Feb 10, 2011

आदतन

ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर
अगर वैसा किया होता, किया जैसा नहीं तब पर मगर
जो हो नहीं पाया, उसी पर दिया-बाती सोचना
अवधारणा की ताक से मन कोंचना, भर पोंछना
फिरकी कवायद है, गए जाए की चुप आलोचना
पर है सनद में ठस कि ज्यों - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर

अगर जो उन दिनों, दाएँ न मुड़, बाएँ चले जाते भला
या तोड़ते ना एक दिन, वैसा किताबी सिलसिला
ये काम ना कुछ और करते, उस किसी जन की तरह
तम बंद ना होता, खुला होता गगन इसकी जगह
पहले ही उड़ जाते, धरा का मोह था जी का शगल
कहते थे जो अपनी ज़मीं, किसकी वो थी सदियों पहल
मिट्टी के मन का स्वाद, जो अवसाद रह कर भरभरा
उनके लिए कुछ और कर पाते, दरकता किरकिरा
किरचों में मिर्चों सी कई, यादें गईं शामो-सहर
पाते नहीं चश्मे सहारों में, न खोते ख़ाक जो खोई नज़र
तो देख लेते वो कि जो – ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर

किया जो एक मौसम में, धुओं में बारिशों में भीगते
कुछ आग तारों की छुड़ा, दिन दूब की जड़ सींचते
तब रतजगे लगता था, जुगनू वास्ता है एक का
फिर कुछ दिनों के बाद, आए रास्ता समवेत का
खर-बखत छापे भीत पर, सीखे तजुर्बे जो हुए
देखे पुराने काफिले भटके, चमक के बुर्ज धूसर के जुएं
अब दो-पहर दो-राह दो-मन दो-विधा की तल धरा
गड़ती किलक की बात, सबने क्यों नहीं उतना करा
जो हो नहीं पाया, लदा बेताल सा काँधे इधर
पूछे कहो नश्वर गए उस राह के नक़्शे किधर
उस वहाँ होना था जहां - ऐसा नहीं तैसा हुआ होना तनिक बेहतर

एकमन बांच ले जितना, सभी होता नहीं एकमन कहा
इतनी बड़ी दुनिया में, सगरे मन अलग अपनी तरह
अपनी कही के दाह में पकती गवाही चाह में
ले कर चलें फ़ाज़िल पढ़े लिक्खे बहस की राह में
है अलग सच सबका अलग अपने अलग की क्या कहें
है प्रेम जिनसे उनसे भी अक्सर असहमत से रहें
ऐसा न था उस रोज़, जब ये पार या वो पार हाँ
चल-खरल पीसे एक सुर ये जीत या वो हार क्या
साधे न मन सब तार उचटे आज से छटपट उधर
माने न जाने तब किया कुछ बचपने से तर-बतर
ये उम्र का कहना अगर - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर


अगर वैसा हुआ होता महज, होता भी जाता काश कर
क्या खैर ना उल्टा उधड़ता, काश के अवकाश पर
जैसे हमेशा, शोक के पल, लोप लेते हैं खुशी
औ दुःख के दिन भी सदा तो, रहते नहीं है ना कहीं
बदली में रहना और बदलना चाँद का आकाश में
चलना स्वतः विद्रोह में या मोह माया पाश में
चूंकि गरम है भेस कम्बल छूटते ही जाएंगे
चूके दिनों के देस मज्जा में कहीं जम गाएंगे
जो गुनगुनाएंगे मसहरी में चुनांचे रात भर
हर नींद को, हर चैन को, दे जाएंगे थोड़ा सा ज्वर
सुन रहगुज़र - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर


ये हो सकता है, ये सब कल्पना हो, अल्प तुक आलाप हो
जिसकी जिरह खारिज हुई जाती है, मद्धम ताप हो
या है दिमागी दौर, रसायन का विरल संकोच है
जो कल बहल जाएगी, ऐसी आज की जल सोच है
जो भी है, कठफोड़वा कसक के एक कोने भल बसा
ना मुस्कुराया मन, चहक मुख मोर जिस भी पल हंसा
समतल तुले रहने की कोशिश, नट कला का कष्ट पद
तुक बेतुकी मुश्किल नहीं, मिल जाए खुद की एक हद
वो छोर, जिस की डोर से, बाँधे खुलें उतने ही स्वर
एक बात जो कह दें मुखर, सब हो भी सकता था अधिक बदतर
अगर वैसा हुआ होता कि जब - ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर

6 comments:

Udan Tashtari said...

ऐसा नहीं तैसा हुआ होता तनिक बेहतर......काश!!

प्रवीण पाण्डेय said...

वर्तमान की पीड़ा का निवारण एक काल्पनिक वर्तमान में देखते हैं सब। जब पीड़ा ही काल्पनिक हो तो निवारण भी वही स्वर ले लेते हैं।

Rahul Singh said...

शब्‍दों की सघन कारीगरी, भाव का शिल्‍प सौंदर्य.

अमिताभ मीत said...

ग़ज़ब है भाई .... शब्दों की कारीगरी ... या शब्दों की जादूगरी !!!

Abhishek Ojha said...

लम्म्मम्म्बी :)

डॉ .अनुराग said...

जोशिमाना अंदाज