May 27, 2008

अटपटे कपाट

पिछले एक महीने के अवकाश के समय जोड़ जोड़ कर लिखी हुई - जब ख़ुद पढ़ा तो लगा कि ईंट / मट्टी वाले चूल्हे में मिटिया की हांडी में खिचड़ी सी पक रही है और आवाज़ आ रही ख़ुद-बुद -ख़ुद-बुद-बुद-बुद -ख़ुद-बुद....

....अभी फिर अनिश्चित कालीन अवकाश - थोड़ा काम आ गया है - जाने से पहले लम्बी कविता ....


उन दिनों.....
बड़े सबेरे अखबार बिकते थे लारीखाने में,
पैदल दौड़ते थे,
बसें पायदानों तक ठूंसी जाती थीं,
हड़बड़ी की घंटियाँ बजाते थे, रिक्शे, दूधवाले और साईकल सवार,
दिन शुरू होते थे दुनिया के जिनके चढ़ते-चढ़ते,
दोपहर तक बस अड्डे में ज़्यादा गाडियाँ नहीं रहती थी,
रहते थे इंतज़ार के मुसाफिर,
अगले कम-ज़ोर हौले-हल्के सफर के
भरम में, या शाम के आने में।
बड़े ग़म तब भी थे ज़माने में।
उन दिनों.....


उन दिनों....
सुफ़ैद के सलेटी पैमाने में,
गलियारों के इसी तरह आने और आ के जाने में,
सौ फीसदी झूठ नहीं मिला,
न मिला सच शत-प्रतिशत,
पहाड़ों में हिमनद टांगें तोड़ पिघलते रहे,
पठारों में जुगनुओं के झुरमुट सवाल सूरज से जलते रहे,
बड़ी रात के आवारा, चाँद को बिताते गए,
सितारों की भीड़ में जवां बरगद, नीड़ तक पगडंडियाँ बनाते, गुल खिलाते गए,
रेत से पतली नदी ने भी चाहा था कैसे पूछ जाना,
कि तुम्हें कोई क्यों "ऐसे" समझा ही नहीं?,
"जैसे" तुमने चाहा कह पाना,
कूट शब्दों में,
उबलते कछारों के मातहत,
दूर का इन्द्रधनुष तब भी सतरंगी था।

कौतूहल, कंपन और क्रोध के बीच समतल में केवड़ा, कनेर और बांस उगने लगे थे।

उन दिनों......
जब आम के बौर फूल कर गए थे बिखर,
महक ही महक में थी भरी दोपहर,
जो भी कुछ कहा जा रहा था, उस पल - उस पहर,
वो सब कहा जा चुका था,
बस पूरा सुना नहीं गया था,
बड़ी नदियाँ खुले आसमान/ मैदान और खट्टे करौंदे
बड़े, खुले और खट्टे होते थे,
हम नवजात कान थे और महफ़िल की सीलन पुरानी नहीं थी,
फल तोड़ने को नहीं निकले थे उस समय,
अपने चश्मों से बाहर,
घाम का लाज़िम इन्तज़ाम नहीं था ।

चौके को लीपने और नित्य के मंजन से फ़ुरसत भी मिलनी चाहिए थी

उन दिनों.......
क्या वही था -जो हुआ था,
या होने वाला था,
होना चाहिए था या हो कर भी नहीं हुआ,
अंगूठी से थान, काली टोपियों से झांकते सफ़ेद कान,
निकलते रहे गोगिया पाशा के गिली-गिली फरमान,
बंद चिरागों में ठूंस कर दिया वरदान, था अनछुआ,
गर्द की जो एक और पर्त थी एक और रोशनदान पर,
उसपर उचकती छोटी उँगलियों की छापें लगी थीं,
बाहर साहस और आस्था जुलूसों में डंटे थे,
आँगन में, मजनू की पसलियों पर जीरा नमक लगा कर,
इत्मीनान हो रहा था ,
मसौदे की तलाश का।

