मर्म के सब पाँव बोझिल हो चुके हैं
टीस के तलवे तले फटती बिवाई,
रिस गई है रोज़मर्रा रोशनाई,
प्रीत के पद / राज़ अंतर्ध्यान हो कर खो चुके हैं।
योजना की भीड़ में सहमे सफ़े सबहाल,
बेसरपैर बातों के घुले दिन साल,
आदम-काल, बिखरी पीड़ के निर्वाण के पल धो चुके हैं।
चुक गई है, छद्म अन्तर से निरंतर में रुंधी बातों की गिनती,
ढूंढता है प्रश्नचिन्हों में बसी विश्राम धारा ।
कथाहारा....
कथाहारा....
हाँ वही पागल, घुमक्कड़ बचपनों की नीम को जो चाशनी में घोलता था।
अनदिखे खारिज किए उन्माद को, अवसाद को,
तिल-तिल दुखाने के नकाबों को सफ़ों में खोलता था ।
डोलता संकरे पथों में, घाट में, पगडंडियों में,
मोल भावों के बिना, जग जोर जागी मंडियों में,
समर के मैदान ले, सागर / नगर के तट तहों में,
चुन तराशे कथा-किस्से धार-धारा तोलता था ।
बोलता था, गोल मोलों में, कहाँ कैसे रंगीलों ने रंगा,
रंगबाज हाथों से कहाँ, कितनी सलीबों में टंगा,
टाँके लगा कैसे चला, जब लोचनों / आलोचकों ने तीर मारा ।
कथाहारा....
कथाहारा ..
कथन के मूक में मन ढूंढता रहता गया।
लंबे समय से काजलों को जोत से ले,
तर्पणों को स्रोत से ले,
किरमिचों की भीत में भरता गया
खाली गगन में छाँव तारे,
वृन्द में अटके किनारे,
खूंट से खींचे विकल व्याकुल सभी सारे,
सभी के अनकहों की व्यंजना के बाँध ले चलता गया ।
रिसता गया रिमझिम कमंडल, हो गया कृशकाय, स्वर पूछे
कहे ऐ मित्र तुमने क्यों पुकारा ?
कथाहारा ..
कथाहारा ..
कहाँ छूटा सफर में, धुन धुनों में धिन तिना ताना बजाने में ।
विषम बीता, विषय बीते,
विशद से काल क्रम जीते, बहाने में
तमन्नाएं उड़ीं, यूँ बाज बन, गाने बने रोदन छुपाने में
पुराने दिन, उन्हीं के अटपटे संवाद,
पुस्तक में दबे सिकुड़े पड़े प्रतिवाद
सूखे-फूल सुख में दुःख गए सन्दर्भ के अपवाद,
बचे कितने दिखेंगे दृश्य-छिलके, लौट आने में ।
मगर लौटे - जहाँ हिचके, कभी झिझके, कहीं कर्तव्य आड़े हैं,
सुलभ की वर्तनी दूषित मिली, सामर्थ्य के चंहु ओर बाड़े हैं,
कभी बेमन रहा, बेखुद कहीं, विन्यास का गारा ।
कथाहारा....
कथाहारा....
सिफ़र है यूँ कहाँ बांचे पुराने खोखले विश्वास ।
इस दम खांसते हैं बम,
फटे शोधों के घटनाक्रम
सफल हैं वन, विहंगम वर्जना के मुंहलगे कटु हास ।
घृणा के घोर से सिंचित
कटे आमों को जीमे जो महामंडित
खिंचे खानों में खंडित
है सियासत, सरफिरे हैं दीन दाता, रंग करे हैं धर्म से इतिहास।
है विगत मनु वेदना, ऐसे समय सम भाव की बातें लगे हैं बेतुकी, बेकार,
बेमतलब सरायें हैं बनी प्रतिशोध के आगार,
शायद है यही, अतिहास की कारा
कथाहारा....
थकाहारा....
