Jan 18, 2008

घुमक्कड़नामा -शून्य

टहलते,टहलते, गमक गुनगुनाते, रास्ते चमकते, चमक रूठ जाते
लरजते बरजते, खयालों में आते, रातों में छपते, छपक टूट जाते

बहानों से किस्से, गुमानों के मंज़र
तरीके बदलते रहे ख़ास अवसर
सलीके सुलझते अगर चैन पाते
वहीं आ गए इस सहर, घूमफिरकर

रिझाते ज़हन को कहीं थाम छाते, जहाँ बारिशों के से परिणाम आते,
अगरचे-मगरचे पहर भूल जाते, कमर कस के साथों में गोता लगाते

कहीं झाड़ झंखाड़ रखते बसाते,
वहाँ बाग़ बागों कनातें बिछाते
खटोले जगा कर, किताबें सजा कर
अकस्मात चलने के वाहन बनाते

करीने से बक्से में कपडे तहाते, ताले की चाभी गले में झुलाते
हथेली उठा कर, हवा में घुमाकर, अकल से सफर के बहाने बजाते

कम-सख्त मौसम, कहाँ रोक पाए
चलते चले बात बोले बुलाये
जहाँ भी रुके, वक्त छोटे हुए
वहां कुछ नए और सम्बन्ध आए

बगल के मकानों की घंटी बजाते, मुसकते नमस्कार कहते कहाते
तलब रोज़ रफ़्तार फ़िर ताक धरते, थिरकते थकाते शराफत उठाते

धड़कते कंगूरों में जगते धतूरे
काहिल, कलंदर, जाहिल, जमूरे
बड़े नाम कामों के स्वेटर बनाते
पड़े ख़त किताबत रहे सब अधूरे

किसी नाम अपनी पिनक दिल लगाते, कहीं बोतलों में खटक बैठ जाते
सरी शाम रोशन मजारों से तपकर, उमस दिल्लगी की पसीने बहाते


उपसंहार : (१) इस पोस्ट का जन्म मनीष के ब्लॉग ( http://ek-shaam-mere-naam।blogspot.com/2008/01/blog-post_15.html) में टिपियाने के दौरान हुआ (२) बहुत मन था कि " जेबों में चिल्लर खनकते बजाते,..." प्रयोग करूं लेकिन वो यूनुस का कॉपी-राईट है इसलिए फिर कभी (३) पिछली पोस्ट की हौसलाअफजाई सर आंखों पर

19 comments:

अजित वडनेरकर said...

जहाँ भी रुके, वक्त छोटे हुए
वहां कुछ नए और सम्बन्ध आए
पढ़कर लगा बेसाख्ता वाह, वाह , वाह कहता चला जाऊँ। क्या खूब लिखा है । लफ्ज खनक रहे है , शब्दों में क्या खिलंदड़ापन है, रवानी की कुछ न पूछिये ये वही रवानी है जो मुझे भवानी भाई की कविताओं में नज़र आई और मस्ती भी वही।
बहुत दिनों बाद खुलकर कोई कविता पढ़ी।
बधाई बधाई बधाई।

मस्तममस्त चुस्तियाना साहिब
चुस्तमचुस्त मस्तियाना साहिब

शुक्रिया...

Unknown said...

मज़ा आ गया ।
यह कविता पूरे परिवार को पढकर सुनाई गयी।
आपका लिखा पढ़ कर हमारे पास विशेषण कम पड़ते जा रहे है और आप नित नये अल्फ़ाज़, शब्दकोष में जोड़ते जा रहे हैं।

अनिल रघुराज said...

इस पर तो कोरस बनना चाहिए। वैसे इस लाइन में...
करीने से बक्से में कपडे तहाते, नौ ताले की चाभी गले में झुलाते
नौ शब्द लयताल में कुछ खटक रहा है। पता नहीं आप बेहतर समझेंगे।

Pratyaksha said...

गज़ब गज़ब ! जेबों में चिल्लर चाहे न खनकें लफ्ज़ मस्तचाल बहक तो रहे हैं !

anuradha srivastav said...

वाह........ वाह इससे ज्यादा तारीफ के लिये अल्फाज़ कम है।

काकेश said...

मजा आगया जी. मस्त कविता.

भोजवानी said...