टूटते तारे को दूरबीन से देखने के कार्यक्रमों की रूपरेखा का समय था।

उन दिनों....
खुश के पैबंद और रगड़ के कमरबंद साजे,
ऐसे ही बड़के थे हुए ताज़गी के अकलबंद किस्से,
बुहार कर छाया को ताप के मनमाने, मनचले हिस्से,
कायदे, ताड़ के पेड़, शहतूत के दरख्त, अमरबेलें और शरीफ़े,
लतीफ़े बारी-बारी अपना-अपना महीन बुनते गए,
और चुनते गए ठहाकों की वृत्तियाँ, नाम के बंडल, धमाकों के वजीफ़े
सलेट पर इबारतें लिखी/ मिटाई/ काटपीटी/ बनाई जा रहीं थी,
नेपथ्य में अंगुलियों पर धागे बांधे जा रहे थे,
होने वाला बड़ा मजमा जमने लगा था,
श्रोता और सिपाही अपने अपने मोर्चों पर जाने लगे थे।

परदे उठाने की उम्मीद यूँ थी कि अवतार निकलेंगे जल्द ही इस द्वार से या उस द्वार से।

उन दिनों.....
पैदायशी हिचकियाँ आने लगीं थीं,
ठीक उस वक्त - जब तालियाँ हथेलियों से फिसल रहीं थीं,
मेले में एक बच्चे के खोने की घोषणा हो रही थी,
और मोम के जहाजों के आग का दरया पार की सफल यात्रा पर
जलसे के परचम तन चुके थे ,
इतना सब होने के बावजूद (या कारण?)
क्यों हम बड़े नामों को तब भी खंगाल कर टेर रहे थे?
कलफ करे कुर्तों पर इस्त्री का लोहा फेर रहे थे ,
जब हमें कोई संबल, पुचकार या दिलासा नहीं थे चाहिए,
हम गोदाम को शहर बना आए थे,
रगों की बूंदों को कलम की स्याही में मिला कर ।

ऐसा क्यों लगता था कि अगली पीढियों का आसमान उगा रहे थे हम गरम मेमने?

उन दिनों.....
एक निष्कपट उचाट के साथ रहते-रहते,
सपाट भरी ऊष्मा को भरोसा होता गया था कहते-कहते,
कभी कबीले रंग बदल कर फूलों की क्यारी होंगे
कभी साथ गाड़े सुर स्वलाप के आलापों पर भारी होंगे
और वैसी सारी कसमें टूट कर निकलेंगी गिरफ़्त की बहस से
"क्या करना है" बेहतर होगा "कौन कह रहा है" के सहज से
महज पद्मासन की बपौती पर ध्यान नहीं होंगे,
होंगे नींद से उठकर ठंडे पानी के स्नान, धुंध के अवसान नहीं होंगे,
क्या इसीलिए मल-मल कर धोते गए सादगी और इबादत?
जब अधपकी झपट और न्यायपालिका में हाजिरी लगाते थे,
अंगूठा ऊपर कर / एक बाहर, तीन अन्दर उंगली उठाते थे।

कुछ बड़े सन्दूकों के ताले अभी भी पूरे नहीं खुलते चूलों में फँसे, जंग के चलते।

उन दिनों....
उम्मीद की परिधियों पर चहचहे ,
कागजों के गुड़मुड़ाऐ गोले, सबूत थे गवाह रहे,
उथली ही सही, किसी को, कहीं से, कुछ तो, परवाह कहे,
रेल की पटरियों सा, साथ साथ चलने से,
क्या बेहतर है उन का, एक साथ मिलने से?
मैं क्यों नहीं समझ पाता तुम्हें पूरा? यह समझ पाने की अधूरी कला,
मैं निमित्त था या था देश, काल, प्रबल के प्रवाह में छिना छला?
इन सारे सवालों के महकमे, इफ़रात के दिन रात उकसाएंगे,
धुएँ दुमछ्ल्लों में उछलेंगे, और प्रदूषण में खो जायेंगे,
अगली आबादी में कवायद लगाएंगे, आरामकुर्सी पर थके पैर,
फूटेंगे प्रारम्भ भी संयम की परिणिति में बन कच्चे आम और मीठे बेर,
कहीं न कहीं नए बाँकुरे फिर ज़रूर फूल जाएंगे।

