज भटक जाती है
मेरे पानी के ग़म जुदा है मेरे पानी के गुज़र से
रूह आतिश पे ठहरती है, एक घूँट हलक जाती है
क्या हैं वसीयत के वहम, या के विलायत के करम
ये समझ बूझ के पाने में, चढ़ी नज़्म अटक जाती है
11 comments:
कवि महोदय,
शब्दों का खेल हमेशा की तरह रोचक है,उस पर आख़िरी शेर की ’समझ बूझ ’,समझ आती है।
काव्य साधना जारी रहे।
"आईने बन के तो आते है, मुई शक्ल चटख जाती है।" बड़ी दिलचस्प हकीकत है। मैं अगर समझ पाया हूं (कविता समझने में बड़ा कच्चा हूं) तो मुक्तिबोध ने कला के तीसरे क्षण में इस प्रक्रिया को बड़े विस्तार से लिखा है। बरसों पहले मैंने उनका यह लेख पढ़ा था तो मुझे बेहद साइंटिफिक लगा था।
वैसे, मनीष भाई सचमुच आप बहुत अच्छा लिखते हैं।
पहली दो लाईनें बड़ी पसंद आयी ऐसा लगा कि हमारी बात ही लिख दी, आईने वाली भी उम्दा थी।
ससुर, हमारे तो समझ में महज़ नुक्तेवाली 'फ़िर' आती है?..
कुछ हटके यह ग़ज़ल...
सर पहली बार आपके ब्लॉग पर आया
परिचय ने ध्यान खींचा, एक पत्नी और दो बच्चे
आपकी कविता की तह तक पहुँचने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। और जब कुछ समझ आती है तो संशय बना रहता है कि सही समझ पाए या नहीं ....
आप यूँ ही अगर दम से लिखते रहे....देखिये एक दिन नाम हो जाएगा....
बहुत बढ़िया बंधू...लिखते रहो.
नीरज
बहुत सही है मनीष भाई. सच में अलग-सा है. लेकिन प्रमोद साहब ने सही कहा - नुक्ता़ चुभता है.
'एक टक देखने आता हूँ,
और
मेरी आँख अटक जाती है'
..................
संदीप
और निगाहें भी ग़लत से, किसी दम मिल जो गईं
आईने बन के तो आते है, मुई शक्ल चटख जाती है
bhai vah.ye andaj bahut pasan aaya aapka.
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