[याने अफसाना नंबर दो ; उर्फ़ जहाज का पंछी; उर्फ़ घुमक्कड़नामा - एक]
क्या किया? क्या ना किया?, किस भीड़ से कथनी निकाली
क्यों थमे? कब चल पड़े? बहते बसर, सैलाब से अटकल मिलाली
कुछ इस तरह बस्तों ने शब्दों से वफ़ा ली
इतने इलाके घूम-चक्कर
बैठ घर दम फूलता
प्रतिरोध का ऊबा लड़कपन
पोस्टरों सा झूलता
हाँ दबदबा दब सा गया
जब लीक में बूड़े महल
पर शोर डूबे हैं नहीं
तैयार हैं, जब हो पहल
बेढब सफ़ों में मिर्च डाली, हो सका जितना नयी कोशिश निकाली
इंतजारों में खलल की फिक्र फेंकी, चुहल में कदमों से दो मंजिल जुड़ाली
हाँ इस तरह ......
यारों की भी, थी सूरतें,
ईमारतें रहमो करम
पर भागते कांटे रहे
भरते भरे बोरों शरम
कुछ भरम छूटे हाथ रूठे
किस्मतें घुलती रहीं
आवारगी आंखों की जानिब
उम्र संग ढलती रहीं
जिस आँख से चकमक मिले, उनकी पकड़ धक्-धक् सम्हाली,
कुछ मौन से, कुछ फोन से, बतझड़ भरे, रहबर मिली होली-दिवाली
हाँ इस तरह ......
सब खोह में मौसम न थे ,
कुछ काम भटके जाप थे
ताने सुने बाने बुने
हिस्सों में बंट कुछ शाप थे
कुछ रंग कुछ जोबन करा
कुछ झाड़ डैने छुप धरा
छौंके हुए अफ़सोस ने
कायम सा कुछ रोगन भरा
हिम्मत भी जैसी जस मिली, वो हौसलों में नींव डाली
ताली-दे-ताली पैर पटके, ढोल पीटे, हिनहिना सीटी बजा ली
हाँ इस तरह ......
16 comments:
कुछ भरम छूटे हाथ रूठे
किस्मतें घुलती रहीं
आवारगी आंखों की जानिब
उम्र संग ढलती रहीं
शानदार! जानदार! धारदार!
कमाल कर दिया सर, लिखकर
Boss this is crazy. Just too good.
शिव भाई ने बिल्कुल सही कहा - "कमाल कर दिया ......" .... यकी़नन बस कमाल ही है मनीष भाई, सोच रहा हूँ ये क्या .., कैसे ...
सच कहा है :
कुछ भरम छूटे हाथ रूठे
किस्मतें घुलती रहीं
आवारगी आंखों की जानिब
उम्र संग ढलती रहीं
अच्छा है, बहुत अच्छा।
एक बात और, आप ये अपने ब्लॉग से वर्ड वेरिफिकेशन वाला ऑप्शन हटा दीजिए। बड़ी मुसीबत हो जाती है, ओ जी एच के एक्स एस टी सी देखते और टीपते हुए....
भाई मनीष
क्या बात है वाह..भाई वाह...नए शब्द नए बिम्ब नया अंदाज़...आप तो गुरु हैं...बहुत सुंदर रचना.
नीरज
bahut badhiyaa....2-3 baar to padh hi lii ab tak.....
पारुल की तरह हमने भी दो तीन बार पढ़ा और जाना...सच में आपको शब्दों से वफा लेनी आती है... बहुत सुन्दर रूप में...!
सच ! इस तरह .. ?
क्या कहूँ...लाजवाब !!
क्या कहूं.. बेजी ने फिर यहां मेरे कमेंट की चोरी की है?..
इन औरतों को कोई समझायेगा? या ये औरतें मुझे समझायेंगी?..
कुछ भरम छूटे हाथ रूठे
किस्मतें घुलती रहीं
आवारगी आंखों की जानिब
उम्र संग ढलती रहीं.....
'हां इस तरह'
क्या करूं देर आने की कीमत चुकानी ही पड़ती है।इस बार भी खुद का मूल किसी और के समूल में नज़र आया।तारीफ में क्या कहूं जी करता है अड्ड-मड्ड-गड्ड कुछ भी लिखता जाऊं...काश मनीष भाई शब्दों की थाती पर कुछ कह पाता...?
चंबल के बीहड़ों में किसी तेज रेलगाड़ी की तरह घूमती, धड़धड़ाती हुई कविता गुजरती है। छंद की रवानी कभी सोच को अनजाने मुकामों तक ले जाती है तो कभी गुलेल की तरह अर्थ को ही ले उड़ती है। सुनने के बाद देर तक दिमाग में झनझनाहट बनी रह जाती है। इस रंग की कविता को पढ़ने की आदत डालनी पड़ेगी, उसके बाद ही इसके मोटिफ पकड़ में आएंगे। इतना तो तय है कि है यह कविता ही- इसके मोटिफ किसी की समझ में आएं तो भी और न आएं तो भी।
चंदूभाई की कही ही ज्यादा सही लगती है। लाजवाब है आपकी कविताई।
‘इतने इलाके घूम-चक्कर
बैठ घर दम फूलता
प्रतिरोध का ऊबा लड़कपन
पोस्टरों सा झूलता’
क्या बात है।
यह कविता तो वाक़ई वबाल है!
जिस आँख से चकमक मिले, उनकी पकड़ धक्-धक् सम्हाली,
कुछ मौन से, कुछ फोन से, बतझड़ भरे, रहबर मिली होली-दिवाली
हाँ इस तरह ......
आज आपको पढ़कर बहुत बढ़िया लगा.. सुंदर तम रचना.. बधाई स्वीकार करे
कुछ रंग कुछ जोबन करा
कुछ झाड़ डैने छुप धरा
छौंके हुए अफ़सोस ने
कायम सा कुछ रोगन भरा
हिम्मत भी जैसी जस मिली, वो हौसलों में नींव डाली
ताली-दे-ताली पैर पटके, ढोल पीटे, हिनहिना सीटी बजा ली
हाँ इस तरह ......
bahut khoo lajavab.....
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