Nov 4, 2010

बेनकाब बेशराब

उफ़-आह  रंग  साज़   हैं,  लुब्बे  लुबाब  में
बेलौस  बांटते  हैं   सिफ़र,  दो  के  आब में

नीचे सिफ़र दिया, यही ऊपर की सल्तनत
ऐसा बयाँ इस साल भी, लिक्खा किताब में

कैसा  बयान था, वहाँ  किसका  मकान था
चल बाँट लें बन्दर के नांईं,  सब हिसाब में

इतनी कमी ज़मीं  की  बसर  में हुई,  पता
सामंत की  नज़र  है  अब के,  माहताब में

आकाश से  ऊंचा हुआ ,  उठकर गया जहाँ
जाती नहीं  आवाज़ तक, उस आफ़ताब में

आवाज़  गोलियों से  गालियों से,  दाब  दो
या बस  ख़बर से दाग दो,  नक़्शे जवाब में

ख़बरें  चमक  रहीं हैं,  बरसते  महा नवीस
चींटों के  पर  झड़ जा रहे, साहिब रुआब में

झड़ के गिरे पत्ते कहें, चिड़िया से डाल की
हम पर वे  चलके जाएंगे,  तेरे ही ख्वाब में

जो ख्वाब चंद आँख का, वो  खाम ख्वाब है
क्या  देखता  है  सुरसुरी,  बंद के हिजाब में

4 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा मनीष...



सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

-समीर लाल 'समीर'

प्रवीण पाण्डेय said...

गज़ब लिखा है।

Rangnath Singh said...

मनीष जी, गजल ठीक बन पड़ी है। वैसे मुझे निशाचर का प्रयोग काफी अच्छा लगा। ब्लाग का नया ले आउट भी पसंद आया।

मुनीश ( munish ) said...

albeli cheez !