आप सब के लिए :- दो महीने का समय अपने युग में खासा होता है - इतने अंतराल के बाद भी आप सब जो झाँक जाते हैं, पसंदों में शरीक करते हैं, उस प्रोत्साहन के बड़े माने हैं- पिछले दिनों जैसा कह रहा था उलझ के ज्वर जाल खासे थे - खैर ये सब तो जीने के रंग हैं - अभी प्रयास है नियमित होने का यदि नियति की नेमत रहे - सस्नेह - मनीष
24 comments:
और लगता है खड़े हम बिन सहारे
पांव के नीचे बिछी जो थी जमीं वह खो गई है
और वह इक मुट्ठियों से रिस रही थी धूप संग में
एक बदली की समाधि पर खड़ी हो रो गई है
और वे पन्ने लिखा जिनमें हुआ था
गुनगुनाते से हुए जो एक क्षण में ढल गया था
उस सुनहरे बाल पन का वह अधूरा सा रहा अध्याय
वे भी, उड़ गये हैं अब हवा मैं
शेष केवल मैं रहा हूँ और मेरी लेखनी की
ये अजानी सी सहज अनुभूतियां हैं
कुछ रचनायें अपने आप लिखने को मज़बूर करती हैं. साधुवाद
इतनी मुद्दत बाद मिले हो, किन सोचों में गुम रहते हो...
कविता ध्यान से नहीं पढ़ीं। अभी तो वापसी की खुशी का इजहार कर रहा हूं। बस...
बहुत खूब बंधुवर । बहुत दिनों बाद कुछ उम्दा पढ़ा ।
कथाहारा की कथा तो बेहद लय में बांध दी आपने,
अब अगली गाथा किसकी ?
कविता से उठती आस्था को दोबारा जमा देने वाले आप जैसे इक्का-दुक्का ही हैं. आपका आभार कि आप हिंदी के नामी कवि नहीं हैं. और लिखिए, हम पढेंगे.
बहुत खूब !!विशेषकर यह पंक्तियाँ :
मगर लौटे - जहाँ हिचके, कभी झिझके, कहीं कर्तव्य आड़े हैं,
सुलभ की वर्तनी दूषित मिली, सामर्थ्य के चंहु ओर बाड़े हैं,
कभी बेमन रहा, बेखुद कहीं, विन्यास का गारा ।
कथाहारा....
कित हो गुरुदेव ? कथाहरा ? और आते आते ही हंगामा बरपा दिया.
क्या बात है मनीष भाई. बहुत दिनों बाद इस typical "Manish-Brand" उत्कृष्टता का स्वागत है.
मगर लौटे - जहाँ हिचके, कभी झिझके, कहीं कर्तव्य आड़े हैं,
सुलभ की वर्तनी दूषित मिली, सामर्थ्य के चंहु ओर बाड़े हैं,
कभी बेमन रहा, बेखुद कहीं, विन्यास का गारा ।
कथाहारा....
वाह ! दरअसल आप को बिना कई बार पढ़े कुछ लिख पाने कि अवस्था में आ नहीं पाता. (मंदबुद्धि हूँ, क्या करूं)
खुशआमदीद !
मगर लौटे - जहाँ हिचके, कभी झिझके, कहीं कर्तव्य आड़े हैं,
सुलभ की वर्तनी दूषित मिली, सामर्थ्य के चंहु ओर बाड़े हैं,
कभी बेमन रहा, बेखुद कहीं, विन्यास का गारा ।
बहुत प्रभावशाली रचना....
सिफ़र है यूँ कहाँ बांचे पुराने खोखले विश्वास ।
इस दम खांसते हैं बम,
फटे शोधों के घटनाक्रम
सफल हैं वन, विहंगम वर्जना के मुंहलगे कटु हास ।
घृणा के घोर से सिंचित
कटे आमों को जीमे जो महामंडित
खिंचे खानों में खंडित
बीच में समय मिला तो झांकर देखा
....आपकी खिड़की पर अटक गया ....गौर से कुछ वक़्त बिताया ....ओर धीरे धीरे पढ़ा..ये पंक्तिया मन में घर गयी,जानता हूँ मसरूफियत ने आपको पकड़े रखा .ओर इस दौरान आप उलझे रहे पर ऐसा लगा जैसे यहाँ कुछ उकेर दिया है आपने इस दौरान जो महसूस किया ..
देर लगी आने में तुम को , शुक्र है फ़िर भी आए तो
आस ने दिल का साथ ना छोड़ा, वैसे हम घबराए तो
मनीष भाई
लाजवाब शब्दों का जखीरा लेकर आप आए सुस्वागतम...कमाल की रचना पेश की...भाई वाह.... थोड़े दिन आपने जयपुर में गुजारे हैं ना ये उसी का असर है.
नीरज
कथाहारा....
