लोहा आवाज़ की बुलंदी पर बिखरने में लगा है,
लोहा कागज के कगारों से छितरने में लगा है.
और है तेज़ मुहिम, ईमारतों में लगाने की लोहा,
ये मुआ गोलियों, छुरों, छर्रों में बदलने में लगा है.
लोहे को लिखना नहीं हे महंत,
उसे बाँट देना छोटे छोटे आतातायी हिस्सों में
जैसे वाक्यों को बहस में और शब्दों को ध्वनियों में साधना
उकसाने की धार, तर्क की नोक या मुद्रा कटार में
तेज़ तर्रार अफ़लातूनी परिभाषाओं के साज सिंगार में
पूरे विश्वास से
चोगे में पढ़ी पसंद को गुण-ज्ञान में छांट बाँटना
लोहे से प्रेम नहीं करना हे महंत
गल कर निकल सकता है जैसे पीठ का पराक्रम
शैशव की पाठ्य पुस्तक से निकल भागता है रेत के टीलों में
वहाँ हवा लहरिया लहरें बनाती है
जैसी भी बारिश हो झट गुम हो जाती है
संज्ञाशून्य कोलाहल के अखबार में
हल नहीं बनते, हलाहल फैलते है जंग में गड़ती कीलों में
लोहे से सावधान हे महंत
विश्राम के समय, इस ज़माने से काला, भुरकुस भरम है,
चूल में चीखता है पुराना चौखट में घुसा है गरम है
तरीके में बसा है बस इतनी मजबूरी है
पुलों नव कलों पाँच तारा ठिकानों में
विकास के सारे संरक्षित परिधानों में
कंक्रीट के पैमानों में
कुछ एक को परदे रखना ही ज़रूरी है
पूछना नहीं लोहे की जड़ हे महंत
डर लगता है नए सवालों के निकल आने में
कोई खासा षडयंत्र रहा होगा जो सभ्यता ने छुपाया है
कहा किसी ने वैदेही की रेखा से चुना
कहीं बड़े सबेरे आँख खुली तो सुना
रगों में नहीं मिलेगा कलरव इन दिनों,
भोथरा
माथे से गिरा, आँख ने टपकाया है
6 comments:
कुछ शब्द चुभते है लोहे की कील जैसे ......
"जैसे वाक्यों को बहस में और शब्दों को ध्वनियों में साधना
उकसाने की धार, तर्क की नोक या मुद्रा कटार में"
ओर कुछ जैसे आइने की माफिक चेहरा दिखाते है .इस कंक्रीट के जंगल का ....जिसे हम शहर कहते है .....
विकास के सारे संरक्षित परिधानों में
कंक्रीट के पैमानों में
कुछ एक को परदे रखना ही ज़रूरी है
ओर आखिरी वाक्य एक सनद की माफिक है
बड़े दिनों बाद आपको वापस आया देखा तो चला आया। कविता एक बार पढ़ी है पर इसकी तह में घुसने के लिए मुझे लग रहा है कि इसे फुर्सत से पढ़ने की जरूरत है ताकि आपकी गहरी सोच का कुच हिस्सा हमारे पल्ले भी पड़ सके।
सर, सच तो ये है कि आपका इंतजार बहुत दिनों से था पर देर की वजह भी पता थी। अगर कोई विधा ऐसी हो कि पता लग सके कि 'बकौल' पर यूं ही आकर कितनी बार लौटा....खैर....लिखना तो चाह रहा था "बस जो देह में नहीं है..." पर, लेकिन कार्तिक शब्द, परिभाषा, व्याख्या से इतर ठहरा कार्तिक ने मेरी लेखनी की जमकर परीक्षा ली कई बार पढ़ा पर वो अभिव्यक्ति के लिए मेरी भाषा की पहुंच से दूर रहा...शायद हमेशा-हमेशा विचारों में बने रहने के लिए... क्योंकि देह तो नश्वर है, आयु अवधि की मोहताज।
शब्दों की हाट में आपका फिर आना अच्छा लगा। संभव हो तो कुछ पोस्टें जल्दी-जल्दी यूं ही डालें यकीनन आपको भी अच्छा लगेगा.....
सर, सच तो ये है कि आपका इंतजार बहुत दिनों से था पर देर की वजह भी पता थी। अगर कोई विधा ऐसी हो कि पता लग सके कि 'बकौल' पर यूं ही आकर कितनी बार लौटा....खैर....लिखना तो चाह रहा था "बस जो देह में नहीं है..." पर, लेकिन कार्तिक शब्द, परिभाषा, व्याख्या से इतर ठहरा कार्तिक ने मेरी लेखनी की जमकर परीक्षा ली कई बार पढ़ा पर वो अभिव्यक्ति के लिए मेरी भाषा की पहुंच से दूर रहा...शायद हमेशा-हमेशा विचारों में बने रहने के लिए... क्योंकि देह तो नश्वर है, आयु अवधि की मोहताज।
शब्दों की हाट में आपका फिर आना अच्छा लगा। संभव हो तो कुछ पोस्टें जल्दी-जल्दी यूं ही डालें यकीनन आपको भी अच्छा लगेगा.....
फिर फिर पढ़ना होगा इसे...
बहुत समय बाद पढ़ा। और आपकी कलम का लोहा मान गया।
Post a Comment