May 28, 2011

पलायन वा आगमन वा

फ़र्ज़ कर लो कि इक दिन सुबह ना उठे,
नीम अंगड़ाइयों पर बिखर कर बिछे,
नीले मलमल का हौदा लगा कर मगन,
बस रहा हो मधुर छींट का कारवां.
फ़र्ज़ कर लो कि दुनिया बनी ही नहीं.

फ़र्ज़ कर लो समय को खबर तक न हो,
चुप रहें बत्तियाँ चुभ सुई हे अहो,
हल्के पल की ज़मीं लाख लौ के गगन,
मोमजामा पनाहों में पिघला धुंआ.
फ़र्ज़ कर लो शुरू से है पगली नदी.

फ़र्ज़ कर लो बरफ़ है छनी रेत से,
घुप सुरंगों में सूरज की डिबिया कहे,
ऐसा कुछ भी नहीं जो हुआ दफ़्अतन,
छू उड़न की दरी पास की दूरियां,
फ़र्ज़ कर लो गहर में सफर की मणी.

फ़र्ज़ कर लो खुरचता हुआ मूंज का,
नाम रस्सा गिरह खोल भागा हुआ,
मेध से दूर छिटका हुआ हय बदन,
हांफता भांपता कांपता काफ़िया,
फ़र्ज़ कर लो तमन्ना की बाज़ी गई.

फ़र्ज़ करलो गया जो सदा साथ है,
सम सा अन्दर की लहरों में अहसास द्वय,
ज्वार भाटा न दहके महक रात दिन,
उसका रहना सिफर भाल की जालियाँ.
फ़र्ज़ कर लो कथाओं में बचले हँसी.

फ़र्ज़ करलो ये सब रोज़ की मुश्किलें,
काट खाएं नहीं, आती जाती रहें,
जाते आते रहे कल गया बालपन,
लू थपेड़े सुदृढ़ में मिलें आंधियाँ.
फ़र्ज़ कर लो रहा कुछ सही आदमी.

फ़र्ज़ कर लो कि ता ज़िन्दगी भीड़ में,
जो घुमाकर मिले, वो मिलाकर घुले,
थोड़ा कड़वा भी हो प्रेम का हो चयन,
मध्य मीठा रहे अंततः साथिया.
फ़र्ज़ कर लो ये ना हम से है जो सभी.

फ़र्ज़ कर लो यूंही बात कहने में जी
फ़र्ज़ कर लो यूंही बात रहने में थी
फ़र्ज़ कर लो यही बात आने में सी
फ़र्ज़ कर लो ये आने के जाने में भी....

6 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

न जाने क्यों, जीवन ऐसे विकल्पों में जिया ही नहीं।

मीनाक्षी said...

पहले आपकी चुहलकदमी ने और अब इस रचना ने चमत्कृत कर दिया...

डॉ .अनुराग said...

आपकी रचनात्मक सोच में कुछ बात तो है .....

लीना मल्होत्रा said...

sundar bhav.

sia said...

अति सुन्दर

Unknown said...

uff, bhaav du ya shabd padhu, kuch kahu ya shabdon ko gunu, arth dekhu ya unka marm, kuch kehne k liye nahi koi bhi harf...

Aabhar Shilpi