May 18, 2011

चुहलकदमी

खिदमतगार,
ज्यों गए हों कभी, राष्ट्रीय राजमार्ग से जनपद रीवा तहसील हुजूर विन्ध्य का पुराना पड़ाव,
बरास्ता मिर्जापुर डिरामनगंज पार हनुमना से देवतलाव
क़स्बा मनगवां तक, गड्ढे पर खड्डे धौं पिचक, चढ़ेंगी उतार पर हड्डियां पारों में चढ़ाव,
पड़ेगा पंजर के हिलने और पंचर के मिलने का पूरा दबाव.
बड़ेखां परमसंतोषी खड़बड़िया, आप भी बड़बड़ाएं अपने से ही सुभाव
हिन्दुस्तान के दिल में काहे भला है भली राहों का अभाव.
लगातार.

चलबहार सड़कें बनें, चाहते हैं चलित चलनेवाले राहगीर,
सहनेवाले सहित उम्मीद में हैं, पहुंचें राहें कराह-रहित उनतक देर सबेर,
रहनेवालों के मन में भी रही है फलित आशा की टेर, यहाँ तक
रहजन भी चाहते हैं कथित डगर, निकले अगर, सूने इलाकों के व्यथित कगारों में
बढोत्तरी की हवा चले, तथित समर्थ बटमारों में,
सखा सहमति में हैं और सरकते तंत्र में कई एक तंत्री,
कार्यपालक यंत्री, ग्रामसेवक, नगरसेठ, पार्षद और मंत्री,
और तो और, कुछ ऐसा दोपहिया प्रेमी भी चाहते हैं, सुरभित एकांत कभी कभार,
घिरी हरियाली में हो मधुर मार्ग अकेला बस हम-तुम इलाका रहे सन्नाटा बढ़िया,
और कभी कभार अचानक गढ़हे सिर्फ दो-इंची दो चार,
जहां से उचक जाए हवा खाती फटफटिया का पहिया.
चिपक के चक्कर की हवा न लगे, उन्हें
जो हों नात-बाप, या खाप के पंचायती बुज़ुर्गवार,
फतवों में जिन्हें भी है आने वाली सडकों का इन्तज़ार.
सहृदय प्रदेश में लेकिन होता नहीं ऐसा चमत्कार
इतने बहुल संकुल आशाभाव के बावजूद पथ रहे दुर्गम, यात्राओं में न आराम न करार.

खुशगवार प्रेम.. आह.. प्रेम.. इस सड़कछाप कवितानुमा में इश्क का ख़ुफ़िया ज्ञापन,
अमुक के आवाहन के लिए विद्रूप का ललमुनिया विज्ञापन,
व्यावहारिक समकाल सा खटका है इस गुहार,
तनिक सबर, खम्मा घणी, इस पन्ने के पढ़नवार,
पथराव पर सड़क घुमा कर बात है तड़प, इस खुमार बे-नग्मा बे-निगार.

शहरयार ये अजबतुक चुहलकदमी चिरकुटा पदचाप,
प्रेमाश्रित नहीं है केंद्रित है सडकों पर, हालांकि जनम जानें हम-आप
सड़कें और भरी सड़कों में नयनांकित व्यवहार,
प्रेमाभिव्यक्ति का एक खास पसंदीदा उपकरण है,
गुनी कहते हैं सड़कों का अभिकरण, प्रणय की प्रगति में अगम ठगम चरण है
कोशिश में हम निर्गुन नादीदा लौट कर ई सड़कों पर आ से जाते हैं माईबाप,
जहां कुछ प्रेम भी आलोचना और नई सोचना के साथ फूले-फले बिन जाप,
रोज़ाना की आराधना तो चलती रहेगी किसी प्रकार बेनाप,
और पुण्य के पाप जैसी अक्सर ज़िंदगी में लकीरें होती जाएँगी एक से दो से चार
चित्र खींचते रहेंगे तस्वीरों में दिखता रहेगा मित्र मन प्रकार,
बेमौसम यदा कदा कुछ ऐसी भी फुहार, जिसका कोई सटीक मतलब न हो
लगे उम्दा सा कायदा मगर तलब से हो तालिब की बेगार.
उस्तादी भी एक छलावा है, शागिर्दी समझ में तजुर्बा बरकरार,
अरे हाँ, ये गनीमत वो नहीं बने चेले महाआस्तिक तालिबान के आधुनिक अवतार.
लो सहयात्री हम फिर भटक गए, शिकायत की सड़कों से इस बार

