उम्र किस-किसकी, यूं ही सुल्तान होती है।
हड्डी घिसती है, तो ही अरमान होती है।
बेलें चढ़ती-गिरती, हैं दफन दब जाती है।
कोयला बनती है, जो ही जलान होती है।
तार जुड़ते हैं तो तमाशे भी मिल पाते है।
बात जो सच लगे, वो ही जबान होती है।
आ सलाम दे सफर, ये घुप रुकी हवाएँ हैं।
समय की भाप ले, सो ही सोपान होतीं है।
भर समेट तारे हैं, यूं के नमक पारे हैं।
बूँद उट्ठे साथी, तो ही आसमान होती है।
कौम में, अमन-इंक़लाब में, दरारें सोहबत हैं।
फरेब अपनी किस्मत, यूं ही बयान होती है।
[ साभार - उन सब के नाम जिनसे पिछले एक महीने में पढ़ के बहुत नया जाना / सीखा - लुत्फ़ उठाया - इस नवेली दुनिया में कदम बढाया - उम्मीद से कई गुना पाया और उन सब के नाम भी जो आए / पधारे - हौसलाअफजा़ई कर गए / मंडराए - आशाओं से भी ज्यादा पीठ ठोंक के नंबर दे गए - मनीष ]
5 comments:
मनीषजी,
साभार के बिना भी हम मंडराते गर पता लग जाता तो...शब्द जो खुद अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है उसे और परिचय की क्या जरूरत है?!!
मनीष, आज सुबह ही आपके ब्लोग के बारे में पता चला तो चला आया। बहुत ही अच्छी कविताये (शेर) लिखे हैं, शब्दों का चयन भी जुदा जुदा है। इसकी भी पहली दो लाईनें कमाल की हैं। लिखते रहिये, ब्लोगरोल में डालने के लिये आप अपने ब्लोग को chitthajagat.in, blogvani.com and narad.com में रजिस्टर कर सकते हैं।
कवितायें तो बढ़िया लिखते ही हैं आप, आपकी गज़लें भी कम प्रभावी नहीं हैं. पता चलता है कि लिखने के साथ-साथ पढ़ना भी खूब करते हैं. बहुत खूब!... वैसे मैं सतना का हूँ.
आपको आज पहलीवार पढा , अच्छा लगा , अच्छी लगी आपकी ग़ज़ल भी , आपका कथ्य नि:संदेह गंभीर है , सुंदर है और सारगर्भित भी , बधाईयाँ !
मनीषजी,
आप भी हम जैसे दुष्यंत कुमार के चाहनेवाले निकले।
पूरी दुनिया मे गज़ल का जादू सर चढ के बोल रहा है। आपकी गज़ले/कविताए दिल को छू लेती है।
पीछले कुछ बरसो से मै मराठी मे गज़ले लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।
आनेवाले नए साल की शुभकामनाए।
- डॉ. श्रीकृष्ण राऊत
Post a Comment