Jan 15, 2008

एक कविता लिखने की कविता

चल-चल, निशा की सोच में, मानव जगाले, चल
आ चल, कलम की नोक से, कागज़ जलाले, चल

दीखे दाख हैं दिन भर
खड़े गल्पों के रेती घर
तमन्ना की रसीदें तम
नयन भर मील के पत्थर

पलक भर भूल दुःख जीवन
अरे लिख रागिनी अनमन
कोई बस पढ़ जुड़ा लेगा
तेरे इस मन से अपनापन

द्वार दर खोल दे, खुल-खुल के हंसले, मुस्कुराले, चल
आ चल ... ......

दिन-कर के थके हारे
बसों ट्रेनों से भर पारे
भरे झोले में सच बावन
सम्हारे घर सुपन सारे

बैठ कर साँस भर सुस्ता
अभी काबिल बहुत रस्ता
पोंछ दे भ्रम की पेशानी
सहज जंजीर भर बस्ता

ठहर तब-तक, तनिक शब्दों से अपने, बदल पाले, चल
आ चल ... ......

सरल मसिगंध हो कर बढ़
अगम सम्बन्ध की नव जड़
उमड़ गढ़ स्वप्न में घन-बन
रचा अल्फाज़ से अंधड़

लिखे धारों में, नावों में
सुप्त बदरंग भावों में
बिछे फाजिल किनारों से
उन्हीं उन सब बहावों में

डुबा दिल, दम लगा, दम ख़म बढ़ा, मन आजमा ले, चल
आ चल ... ......

13 comments:

Unknown said...

इस कविता के ’शब्द रोशनी वाले’ (यह आज ही एक कविता में पढा़) जिनको इस बादलों ढ़के दिन पढ़ना और भी अच्छा लगा।

रजनी भार्गव said...

सरल मसिगंध हो कर बढ़
अगम सम्बन्ध की नव जड़
उमड़ गढ़ स्वप्न में घन-बन
रचा अल्फाज़ से अंधड़.
बहुत अच्छी लगी ये पंक्तियाँ.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मनीष भाई ,

आपने काव्य कला विरासत में पायी है --

सुन्दर शब्द और भाव --

मीनाक्षी said...

उमड़ गढ़ स्वप्न में घन-बन
रचा अल्फाज़ से अंधड़
--- बहुत सुन्दर शब्द चित्र... कलम की नोक से कागज़ जले गा तो ज्योति कीट (जुगनू) से शब्द पैदा होकर अन्धकार को नष्ट कर देगे, ऐसा भाव अनुभव होता है...

पारुल "पुखराज" said...

लयात्मक पंक्तियाँ……बार बार पढ़ना अच्छा लग रहा है इन्हें

Unknown said...

शब्द दियासलाई से रगड़ते हैं कागज़...
उँगलियाँ भी जल रही हैं..
फैलती आग में सहज...
मिट रहा तम,कुछ हो रहा भस्म

चल-चल, निशा की सोच में, मानव जगाले, चल
आ चल, कलम की नोक से, कागज़ जलाले, चल

कई बार पढ़ती हूँ आपका लिखा....हमेशा।

Yunus Khan said...

अदभुत गीत है मित्र । अगर आप गाते हैं तो इसे गा दीजिए साजों के साथ और अगर नहीं गाते तो जलदी से किसी से गवा दीजिए । शानदार है ।

Manish Kumar said...

भाई आपका काव्य लेखन मुग्ध कर देता है..बहुत सुंदर

अमिताभ मीत said...

मनीष भाई, कमाल है सर. बहुत ही उम्दा.
The poetic maturity is so obvious that it almost strikes a bit too hard at places.
छा गए हैं मालिक. शुक्रिया.

अनिल रघुराज said...

जोशिम भाई, मुझे कविताओं और गीतों की ज्यादा समझ नहीं है। लेकिन मेरे एक मित्र डंके की चोट पर कहते हैं कि आप में गुलज़ार को टक्कर देने की क्षमता है। खासकर वे आपके गीत- आओ चलो बादल को खो आएं.. के जबरदस्त मुरीद हो गए हैं।

anuradha srivastav said...

पलक भर भूल दुःख जीवन
अरे लिख रागिनी अनमन
कोई बस पढ़ जुड़ा लेगा
तेरे इस मन से अपनापन
ये पंक्तियाँ खासकर अच्छी लगी। मनीष ,आपकी रचना में कुछ तो ऐसा है जो बाँधता है।

dr.shrikrishna raut said...

मनीषजी,
...आ चल, कलम की नोक से, कागज़ जलाले, चल...

पलक भर भूल दुःख जीवन
अरे लिख रागिनी अनमन
कोई बस पढ़ जुड़ा लेगा
तेरे इस मन से अपनापन...

पढकर
इन पंक्तियो को
गीत और गीतकार से
जुडा अपनापन

आस्तीन का अजगर said...

साफ लग रहा है की लिखने में आपको मज़ा आ रहा है और पढ़ने में हम सबको... बड़ी बात ये है कि इतने दिनों तक मन या जहाँ भी मसोस कर रखे गए ये शब्द, उनके अर्थ और उनकी लय आज अपने आकाश को उपलब्ध हुयी हैं तो ताजादम और करीने से. दूसरी ये कि तुक की शर्त पर चलने में वसंत का अंत हाहंत से नहीं हो रहा. और कितने सारे शब्द सरौतों और सिलाई मशीन- क्रोशिये की तरह हमारे प्रचलन से गायब होने के बाद फ़िर प्रकट हो रहे हैं.