तुम नहीं थीं.
उन दिनों
रोज़ों के दिन
मैं
तुम्हारे बिन यहाँ
कुछ अस्त था कुछ व्यस्त था.
ऐसा बना
कैसे कहूँ
सब अनमना
इतने दिनों
तुमसे बिना झगड़े
लड़े कैसे बहा
सीधा सधा
चलता रहा वो दर असल
सब था अनर्गल
जिस विधा
अभ्यस्त था.
मन था निखट्टू
उन जिन दिनों
जब तुम नहीं थीं.
मोना गए कुछ दिनों बंगलौर थी छः साल से अटे काम को अंजाम देने, नानी मामा मित्रादि से मिलने [ और हो सकता है झकाझक बारिश देखने]; उसी के लिए लिखी ; वैसे इसे कल रात पोस्ट करने का मन था; अब क्या कहें कवितानुसार थोड़ी लड़ाई हो गई सुनी और कहा दोनों, सबेरे सुलह तो दोपहर को पोस्ट, ऐसा आया समय - थोड़ी लड़ाई प्रेम का गुड़ है :-)
6 comments:
यही तो प्रेम की चाशनी है।
ये लड़ाई 'वो' लड़ाई थोड़े न होती है इसे तो लड़ाई कहना ही नहीं चाहिए. लड़ाई का अपमान है ये और प्रेम का असली रूप :)
:-)
कितना कहा कितना सुना , इतनी कहा इतनी सुनी में बह गया जब सब कहा
Yehi to Jeevan ka ras hai.
मेरा तो, मन निखट्टु ही रहा :-)
फ़ोन पर किशोर कुमार की नकल में 'तुम (से झगड़े) बिन जाऊं कहां कि दुनिया में आके..' गा भी सकते थे..
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