[ देखें - कौन पुल सा थरथराता है ?]
क्रांतिपथ के थे पथिक, जो श्रृंखलाओं में जड़े हैं
अब कहाँ जाएँ सनम, मजबूरियों के स्वर चढ़े हैं
युगों जैसे साल बीते,
भंवर से जंजाल जीते,
अव्वलों की प्रीत बोते,
परीक्षा के पात्र रीते,
भर गए जब सब्र प्याले, बुत मशीनों में गढ़े हैं
और हैं विद्रूप के प्रतिरूप, कल भर कर लड़े हैं
उजला दमकता वर्ग है,
साधन में सुख उपसर्ग है,
इतना सरल रुकना नहीं,
बस दो कदम पर स्वर्ग है,
कैसे तजें संभावना, संन्यास में तो दिन बड़े हैं
भोज भाषण बाजियाँ, सरगर्मियों के घर खड़े हैं
क्यों रुकें? क्या इसलिए,
संवेदना ना मार डाले,
काश राखों के ह्रदय में,
दिल जलें तो हों उजाले,
ऐसा नहीं होगा, तिमिर ने जेब में जेवर पढ़े हैं
स्वप्न भ्रंशों में मिले हैं, पात पर पत्थर पड़े हैं
क्रांतिपथ के थे पथिक.......
[अब न रोएँ - उदास भी न होएं - क्या होएं ?]
स्पष्टीकरण -
(१ ) यहाँ "कल" से आशय आज और कल वाले कल से नहीं बल्कि कल-पुर्जे वाले चलते पुर्जे "कल" से है ;
(२ ) इसका मुखड़ा पचीस -तीस साल पुराना घर घुस्सू पड़ा रहा है [ शायद चाणक्य सेन की मुख्य मंत्री या मन्नू भंडारी की महाभोज के बाद का] - कविता कल शाम- रात में खुली -
(३ ) सबेरे पांडे जी ने दो अचंभित करने वाली कविताएँ पढ़ाईं - (http://kabaadkhaana।blogspot.com/2008/02/blog-post_26.html; http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/02/blog-post_1798.html) पहली पर प्रतिक्रिया - इसी का hangover रहा होगा
(४ ) इसका किसी भी आज-कल की बहस से रत्ती भर ताल्लुक नहीं है - अगर लगता भी हो तो समझें मरीचिका है
(५) इस बार खीज जैसी नहीं लगती, स्वभाव से ज्यादा संयत है
(६ ) बुढौती की कठौती से निकाला मीटर है (http://kataksh.blogspot.com/2008/02/blog-post_25.html) ये कहीं की भी सूंघ हो सकती है - (दिल्ली, भोपाल, पटना लखनऊ, जयपुर, बंगलुरू.... - बम्बई छोड़ कर - उसका पता नहीं - बम्बई में इतना समय है कि नहीं अंतर्देशी / लिफ़ाफ़ा लिख के पता करना है) ;
(७) इतने अधिक स्पष्टीकरण हो गए - पक्का बुढौती की कठौती है
12 comments:
क्रांतिपथ के थे पथिक, जो श्रृंखलाओं में जड़े हैं
अब कहाँ जाएँ सनम, मजबूरियों के स्वर चढ़े हैं
सच की हरी भरी वादी में भटके हुए शुतुर्मुर्गों को कभी मुँह छुपाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। दरअसल वो राजहंस बनने के पहले चरण पर होते हैं।
बस दो कदम पर स्वर्ग है.., क्या बात कही है। कविता और गजल का मिश्रण होती हैं आपकी हर हरी मिर्च
क्यों रुकें? क्या इसलिए,
संवेदना ना मार डाले,
काश राखों के ह्रदय में,
दिल जलें तो हों उजाले,
ज़रा रुकिये....हवा फूँकिये....राख में अंगार हों शायद....उजाले ही जल उठें...
संवेदना की वेदना में फिर एक बार जी उठें...
नहीं जी बिल्कुल कविता है...खीज नहीं है....और बहुत सुंदर कविता है।
बड़ी टेढ़ी यात्रा है, महाराज.. टांड़ में ठंसी किताबों-सी ही टेढ़ी है! ऐसी हिंदी कहां से लाते हैं? और लाकर फिर अपनी ही पिलेट में क्यों लिये रहते हैं? देखिये, इंस्पायर होकर आधे घंटे में हम भी कहीं कविता न लिख बैठें!
क्यों रुकें? क्या इसलिए,
संवेदना ना मार डाले,
काश राखों के ह्रदय में,
दिल जलें तो हों उजाले,
waah...
[अब न रोएँ - उदास भी न होएं ...ye to jiivit honey kii nishaaniyaan hain.....
लेकिन जंगल किधर था ? शायद सब तरफ था ?
कमाल कर देते हैं. कैसे लिखते हैं सर, ऐसा?
(मेरा मतलब यह नहीं कि सबकुछ सर खपा कर लिखा गया है. बल्कि कहना चाहिए कि बिना अगूठे के लिखने की प्रैक्टिस शानदार है...:-)
जो कुछ घरघुस्सू रहा है, सारे का सारा यहां आना ही चाहिय महराजज्यू! बाक़ी आपकी अदा पर तो मीर बाबा कह चुके हैं ना कि:
इस कुदूरत को हम समझते हैं
ढब हैं सब ख़ाक में मिलाने के
यानी मैं भी किसी बहस का हिस्सा नहीं बन रहा. बढ़िया! कबाड़ी ज़ुबान में कहूं "बौफ़्फ़ाइन"
उजला दमकता वर्ग है,
साधन में सुख उपसर्ग है,
इतना सरल रुकना नहीं,
बस दो कदम पर स्वर्ग है,
सचमुच ये दो कदम का फासला। कविता का रसास्वादन करते ही पूरा हो गया। पर मन नहीं भरा, इस सुख की अब लत जो लग गई है।
पूरी कविता पढ़ डाली... नज़र रुकी तो यहाँ.... " बस दो कदम पर स्वर्ग है" सही है.... खूबसूरत कविता..
क्या बात है. ये लिखे जाने की कब से बात जोह रहा था.
क्यों रुकें? क्या इसलिए,
संवेदना ना मार डाले,
काश राखों के ह्रदय में,
दिल जलें तो हों उजाले,
अति सुंदर...
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