एक पिंजरा, एक बदरी, एक प्याली चाय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय।
खोज में जो भी मिले, या ना मिले, मिल जाय मन,
सब एक सा हो, या नहीं हो, हो तनिक दीवानापन,
मद हो, न हो मद-अंध, बन्दे एक ना हों, साथ हों ,
मादक बहस, विस्तार नभ, चुटकी हो बातों से चुभन।
चार खम्भे, सर्प-रस्सी, सूप के पर्याय,
तर्क हों पर ना मिटें मन, मर्म के अभिप्राय ।
प्रियवर जवाबों में लड़ें, सहयोग के अध्याय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय।
ढूंढ ढक चिट्ठी की मिट्टी, नेह की बारादरी,
नम नफ़ासत से नसीहत, स्वप्न से छितरी परी,
अक्ल के कुछ शोर, पल अलगाव खींची डोर पर,
पल तने बदलाव, पलकें रसभरी की टोकरी ।
इन विविध धनुषों के तीरे, इन्द्र भी शरमाय,
रूपकों को रूप की ही नज़र ना लग जाय ।
बोरियां भर मिर्च मिर्चें धौंक कर समझाय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय ।
...एक पिंजरा, एक बदरी, एक प्याली चाय,
बस हों कई नन्हीं सी बातें भेद में अतिकाय ।
[ऐसे ही]
19 comments:
"चार खम्भे, सर्प-रस्सी, सूप के पर्याय,
तर्क हों पर ना मिटें मन, मर्म के अभिप्राय ।
ढूंढ ढक चिट्ठी की मिट्टी, नेह की बारादरी,
नम नफ़ासत से नसीहत, स्वप्न से छितरी परी,
...एक पिंजरा, एक बदरी, एक प्याली चाय,
बस हों कई नन्हीं सी बातें भेद में अतिकाय "
(पूरी की पूरी कैसे quote कर दूँ ?)
क्या मालिक .. क्या क्या लिखते हो ?? किस मूड में रहते हो ?? ख़ुद पगलाय गए हो कि दुनियाँ कि सुध लेने निकले हो ...
बंद सलाम ठोकता है.
दिलचस्प है यह अंदाज तो।
कैसे तारीफ करें ...
ऐसे लगता है शब्द आपकी कविताओं में पिरोये जाने के लिए आतुर रहते हैं।
बहुत उम्दा, क्या बात है!आनन्द आ गया.
Bahut accha likha hai
बहुत....... खूब.
hamney to bol bol kar padhi..bahut achhey..kya lay hai..
.एक पिंजरा, एक बदरी, एक प्याली चाय,
बस हों कई नन्हीं सी बातें भेद में अतिकाय ।
ऐसे ही ....आप भी बड़ी बड़ी बातें कह जाते है.....पारुल जी सलाह मान हमने भी बोल बोल के पढ़ डाली....सच्ची .....मजा आ गया...ये पंक्तिया हम लिए जा रहे है......
ढूंढ ढक चिट्ठी की मिट्टी, नेह की बारादरी,
नम नफ़ासत से नसीहत, स्वप्न से छितरी परी,
अक्ल के कुछ शोर, पल अलगाव खींची डोर पर,
पल तने बदलाव, पलकें रसभरी की टोकरी ।
मनीष भाई...शब्दों की फुलझडी से दिवाली मानना कोई आप से सीखे...रौशनी ही रौशनी हो गई है...लाजवाब.
नीरज
इन विविध धनुषों के तीरे, इन्द्र भी शरमाय,
रूपकों को रूप की ही नज़र ना लग जाय ।
बोरियां भर मिर्च मिर्चें धौंक कर समझाय,
ढूंढ कर मन ढूंढ लें चल झुंड में समुदाय ।
ताज़ा तरीन कविता !!!
वाह! वाह!
शब्दों की ऐसी जादूगरी कि क्या कहें...बहुत शानदार!
बढियां जोड़ा है; पै आजुकल सवारी का पता लगि नहीं रहा.
रीवाँ में एकठे पत्रकार का कतल होइगाहै.
भास्कर का रहा. कुछू जानिबकारी भा कि नहीं?
और इकठे दुखद समाचार सुनाईथै, बघेली केर महान कवि और आपन शम्भू काकू का मरे दुई महीना ह्वैगा. तेरही मां हमार एकठा मित्र गा रहा. बीच मां कहाँ गए रह्यो यहै पता नहीं चलत रहा.
'तर्क हों पर ना मिटें मन, मर्म के अभिप्राय'
बहुत बढ़िया भाई.
एक शेर अर्ज है-
बड़ी बे-कैफ़ कट रही है हयात
एक मुद्दत से दिल उदास नहीं.
बहुत अच्छा!
अहसास पूरा था कि माह भर का मौन मधुरस बन बरसेगा....
Dajyu,
Aise hi itni bari bari baat keh gaye soch reha hoon agar waise likhte to kya hota ;)
शब्द चुनने की कला तो कोई आपसे सीखे.वाह वाह ! मज़ा आ गया.कोई पंक्ति किसी से कम नहीं पड रही.और हां बोल बोल कर पढने का तो मज़ा ही निराला है.धन्यवाद पारुल और अनुरागजी का.
"ढूंढ कर मन ढूंढ लें
चल झुंड में समुदाय ।"
आशा है,
मन अपना ठौर - ठिकाना ,
पा गया होगा !
बहुत अव्वल दर्जे की बात कह देते हो सहजता से आप मनीष भाई 1
इसी तरह लिखते रहीये और हम दोहराते रहेँ \
स्नेह सहित,
- लावण्या
मीत की बात से सहमत हूं..लेकिन एक संशोधन के साथ....
मैं जानता हूं कि पगला तो गये हो..और अब क्या दुनिया की सुध लेना जब खुद का ठिकाना न हो...
बतौर गालिब...
हम वहां हैं जहां खुद हमको
हमारी खबर नहीं आती
(मौत का एक दिन मुआइईन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती)....
..जियो..जब तक जियो..
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