तब भी सीटियाँ गुहार मारेंगी इस मंच को, जब पटकथा में बहुरूपिये सूत्रधार ही रह जाएँगे

..... इन दिनों .....
सच और अपच के दरमियाने में
आलस, आस्था, अचरज और आक्रोश के चूमने चबाने में
नए सुख/नए ग़म और पुराने आनंद के युगल गीत गाने में
समय समाप्त है इस समय, इस कविता को पढने पढ़ाने का,
शायद नहीं, नहीं शायद, इस कविता के उखड़ने उखड़ जाने का ?

..... उन दिनों..... ?
..... इन दिनों .....?

16 comments:

बोधिसत्व said...

अच्छा है...

शायदा said...

वाह.....उन दिनों,
आह.....इन दिनों

अजित वडनेरकर said...

फूटेंगे प्रारम्भ भी संयम की परिणिति में बन कच्चे आम और मीठे बेर,
कहीं न कहीं नए बाँकुरे फिर ज़रूर फूल जाएंगे।


सौ सौ नमन करूं मैं भैया सौ सौ नमन् करूं...
मनीष भाई की जै हो....

Udan Tashtari said...

लम्बी तो लगी ही नहीं अपने बहाव में, बहुत बढ़िया.

Pratyaksha said...

काम और घाम दोनों खत्म हुये ..लगता है

Ashok Pande said...

जेब्बात!

डॉ .अनुराग said...

उन दिनों मे .....आपने छुट्टियों की सारी कसर पूरी कर ली है.... ....

Unknown said...

क्या खू़ब !!
कवि महोदय ,
आपनें ’लारीखानें में बिकते अखबारो’ और ’सितारों की भीड़ में जवां बरगद ’के ज़रिये बचपन के दिनों के रीवां में ही पहुँचा दिया। याद आये वह दिन जब Socialist Party के पर्चे भरनें का काम किया जाता था।

Abhishek Ojha said...

वाह !
छुट्टियों के और संस्मरणों का इंतज़ार रहेगा.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

एक भरापूरा केन्वास !
..पढकर मज़ा आ गया!
- लावण्या

अमिताभ मीत said...

अरे भाई साहब, हद कर देते हो आप .... अब यहाँ से निकल सकूँ तो कुछ लिखूं न .... वैसे इसी में खोया रहूं कुछ देर तो क्या बुरा है ?? कमाल है भाई ...... You're just too good.

Sandeep Singh said...

सच तो ये है कि तीन दिन पहले भी इस वैचारिक प्रवाह में बहने की कोशिश की थी...पर सारा कुछ इतना तीक्ष्ण और तेज है कि धारा में उतर ही नहीं सका। साथ बहने और विपरीत तैरने की तो बात ही दीगर। आज फिर लौटा लेकिन पढ़ने के बाद इतना ही महसूस कर सका कि बहुत सारा जो हमारे अन्तर्मन में ठंसा सा रहता है, हमें बेचैन किए रहता है जोशिम जी के जरिए उसी ठंसे हुए का विस्फोट हुआ। (रिसाव नहीं)....इस रचना को अभी बहुत बार पढ़ा जाना जारी रहेगा....
अनुज
संदीप

रजनी भार्गव said...

बिल्कुल बचपन की तरह,उभरने का मन ही नहीं करता।

PantSignals said...

wah ustaad...dil o dimag ki yeh awaaz ne mugdh kar diya....ras ko nikalte chalo....Tins

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अच्छी रचना
=============
बधाई
डा.चन्द्रकुमार जैन

Masked Crusader said...

kafi dino baad koi rachna...dil laga ke padhi hai...

dhanyavaad...