Jun 7, 2010

बढ़ते हुए बच्चे

रे ओ   इधर,   छोटी लहर,  जलधार   बहने  को  चली
आ निश्छ्ला, कल कल किलक, उद्गार कहने को चली

आ चल चली ठुमकी ठुमक, नव पग नवल पदचाप ले
नव कल्पनाएँ सृजन वन,  सह त्रृण तने खुद आप ले
रचने   निविड़ में नीड़,  अपनों  में   खुदी पहचान बन
कृष्णावृता   जंजाल में,  निज का सुलझ रुखसार मन

तन्वी कला,   मंडल प्रभा,   विस्तार   भरने को चली
रे ओ इधर,    छोटी लहर,   जलधार   बहने को चली

किस वेग   बढ़ जाती लता,  लगता अभी झपकी पलक
संवाद मढ़   संवेग चुन,  धुन   धड़कती धक् लक्ष्य तक
अचरज   मृदुल  छुट   पाँव,  हाथों में   ढला फौलाद कब
भय तनिक सा   खटमिठ मना, घर छोडती औलाद जब

लब स्वप्न, उर स्वर उदधि,  सागर   पार करने को चली
रे ओ इधर,   छोटी   लहर,    जलधार    बहने  को चली

झिल मिल बदल परिवेश में,  पथ ढूंढते   पल्लव पथिक
इत समय सम बनते गए, पितु मात कम साथी अधिक
गत   पार कालों की कला,  क्या तब चला   समझा दिए
अब मिल जुला   कैसा बुरा,  या क्या भला   बतला गए

सब  समझ,   नासमझी सहज,   संसार सहने को चली
रे ओ   इधर,   छोटी   लहर,      जलधार बहने को चली


(१) प्रियंकर कहते हैं चालीस से ऊपर की उम्र का यही होता है सो दायित्व का निर्वाह
(२) अलग रंग से चिन्हांकित “पल्लव” अनुप्रास का मारा है – उसके स्थान पर अपने बच्चों के नाम लगा कर पढ़ें तो और भला (या भला ) लगेगा

6 comments:

मीनाक्षी said...

बढ़ते बच्चों का सच बहुत खूबसूरती से दिखा दिया..आजकल हम भी यही देख रहे है..दोनो बच्चों के पंख नए और कोमल हैं लेकिन उत्साह बहुत अधिक है...मन ही मन डरते हम लेकिन हौसलाअफ़ज़ाई भी करते हैं....

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन!

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत प्यारी ।

Unknown said...

अनुपम अनुप्रास :-)

Sandeep Singh said...

सर ये छोटी लहर अपने साथ बहुत सारी तीखी मिर्चें भी ले आई है। आज ही इनका स्वाद चख सका :)
नया कलेवर बेहद अच्छा लगा लेकिन अगर थोड़ा संकोच के साथ कहूं तो यही कि कविता के टेक्स्ट पर मिर्चें थोड़ी कम हो जाएं तो अच्छा रहेगा। पठनीयता थोड़ा प्रभावित हो रही है। वैसे ये कलेवर बेहद अच्छा है लिहाजा यदि अधिक छेड़छाड़ करनी पड़ रही हो तो यूं ही रहने दीजिएगा।

Sandeep Singh said...

वाह सर ये कलेवर बेहद जंचा। कविता के भावों को ये छटा खूब भा रही है।