हाँ वही पागल, घुमक्कड़ बचपनों की नीम को जो चाशनी में घोलता था।
अनदिखे खारिज किए उन्माद को, अवसाद को,
तिल-तिल दुखाने के नकाबों को सफ़ों में खोलता था ।
डोलता संकरे पथों में, घाट में, पगडंडियों में,
मोल भावों के बिना, जग जोर जागी मंडियों में,
समर के मैदान ले, सागर / नगर के तट तहों में,
चुन तराशे कथा-किस्से धार-धारा तोलता था ।
बोलता था, गोल मोलों में, कहाँ कैसे रंगीलों ने रंगा,
रंगबाज हाथों से कहाँ, कितनी सलीबों में टंगा,
टाँके लगा कैसे चला, जब लोचनों / आलोचकों ने तीर मारा ।
कथाहारा....
अद्भुत....बहुत उम्दा... बेहतरीन.
कथाहारा ... या ... थकाहारा ... या फिर सर्वहारा?
उम्दा है साब!
ओह, मैं कथाहारा में अपने को और अपने में कथाहारा तलाशने लगता हूं!
कथाहारा....
थकाहारा....
बहुत सुँदर प्रपात से झरते शब्द,
जल की तरह एकदूजे मेँ गुँथे हुए
कह गये बहुत कुछ, भले ही
होँ वे ,थक थके, अथक चलेँ !:)
- लावण्या
है विगत मनु वेदना, ऐसे समय सम भाव की बातें लगे हैं बेतुकी, बेकार,
बेमतलब सरायें हैं बनी प्रतिशोध के आगार,
शायद है यही, अतिहास की कारा
कथाहारा....
थकाहारा....
बहुत सुंदर, मनीष जी, लिखते रहिये.
कथाहारा
ने बड़ी साफ़गोई से अपनी बात कही
मन की गहराई तो पहुँची है.
क्या लाजवाब शिल्प और कहन पाई है
आपने मनीष भाई.
"सिफ़र है यूँ कहाँ बांचे पुराने खोखले विश्वास ।
इस दम खांसते हैं बम,
फटे शोधों के घटनाक्रम".......
आखिर कहां-कहां नहीं भटका ये थकाहारा-कथाहारा। वैसे तो आपकी कविता में शब्दों का प्रवाह इतना तीब्र होता है कि काल का हर बांध पल भर में खंड-खंड हो जाता है, समूचा शब्द संजाल नज़रों से गुजर जाने के बाद ही सोचने की फुर्सत मिलती है कि क्या कुछ ऐसा भी बचा जो अछूता रहा। जवाब हमेशा मुंह चिढ़ाता....शिल्प के बारे में कहने के लिए इस बार मीत जी के शब्द उधार लेता हूं.."typical Manish-Brand"
anurag ji ke blog par aapke blog ka nidarshan mila aur yahaan aakar is kavita ko padhkar abhibhoot hoon. aapki is kavita padhta gaya aur kathahara ka ek chitra dimaag me ankit hota gaya.
is kavita ke liye badhai.
बहुत सुंदर, नियमित की नेमत बनी रहे यही मंगलकामना है।
aapki har kavita har baar adbhut lagti hai...sabse vilakshan...aapki kavita 2 baar padhne par gehri paith jaati hai
बहुत दिनों बाद लिखी गई बात इतनी गहरी क्यों हो जाती है? कितना सारा सफर है इस कविता में.. जिए का, सोचे का, सुने और गुने का.. हर लिखे के सफर के पीछे एक जिंदगी का सफर होता है.. एक के पीछे से झांकता हुआ, ठिठकता हुआ, छिपता हुआ...
मनीष जी, मेरे ब्लॉग पर आकर लेख को सराहा, आभार।
"शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय / कहे घाघ सुन भड्डरी, बिन बरसे नहिं जाय/"
हमारे कैमूर जिले में भी यही रूप प्रचलित है। मानकीकरण के लिहाज से मैंने देव नारायण द्विवेदी जी की पुस्तक वाले रूप को अपने लेख में अपानाय।
bahut hi khoobsurat evam umda rachna prastut ki hai apne...
मनीष जी..क्या खूब शब्द गढा है और क्या जबरदस्त कविता लिखी है..कायल कर दिया आपने तो..अंतिम दो पंक्तियाँ तो गागर में सागर हैं- "कथाहारा....
थकाहारा....". बहुत-बहुत बधाई मनीष जी.
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