बात सपनों की ये बारात, रात जग अफ़सरी जगमगाई है
कुछ हैं ख़्वाबों से बदर, उधर जल जलपरी नींद आई हैजीव की जान गड़ी हूक, मूक में गुमशुदा ख़्वाबों की भूख
जबर ये भूख है शाइस्ता, आहिस्ता ये हूक भी सौदाई है
ये थके हाथ उफ़ थके पैर, गैर के द्वार थके जज़्बात की सैर
थकी सिलवट है खुली आँख, झाँक कहती वो सुबह छाई है
यूं कैसे मान लूं बयानात, हालात कि ढल चली है महल रात
फकत क़ानून के तहत, तखत बताए किस पाए पे सुनवाई है देख ली नाम से निकली, वली बड़ों की यूं नीयत छिछली
ये ताकत है ता क़यामत, नियामत है कमज़ोर में अच्छाई है
कौन अच्छा है क्या बुरा, चुरा सुकूं अगर वो चारागर चरा
ये हो न हो नहीं खबर, गर जो खुद से जीत लें लड़ी लड़ाई है
जिन्हें इस इल्म का इरफ़ान, फ़रमान पे जिनके मुरीद कुर्बान
क्या उन्हें इल्म है गाफ़िल, हासिल ये जो इल्म में रुस्वाई है
कभी पहले भी थे यहाँ जवां, जुबां के दायरे हसरत के मकां
वो भर तारीख में नहीं, यहीं महफ़िल में आलमे तन्हाई है
भूल जा भूलते जाना, माना सर न सहारा है भरम ज़माना
रेत शहतीर में है चाह है गुम, तुम-हम के टेक हैं परछाई है
भूल कर फिर से मैं जो याद करूं, भरूं जो याद की भरपाई है
रात गुम ख्वाब है बातों की बात, बात रंग स्याह से रंगवाई है
7 comments:
कभी पहले भी थे यहाँ जवां, जुबां के दायरे हसरत के मकां
वो भर तारीख में नहीं, यहीं महफ़िल में आलमे तन्हाई है
वाह!! बढ़िया भाव.....बहुत दिनों बाद....
तमाम बातें एक साथ गुथीं
कुछ समझीं कुछ गयी समझायीं हैं
कभी पहले भी थे यहाँ जवां, जुबां के दायरे हसरत के मकां
वो भर तारीख में नहीं, यहीं महफ़िल में आलमे तन्हाई है
well said....
क्या करें, कितनी प्रतीक्षा कराई है।
ये थके हाथ उफ़ थके पैर, गैर के द्वार थके जज़्बात की सैर
थकी सिलवट है खुली आँख, झाँक कहती वो सुबह छाई है
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बहुत खूब जोशी जी...मन की थकावट दूर हो गयी, पढ़ कर यह कविता....मन के अंदर बहने लगी यादों की सविता...
बढ़िया.
kyaa khoob!
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