क्या अभी भी यार तुम, शामें उड़ाते हो ?
चौंकते हो रात में
परछाईयों को बूझते हो,
पलट कम्बल मुंह उलट
लम्बाईयों में ऊंघते हो,
दिन सुने किस्से कहानी
नित अकेले सूंघते हो,
और फ़िर तख्ता पलट कर
चोर मन में गूंधते हो
क्या गुल्लकों में डर डरे नीदें जगाते हो ?
क्या अभी भी ....
तुम, तुम के आने से
अभी कुप्प फूलते हो क्या,
तभी तो सज संवर पुर जोर
मिस्टर कूदते हो क्या,
फुदक कर बात, बातों में
शरम से सूजते हो क्या,
और फ़िर तंज़ तानों से
तमक कर रूठते हो क्या,
क्या हक्लकाकर, मिचमिचा आँखें बनाते हो ?
क्या अभी भी .....
चिरोंजी छीलते हो
टेसुओं से रंग करते हो,
दबा कर पत्तियों को
तितलियों को तंग करते हो,
फकत झकलेट मौकों में
जबर की जंग करते हो,
बचा जो कुछ भी करते हो
सबर के संग करते हो,
तमातम फूँक कर सेमल के लब, फाहे बनाते हो ।
....
कहो न यार तुम इस दम तलक, कंचे लुकाते हो ।
....
कहो तो यार उन सीपों से तुम, कैरी छिलाते हो ।
....
फिर कहो अनकही सांसों से तुम, फुग्गे फुलाते हो ।
कहो ....
[प्यादे को पहलवान के .. आस पास ... बनने में अभी बहुत .. बहुत .. बहुत .. वक़्त है - (लेकिन लिखता कौन कमबख्त है सूरमा बनने के लिए) - उम्मीद से ज्यादा अपेक्षाओं( http://tarang-yunus.blogspot.com/2007/12/blog-post_27.html )का तहेदिल ... ]
5 comments:
'चिरोंजी छीलते हो
टेसुओं से रंग करते हो,
दबा कर पत्तियों को
तितलियों को तंग करते हो,
फकत झकलेट मौकों में
जबर की जंग करते हो,
बचा जो कुछ भी करते हो
सबर के संग करते हो,
तमातम फूँक कर सेमल के लब, फाहे बनाते हो ।
....
कहो न यार तुम इस दम तलक, कंचे लुकाते हो ।
....
कहो तो यार उन सीपों से तुम, कैरी छिलाते हो ।
....
फिर कहो अनकही सांसों से तुम, फुग्गे फुलाते हो ।'
uparyukt panktiyan bahut achchhi lageen. sookshm nirikshan ke sath-sath inamen gehari samvedana chhipi hai. nostalgic bhi hain. bhai, bahut achchhe!
बचा जो कुछ भी करते हो
सबर के संग करते हो -- क्या कहें ... तख्ता पलट कर
चोर मन में गूंधते हो(हैं)
आज इरादे को मेरा जिस्म सोख ले कैसे
जिस पसीने में तेरी सोच नाज़नीन नहीं -- हमने भी कुछ ऐसा लिखा तो आज आपकी कविताएँ पढ़कर याद हो आया....
"साकी सोया सा
स्वेद-सुरा को पीके
संतुष्ट हुआ"
आपको पढ़ना अच्छा लगता है.
भाई मनीश, हरी मिर्च को छुआ. तीखी लगी. कसक दिल तक गयी.
फुग्गों की बिरादरी तक हो आया. और यह बावलापन इस्लिये कि एक पाठक मेरे ब्लोग पर आकर छह महीने पुरानी पोस्ट पढ गया और टिप्पणी कर गया. ज़ाहिर है,उत्सुकता थी कौन था. और फिर ...
बिल्कुल उस्तादाना कविता है. शब्दों और् भावों को पूरा पकड के रखा है.
अच्छा लगा.
बचपन की कई बातें याद आ गई.........
थोक के भाव में सोचते हो..और ठोक के कहते हो..शब्द खूब हैं ही ईश्वर क्रपा से...लिखे रहो....पीछे से लगाव जादा है...अच्छा है..पर कभी आगे की भी सुध लेव..जियो..
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