May 18, 2008

चुप : गरमी के मौसम में

खिड़की खुली रक्खें, हवा से चोर झोंके आएंगे,
पीठ पल्लों पर धरेंगे, मौन को बहलाएंगे ।

जालियों से जूझ कर के,
राहतों को मूँद कर के,
उलझनों के वाक्य आधे,
बाबतों की बूँद भर के,

ओंठ पर अठखेलियाँ कर, शब्द पढ़ कर गाएंगे,
गीत छंदों से खुलेंगे, मुक्त हो उड़ जाएंगे।

इस गगन से मगन बनकर,
कह विरह सह भग्न अन्तर,
वेश भूषा आगतों की ,
स्वागतों भर मर्म मंतर,

आप हम फिर कब मिलेंगे? कब कहाँ गुम जाएंगे?
भीड़ है भरकम, कदम कम, रास्ते पुँछ जाएंगे ।

राह जब उत्साह धरती,
व्यंजना मन मान अड़ती,
ताड़ती कथ कण अबोले ,
ना लिखा अभिप्राय पढ़ती,

अनकही गूंजें बिलख कर, शोर मन भर लाएंगे ,
मौन से कोलाहलों में, साथ चल कर जाएंगे ।

चुप लिखा था भेद सारा,
चुप छुपा मैला किनारा ,
चुप गिरे मनके छनन से,
चुप मिला दरिया बेधारा ,

बक- बोल- बतिया कर ई साथी, बहक में मद पाएंगे ,
देर हो अंधेर हो, सौं नित कदम मिल जाएंगे,

खिड़की खुली रक्खें ....

खिड़की खुली रक्खें, बहुत से और मौके आएंगे,
इस तरह बातें करेंगे, उस तरह हड़काएंगे,
कब मिलेंगे ना पता, पर बाट जोहे जाएंगे,
जब मिलें इस साथ पर, कुछ कहकहे ले भाएंगे,
ताक धर देंगे सुराही, डूब कर मन लाएंगे,
अपनी तरल शामों में गिन गिन तल्खियां सहलाएंगे।

खिड़की खुली रक्खें ....

दिवस जात नहिं लागहिं बारा - देखिये एक महीना उड़ गया - पिछले एक महीने में दो हफ्ते काम, काम का आराम, आराम का काम, और काम, और काम, बाकी समय राम राम दुआ सलाम । ऊपर से किरकिट की खिट खिट - अभी गाडी पूरी लाईन पर नहीं है - अगले हफ्ते तक संभावना है - ढंग का माफ़ीनामा लिखने का भी समय नहीं - समझिए ...ऊपर से आज दिल्ली पुन हार गई - अगर कविता सही न लगे तो दोष दिल्ली का.....[ :-)] -स्नेह और धैर्य पर ही यह पुराने ज़माने का ब्लॉग कायम है - साभार - मनीष

15 comments:

Asha Joglekar said...

मनीष जी अचछी है कविता ।

Gyan Dutt Pandey said...

चलिये, हरी मिर्च ताजा है और पर्याप्त हरी है!

Udan Tashtari said...

अरे वाह, रुक कर आये और खूब लाये. हैं कहाँ भाई?

Shiv said...

अद्भुत!
देर से आए लेकिन बहुत खूब आए...तारे गिन चुके हों तो बतायें कि कितने थे...:-)

अनूप शुक्ल said...

अरे वाह । क्या लिखा है। हमारा तो खिड़की, दरवाजा, दिल, दिमाग सब खुल गया। :)

मीनाक्षी said...

हमारे दरवाज़े भी खुल गए.. आप सपरिवार आएँ तो गर्मी के मौसम की चुप्पी दूर हों....कविता हवा के झोकें की तरह पहुँची...

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

इस गगन से मगन बनकर,
कह विरह सह भग्न अन्तर,
वेश भूषा आगतों की ,
स्वागतों भर मर्म मंतर,
सुँदर ..
और लिखेँ !
माफीनामा न सही,
कोई नज़्म्, गीत या
गज़ल ही सही :)
- लावण्या

अमिताभ मीत said...

ग़ज़ब है मनीष भाई. क्या जादूगरी है. अद्भुत. कमाल. लेकिन एक शिक़ायत है ... ये इतने इतने दिन गायब क्यों हो जाते हैं ?

Manish Kumar said...

ओंठ पर अठखेलियाँ कर, शब्द पढ़ कर गाएंगे,
गीत छंदों से खुलेंगे, मुक्त हो उड़ जाएंगे।

वाह! अच्छी लगी ये पंक्तियाँ

Abhishek Ojha said...

बहुत दिनों के बाद आए आप... जैसे गर्मी में फुहार !

Pratyaksha said...

ताज़ी हवा तो आई है !

Sandeep Singh said...

इस बीच ताजे झोंके की तलाश में हरी मिर्च पर बार-बार आता लेकिन आपकी गैरमाजूदगी व्यस्तता की पोल खोल देती...। दो दिन का आलस मैने दिखाया और जब वापस लौटा तो पाया कि उस ताजगी की राह पर ग्यारह लोग पहले ही खाट डालकर पांव पसारे आनंद ले रहे हैं। भाषा, शब्द विन्यास के बारे में बार क्या कहें हमेशा कि तरह इस बार भी उस पर ‘जोशिमी रंग’ दिखा।
गीली यादें पर आपकी टिप्पड़ी भावुक मन को समान वैचारिकी के बेहद करीब तो लाती ही है......आत्मीयता से भी सरोबोर कर जाती है....खास कर अंतिम कुछ शब्द.....”सस्नेह, मनीष”
अनुज..
संदीप

बोधिसत्व said...

बहुत खूब ...

मुनीश ( munish ) said...

दिल्ली को दिल पे ना लें मालिक। ये आज तक किसी का ना हुई ! रही बात कविता की तो हम जैसे शोहदे तो तुकबंदी में ही मस्त हो जाते हैं आप तो फ़िर ऊंची चीज़ कहते हैं जनाब , कभी शाम तरल होगी क्या आपके साथ?

रजनी भार्गव said...

क्या कहने,आपके अन्दाज़ ही निराले हैं। बहुत अच्छी है।