Jan 2, 2008

दोपहर का गान

चलने लगा, चलता गया, बनता गया, मैं भी शहर
बेमन हवा, लाचार गुल, ठहरी सिसक, सब बेअसर

रोड़ी सितम, फौलाद दम, इच्छा छड़ी, कंक्रीट मन
उठने लगी, अट्टालिका, बढ़ती गयी, काली डगर

कमबख्त कम, पैदा हुआ, सीखा हुआ, वैसा नहीं
जिस रंग में, बदरंग था, उस ढंग में, सांचा कहर

उड़ने लगा, चिढ़ने लगा, इतरा गया, धप से गिरा
अब मौज को, क्या दोष दूँ, मेरा धुआं, मेरा ज़हर

आंधी चली, पानी गिरा, गिरता गया, कोसों गहर
तुम बोल थी, मैं मोल था, थी बीच में, ये दोपहर

11 comments:

Unknown said...

अनूठा नज़रिया और सशक्त गान ।

नीरज गोस्वामी said...

रोड़ी सितम, फौलाद दम, इच्छा छड़ी, कंक्रीट मन
उठने लगी, अट्टालिका, बढ़ती गयी, काली डगर
भाई मनीष जी वाह...क्या शब्दों का प्रयोग किया है आपने...अद्भुत...न सुना न पढ़ा कभी...एक दम नया अंदाज़...बहुत खूब. नए साल में क्या तोहफा दिया है आपने.
नीरज

Unknown said...

manish, a good effort, compliments.

मीनाक्षी said...

आधुनिक दर्शन से पूर्ण नई भाषा शैली...

Shiv Kumar Mishra said...

बहुत बढ़िया सर....मेरे लिए बिल्कुल नए तरह का प्रयोग लगा आपकी गजल में.

नीरज गोस्वामी said...

मनीष भाई
ब्लॉग वाणी पर आप के ब्लॉग के पंजीकरण की बधाई , अब तो आप से संवाद होता ही रहेगा. आप की विलक्षण प्रतिभा अब बहुत से लोग देख पढ़ सकेंगे. ढेरों शुभकामनाओं के साथ
नीरज

Yunus Khan said...

अदभुत है । कमाल है ।

Manish Kumar said...

चलने लगा, चलता गया, बनता गया, मैं भी शहर
बेमन हवा, लाचार गुल, ठहरी सिसक, सब बेअसर

रोड़ी सितम, फौलाद दम, इच्छा छड़ी, कंक्रीट मन
उठने लगी, अट्टालिका, बढ़ती गयी, काली डगर

क्या बात है..कहने का अंदाज निराला है आपका !

Pratyaksha said...

बढ़िया ! अच्छा लगा । शब्दों के झुँड का मज़ेदार जंगल ?

dr.shrikrishna raut said...

भई कमाल का गान है।

गीतिका वेदिका said...

बहुत अच्छा लिखते है आप आदरणीय ।
शुभकामनायें
सादर वेदिका