आओ चलो ...
आओ चलो बादल को खो आएं।
इमली के बीजों को,
सरौते से छांट कर,
खड़िया से पटिया में,
धाप-चींटी काट कर,
खटिया से तारों को,
रात-रात बात कर,
इकन्नी की चाकलेट,
चार खाने बाँट कर,
संतरे के छीकल से आंखो को धो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।
धूल पड़े ब्लेडों से,
गिल्ली की फांक छाल,
खपरैल कूट मूट,
गिप्पी की सात ढाल ,
तेल चुपड़ चुटिया की,
झूल मूल ताल ताल,
गुलाबी फिराक लेस,
रिब्बन जोड़ लाल लाल ,
चमेली की बेलों में, अल्हड़ को बो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।
कनखी की फाकों में,
फुस्फुसान गड़प गुडुप,
थप्पडा़ये गालों में,
सूंत बेंत फड़क फुडु़क,
चाय के गिलासों को,
फूँक फूँक सुड़क सुडुक,
चूरन को कंचों को,
जेब जोब हड़क हुडुक,
मुर्गा बन किलासों में लाज शरम रो आएं।
आओ चलो बादल को खो आएं।
खिचडी़ के मेले की,
भीड़ के अकेले तुम,
चाट गर्म टिकिया की,
तीत संग खेले तुम,
चौरसिया चौहट्टे के,
पान-बीड़ी ठेले तुम,
गिलाफ में लिहाजों के,
बताशे के ढेले तुम,
जलेबी के शीरे से दोने भिगो आएं
आओ चलो बादल को खो आएं।
आओ चलो ...
[ धाप-चींटी :- ज़मीन में खाने बना कर खेलने का खेल / धाप-चींटी- चींटी -धाप-चींटी -धाप ; गिप्पी :- पिट्ठू / गिप्पी गेंद / 7 tiles ; खिचडी़ :-मकर संक्रान्ति; चौहट्टा - रीवा का बाजारी इलाका ]
10 comments:
"Tears idle tears, i do not know what they mean,
Rise in the heart, gather into the eyes,
looking into the days which are nomore."
रुचिर भावों में कविता की रचना का,
शब्दों के ज़रिये बचपन की सैर का
दूर रहने वालों को घर के क़रीब करनें का......
धन्यवाद.
कुछ अलग सी ,पर बचपन की कई यादें ताज़ा कर दी। अच्छा लिखा है।
बढिया!!
क्या बात है!
बालों में तेल लगाकर,लाल रिब्बन दो चोटियों में बाँधकर...हम तो तैयार हैं...!!
मनीष जी, आपको गले लगा लेने को मन करता है. आंखें तो नम हैं हीं.
मनीष जी आपका ब्लॉग कमाल का है । दिल खुश हो गया है । एक आयडिया आया है । जो आपको नहीं बताऊंगा । जब उस पर अमल होगा तो आप जान जायेंगे ।
.......हर बिंदु दर्शाता है कि तारीफ के लिए मेरी भाषा बौनी हो उठी है। कितना अजीब है जिन भावों से शब्दों के जरिए जुड़ा उन्हीं की तारीफ के लिए शब्द ढूंढने में मशक्कत करनी पड़ रही है। जोशिम भाई मैने कहा था न अब अक्कसर मुलाकात होगी। कविता में पूरा गंवई परिवेश समेट कर कुछ देर के लिए ही सही बचपन लौटाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
संदीप सिंह...
जोशिम जी जो शब्द भूल रहा था, जिन यादों को शहर की भीड़ में भूलता जा रहा था, वो सबकुछ याद आया आप के ब्लॉग पर जा कर। तारीफ के लिए कम शब्द हैं मेरे पास लेकिन जो कुछ लिख रहा हूं उसे मेरी तरफ से बहुत कुछ समझना।
आपका अनुज
Post a Comment