Aug 19, 2012

काव्यशेष आकाश



गूढ़ अंतर से मिला कर मूढ़ मंतर
तर बतर लौंदा चढ़ाया चाक पर
भर हाथ माटी मन लगाया
सजल खांटी तन बिठाया थपथपाया
धिन्नी चकर गोला घुमाया
वर्तुलों की धाक धर
तब कर धड़ा गहरा घड़ा

गहरा धड़ा पानी चला कितना घना
छल छलक छल चिकना बना इतना छना 
छनकर छनन झंकार टप्पे ताल
ढुलका  ढुलक ढल तलवार या की ढाल
लोहित रूप ढाली अवसरों की खाल
जंगी आंच झुलसा रे मना
मन रंग तापे तब चढ़ा गहरा घड़ा

गहरा चढ़ा घटता घटक संयम झटकता जा रहा
डर के परे वो सब करे वर्जित सुना जो था कहा  
बोलें न बोलें महफ़िलें
पुरखे कथन की अटकलें
टक राह रोकें खट चलें
चलता विकल अनुवाद धीरज जा बहा  
अनुराग बस घर्षण गड़ा गहरा घड़ा  

गहरा गड़ा पाताल नभ का भाल
धरती की भुजाएं समय के चर व्याल  
कूट विलोम धर के धार
आगत नियति का व्यवहार 
सादर ना रहा हर एक जैसे बार
सब दब बुदबुदा घिसता गया अवशेष में वाचाल
अटपट अगिन का  भूचाल जिस जग में पड़ा गहरा घड़ा

गहरा पड़ा लो गूँज खोती जा रही लो गूंज
की आवाज़ भी ना आ रही अनुगूँज
किसने कब सुनी सूनी डगरिया भीड़ के
रेवड़ बड़े झूले झुलाती रीढ़ के
अंगवाल ले चुप्पी छुपी बहरी नगरिया नीड़ के
तिनके उड़े उड़ते गए तो मूंज
के रस्से कटा बादल उड़ा पोला खड़ा गहरा घड़ा

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

अद्भुत काव्याभिव्यक्ति..

Rangnath Singh said...

लगता है अच्छी कविताओं का मौसम आ गया है आपके जीवन में :-)

मुनीश ( munish ) said...

रंगनाथ बाबू के साथ मीठी नाइत्तेफ़ाकी के साथ यही कहूँगा कि निराला को लगता है जैसे खूब पढ़ा है और अब वो कढ़ा है । जाने क्यों लग रहा है यों आप भले ही सहमत हो न हों ।