साधन को दो संदर्भ प्रभो, मैं कंद कंद मंडराऊं,
इस द्वार तुम्हारी समता को, फिर मुक्त्छंद में पाऊँ
फिर शब्द मिलें आवेदन को
आदर्श मिलें संवेदन से
लपटों को जोड़े कर्मराग
आवेग जुड़ेँ स्पंदन से
साभार दिवा के पुरास्वप्न,
मरू मर्मर के त्रासद घर्षण
जब एक बनें आदर्श नाद
सम्पन्न प्रथम शोषित जन गण
उत्सुक्त बनूँ, संक्षिप्त बनूँ, निश्वास उठे, आभास बनूँ,
वनवास मुक्त संतृप्त रहूँ, उन्मुक्त्कंठ से गाऊँ
साधन को दो संदर्भ प्रभो.......
चौड़े हों फैलें , नीक काम
छोटे बन फू़ हों लोभ साम
सब राज काज निष्कपट सजें
बैरी हों छूटें भेद दाम
शैशव के मूल्य मढे हर मन
मूल्यों का समय चढ़े यौवन
भाषा से कोई नग्न न हो
च्यूंटी काटूं तो स्वप्न न हो
तर्पण कर अगिन परिच्छा का, वर्णों की पूर्व प्रतिष्ठा का,
दर्पण की धुंधली किरणों में, हाँ रंग रंग मुस्काऊँ
साधन को दो संदर्भ प्रभो.......
[ अभी और भी है ???? ......]
5 comments:
बहुत ही गज़ब की बात है. बहुत सुंदर. बच्चों को रटवाकर हिंदी कवितापाठ प्रतियोगिता में इनाम जीतने की पूरी गारंटी. नज़ले के बाद अब शब्दों और प्रवाह ने अपनी गति, राग, मर्म और आपको हासिल कर लिया है. क्या रस है. मज़ा आ गया. क्या मैं अपने मित्रों को इस ब्लॉग के बारे में बता सकता हूं.शक्तिशाली प्रदर्शन है.
सचमुच बहुत सुंदर।
बहुत सुंदर, बधाई।
बहुत सुन्दर प्रार्थना है , अनूठी सी ...
भाषा से कोई नग्न न हो
च्यूंटी काटूं तो स्वप्न न हो
भाई मनीष
सच च्यूंटी से ख़ुद को कटवाया ये देखने को की शब्दों का जादू कहीं स्वप्न तो नहीं. विलक्षण प्रतिभा है आप में बंधू. आनंद सरिता में गोते खा रहा हूँ.
नीरज
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