रोज़गार जैसे नहीं बनती सड़कें सटक बनवाते हैं ठेकेदार,
जैसे असलजात रोड़ीदार सड़क के मामलात समझे हैं बौड़म के प्रेम प्रकार,
जैसे कोलतार जो था नहीं दाड़िम मुखर, रहा अमूर्त निराकार,
पर पास हुआ था सड़क के बिल सम्प्रति लठमार,
प्रशासनिक सन्दर्भ में तनिक अवैतनिक ज़्यादा,
नरेगा नहाई बहेगा बंटाई धर्मानुसार ऊपर नीचे बाकायदा,
सफ़ाई से धर्म जिस अनुसार है बँटवार,
सो रहे पुख्ता जनतांत्रिक प्रणाली में जनाधार,
समाजसेवा जमावन के गल्प में साभार,
ये भी एक कारण है सड़कें गज में नहीं कागज़ में हैं ठोस नमूदार,
देखिये अब प्रेम के साथ प्रशासन आलोचन भी खिसक आया इस भ्रष्टाक्षर व्यवहार.
क्या करें, गरियाना सबसे सरल है उसको जो है नहीं, या सुनता नहीं बड़ा सार्वभौम आकार
मूसलाधार हिदायतें मुखमार्जन की सरल परिणिति हैं, सलाह आसान बस करना है दुश्वार
वैसे भी कहें सहस्त्रबाहुओं में हमेशा से होते हैं उद्घोषण और शोषण के जीवंत हथियार

योजनाकार सड़कें एक ही कारण नहीं है जो न हो तो न हो दरियादिल चुनावों का बुनाव,
आम बात है हुकुम हुक्मरानों को चाहिए सियासत में रियासत का स्वभाव,
रईसी जिसकी सलाइयों में रिहाइश है कानूनी नोकदार,
ऐसी चुभती खिचड़ियों से हुकूमत का दस्तरखान है कारोबार,
रही बात सडकों की राहें तो बिगड़ती हैं भादों सावन,
उन्हें चाहिए और से और काली परतों का जमावन, आए अगहन पार कुआर,
परत के ऊपर परत एक और परत दर परत डर परत
टूट फूट लाम लूट तह सतह कुछ सुख कुछ असह अबूझमाड़ अनवरत
हर परत पूछती है दूसरी से बता री परत
और कहाँ तक चलेगा सीने से चक्कों को गुज़रना आर-पार,
या हम भी टूट जाएंगे भरभराकर किसी सफर के तहत
लिखा बचत मनगिनत
यात्राओं में ही जमा रहेगा हम परतों के उधेड़ते रहने का मनसार,
परतों की परी कथा, गर्दों की तथा व्यथा,
राह बदर फिर एक बार, हमारी कहास को ले उड़ी दुःख दबी भड़ास इस बार सरकार,

सूत्रधार हमें खेद है वट वृत्तांत में चुस्त थकावट के लिए,
सुस्त झगड़ते जीवट में सुखान्त की आहट, उसकी बनावट के लिए
सखेद हम सिर्फ खुदी सड़कों से खोद कर निकालना चाहते थे, एकमुश्त प्रेम और संतोष
और सपाट सीधी सड़कों से लौटना चाहते थे घर, दोपुश्त जहां गहा था विस्मृत स्मृति कोश
मध्य के उस विविध विशाल ऊंघते प्रदेश,
सरई सागौन महुआ तेंदू गुलाबी चना और हिन्दीमना के बचे खुचे पलाश परिवेश,
शेष है शायद निहित अनिमेष,
जहां भाषा से वसुधा, आशा से प्रेमसुधा, संघर्ष से काननअंगार और पहल से ललकार
अगस्त्य के इन्तज़ार में ठहरा विन्ध्याचल पठार
लेकिन जहां सड़कें बिलकुल भी नहीं बनती है किसी भी भली प्रकार
और कलाओं के किलकते अरण्य से निर्यात और विस्थापित होते रहे हैं फनकार
देश पार की चांदी चमचमाती रेत में खाली सरपट राहों के चलाव में
या फिर गोरेगांव या गुडगाँव की भीड़ भरी सड़कों के गजबज ठहराव में
गोपनीय ऊब का कलरव शोर के ऊपर धीरे से डालता है दबाव
हमारे अंदर सहसा जाग जाता है बेमतलब आरोह अवरोह लौटने का चाव
नहीं मिलने के गाँव
..रास्ता मिर्जापुर डिरामनगंज पार हनुमना से देवतलाव..





6 comments:

अभय तिवारी said...

क्या बात है मनीष भाई! निराला की परम्परा में.. बहुत ख़ूब!!

प्रवीण पाण्डेय said...

इतनी लम्बी पंक्तियाँ और वह भी लय में, पढ़कर आनन्द आ गया।

डॉ .अनुराग said...

अभय जी से सहमत हूँ....

Udan Tashtari said...

वाह मनीष...क्या खूब लिखा है...वो रास्ता भी याद आया...हमारी ससुराल है मिर्जापुर. :)

Rahul Singh said...

जीवन के सभी रंग इस सफर में.

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

wah bandhu,kya roopak hai kya bimb bhi/maza aagaya sahab,ek kasak bhi utee ki jamaney badley,desh badla ,nahi badli to in raston ki kismat/aapke andaz e bayan ke liye kuch kahna kam hai/tooti sadkeaur prem,koi n choo paya is rahasya ko .gazab,salam /kaise hai bataiyega
sasneh
dr.bhoopendra
rewa