अंडस्संड-उडंड रटि
ढाल्लत ब्रांडी ब्रांड
अक्क-बक्क झक्कत झड़क्क
प्रकट्यौ पुत्र प्रचंड...
चंडचंड
करि खंड-खंड
उरकस्सि पकड़ि धर
पग्गगति गुड़गब्ब...
अर्थात मस्तममस्त चुस्तियाना साहिब

Poonam Misra said...

वाह भैइ वाह्. अन्दाज़ भी है ,अल्फ़ाज़ भी है और जज़्बात भी .कया बात है !

mamta said...

बहुत खूब !!

मीनाक्षी said...

बहुत खूब ...लगता है जैसे एक एक शब्द..सिक्के सा खनखनाता हुआ दिल के फर्श पर गिरा और घुमक्कड़ सा घूमने लगा हो गोल गोल...!

Tarun said...

Manish, gamak ka kya matlab hota hai. Aapki ye kavita parkar woh bachpan me pari woh kavita yaad aa gayi, jo kuch is terah se thi kanak kanak te sune gune...

jabardast

Yunus Khan said...

मनीष भाई जी करता है हाथ चूम लूं ।
एक एक शब्‍द मन पर छप गया है ।
और हां ये हमारा मनपसंद जुमला भले हो--'छुट्टे पैसों की तरह बजते लम्‍हे' पर कॉपी ऑपी राईट नहीं है मित्र । आपकी कविता में आता तो हमें खुशी होती । आपके ब्‍लागिंग में होने से एक नया रंग आ गया है हमारी जिंदगी में

dr.shrikrishna raut said...

भाई मनीषजी,
आपकी कविता सिर्फ दिखती नही,
अच्छी खासी सुनायी पडती है।
शब्दो से खनकता संगीत
आँखो से कानो का काम करवाता है।
और हृदय बेचारा बन जाता है -
कभी आँख,
कभी कान।

आस्तीन का अजगर said...

कवि इस कविता में बहुत कुछ वह कह रहा है जो उसने जिया और वह भी जो जीते जीते रह गया कही मासूमियत और कहीं लिहाज़ में. पर ये जो क्वेस्ट है वह इसलिए भी दिलचस्प है की कवि इस सफर से गुजरते हुए पास के दृश्यों को रजिस्टर भी करता रहा. एक उतावले कौतुक के साथ जैसे हम बस की खिड़की से एक नए शहर और घर की खिड़की से नए पड़ोसी को देखते हैं. और इसमे वह कौतुक एक दार्शनिक नोस्टेल्जिया की तरह महसूस होता है. :-))

Prabhakar Pandey said...

वाह, वाह, वाह। शानदार। लाजवाब।

Unknown said...

चहकते,विचरते,बादल पर उतरते बिखरते,सिमटते,ठिठुर कर खिसकते
निचुड़ते,सिंकुड़ते,छलकते,बरसते
भीगे हुए नमी को तरसते

झरने सा झर झर,मझदार का डर
बवंडर समंदर साहिल किस डगर पर
कहाँ आकर अपने ही घर लौट पाते
निमिष एक पाते अपने पहर पर

मज़ा आया पढ़कर...एकदम मस्त!!

Sandeep Singh said...

...'छई छप छई छपाक छई, पानियों पे छींटे उड़ाती हुई लड़की'या फिर 'तेरी कमर के बल पे नदी मुड़ा करती हो, हंसी तेरी सुन सुन के फसल पका करती हो'गुलज़ार का ये बेफिक्रापन महज आपमें दिखा। अभी कुछ दिनों पहले अनिल रघुराज जी से बातचीत के दौरान ये बात कही भी थी। पता नहीं गुलज़ार आपको कितना पसंद हैं। हां मुझे जरूर बेहद पसंद हैं। आपकी 'बैनिआहपीनाला 'में भी भाव प्रवणता का इंद्रधनुषी रंग देखते ही बनता है। घुमक्कड़नामा के लिए बहुत-बहुत बधाई।

Manish Kumar said...

आपको पढ़ना हमेशा ही सुखद अनुभव रहता है। यूं ही लिखते रहें।

महेंद्र मिश्र said...

मॊज है जैसा कि तुमने कहा इमेल में...ये लिया और वो लिया और फ़िर ये भी ले लिया..जब खूब सारा हो गया तो डाला एक ड्ब्बे में और बजा डाला..खूब....लगता है कि ऊपर वाला भी कुछ ऐसे ही बना डालता है, इतना रंग बिरंगा..जियो.