काफ़िये बेगार
के, छलके कलाम हो गए
हादसे जैसे मिले,
अपने भी नाम हो गए
अफ़सोस अफ़साने
तराने, यार शायद कायदे
बेसाख्ता ता
ज़िंदगी, यादों में आम हो गए
कागज़ दिमाग
मुल्क में, कोहरा घना ऐसा छना
रात जग के बचाए
दिन, गुज़र के शाम हो गए
घर रोशनी की
रूह ले, दामन में दुबकी धूप थी
डर ले गए साए
अज़ीज़, सब तामझाम हो गए
उधड़े हुए उलझे से
कुछ, उखड़े नहीं पूरे सफ़र
ये डगर भी भूलती
गई, कितने विराम हो गए
कैसे हंसें रोएँ
कहाँ, हम तेज वक्त गुलाम हैं
लम्हें शहर के
जो गए, सारे तमाम हो गए
2 comments:
बहुत खूब..
bahut ache
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