Feb 17, 2008

कोट-पीस दफ्तरी


[ उर्फ़ नौकरी की छनी खीज - - दोस्तों के शब्दों में - नग़्मा- ए- ग़म-ए-रोज़गार ]

कमख़्वाब नींद, कमनज़र ख़्वाब, डर मुंह्जबानी
ऊबे निश्वास, भटके विश्वास, उफ़ किस्से-कहानी

सुबह होड़-दौड़, शाम आग-भाग, कौतुकी खट राग,
मृगया मशक्कत, दीवानी कसरत, धौंस पहलवानी

कूद-कूद ढाई घर, बैठ सवा तीन, बिसात रंगीन
मग़ज़ घोर शोर, रीढ़ कमज़ोर, गुज़र-नौजवानी

फा़ईल खींच-खांच, नोटशीट तान, फ़र्शी गुन गान
रग-रग पे खून, खालिस नून-चून, रंग साफ़-पानी

नमश्कार-पुरश्कार, आदाब-अस्सलाम, सादर-परनाम
ठस आलमपनाह, हुकुम बादशाह, चिड़ी की रानी

15 comments:

Tarun said...

मनीष दाज्यू, सच कहूँ तो इस कविता में मेरी कुछ समझ नही आया लेकिन जिस तरह से शब्दों को आपने बांधा वो पढ़ने में खूब मजा आया, पढ़ने में संगीमय भी लगी।

Udan Tashtari said...

फा़ईल खींच-खांच, नोटशीट तान, फ़र्शी गुन गान
रग-रग पे खून, खालिस नून-चून, रंग साफ़-पानी


-बेहतरीन!!

ghughutibasuti said...

मैं भी तरुण से सहमत हूँ जोश्ज्यू !
घुघूती बासूती

Unknown said...

तरुण/ घुघूती - आठ से आठ की नौकरी की छनी खीज है / - और कुछ नहीं - मनीष

Yunus Khan said...

सुंदर है मनीष भाई । आपकी भाषा और आपके मुहावरे । जमे रहिए । थोड़ी देर लगे तो भी । हम दूर तक चलेंगे आपके साथ ।

पारुल "पुखराज" said...

bhaut khuub..ek ek shabd zindagi ki uthha-patak spasht kar rahaa hai...

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

सारी कविता,
कलाबाजियाँ करती हुई
एक शब्द को
उजागर कर गयी जो लिखा ही नही गया !! :-)

यही तो है, करामात कविता का !! बहुत खूब !

और हाँ, वो शब्द था -"नौकरी या चाकरी या गुजराती का शब्द= मजूरी " :-)

Unknown said...

खीज ही लगी....कविता शायद इसके बाद....।

नितिन | Nitin Vyas said...

खीज हो या कविता, ये ही है ८ से ८ की असल कहानी!!

मनीषा पांडे said...

ओह, अपने सिर के बाल नोचने का मन कर रहा है। सिर पर उल्‍टी झाडू की तरह खड़े हो गए हैं,सारे-के-सारे......

Pratyaksha said...

दफ्तरी आलम , ऐसी कुश्ती । फिर आराम के वक्त ? कितने खेल ? इंतज़ार है ।

Unknown said...

कवि महोदय: क्या खू़ब कविता लिखी है आपनें: मानों लाल मिर्च भूननें की खुशबू आ रही है।
यह मृगया मशक्कत और चीड़ की रानी... ज़िंदगी के सच.. कविता की शक्ल एक नया रूप दिखाते हैं।

Shiv said...

मनीष भाई,

बहुत खूब...कमाल का लिखते हैं...

दाएं हाथ टोस्ट, बायें में शू-लेश, कैसी परेशानी
गाड़ी का हार्न, फ्लेक्स वाला कॉर्न, दूध संग पानी

भूलें रुमाल, ज़िंदगी बेहाल, मुश्किलें सयानी
एमआई रिपोर्ट, सबार्डिनेट-सपोर्ट, मुश्किल है पानी

पुनश्च: अंगूठे की चिंता मत किया करिये.......:-)

चंद्रभूषण said...

दमदार कविता है। प्रयोगों से ही बात बनेगी। शिवकुमार मिश्र की 'तरह' भी अच्छी है।

अभिनव said...

बेहतरीन भाई वाह.. मनीष भाईसाहब इधर काफ़ी दिनों के बाद आज नेट पर बैठने का अवसर मिला है. आपकी अनेक कवितायेँ पढीं, सबमें कुछ ख़ास है, कुछ अलग है. पढ़ते पढ़ते जब इस कविता पर पहुँचा तो बिना टिपण्णी लिखे आगे नही बढ़ पाया. बहुत बढ़िया कविता लिखी है आपने, बड़ी प्रेरणादायक, :) इसको पढ़कर लगा की कुछ ऐसा लिखा जाए तो बात बने.