Apr 11, 2010

बेतार की जिरह

कुछ सोच हैं, हैरान हूँ, परेशां हूँ बा वजह,
खुद के नाम हम कहूं, या यूं कहूं कि मैं.

क्या यूं कहूँ, ज़र्रा हूँ फू, सहरा में गुम गया,
एक जड़ हूँ बगीचे में, या गुंचों में है जगह.

किन खुशबुओं   में ख़ाक हूँ, किस रंग में फ़ना,
मैं हूँ यहाँ, या चुक गया, दफ़ना हूँ किस सतह.

या शाम का भूला हूँ, सो भटका हूँ रात भर,
तारो भला बतला तो दो, आएगी कब सुबह.

क्यों   धूप में ठंडा हुआ, जल में जला हूँ क्यों,
हर ओर समंदर, तो क्यों, प्यासा हूँ तह-ब-तह.

ना बोलती हैं मछलियां, क्यों बोलती नहीं,
चुपचाप तैरती हैं,  ये रहती हैं   किस तरह.

इस खेल में देरी हुई,  मुश्किल थी, माफ कर,
ना जानता किस मात में, किसने कहा था शह.

लगता यूं गम मसरूफ़ हैं,रूमानी किताब में,
लो चुप हुआ बस हो गई, बेतार की जिरह.

6 comments:

अजित वडनेरकर said...

ना बोलती हैं मछलियां, क्यों बोलती नहीं,
चुपचाप तैरती हैं, ये रहती हैं किस तरह

बस, यहां से मुझे कुछ बात पकड़ में आती है। बहुत खूब। हमेशा की तरह फिर दोहराऊंगा, कविता आपको सिद्ध है। आपक जैसा लिखनेवाले बिरले देखे हैं मैने।

Udan Tashtari said...

लगता यूं गम मसरूफ़ हैं,रूमानी किताब में,
लो चुप हुआ बस हो गई, बेतार की जिरह.

-बहुत बढ़िया..अच्छे हैं सभी शेर!

अमिताभ मीत said...

कमाल है मनीष भाई.. क्या बात है ....

ये बस आप के बस का है !!

बीती है रात हिज्र में जल जल के इस तरह
बुझ बुझ के रह गया हूँ, हो धुंआ जिस तरह

मीत

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

मनीष भाई ,बहुत दिनों बाद एक मजी हुई ग़ज़ल ,हालाँकि शुरुआत समझ नहीं पाया ,गहरा दर्शन लगा ,पर उम्दा अंदाज ए बयां के लिए बधाइयाँ
आपका ही ,
डॉ.भूपेन्द्र
रीवा

डॉ .अनुराग said...

ना बोलती हैं मछलियां, क्यों बोलती नहीं,
चुपचाप तैरती हैं, ये रहती हैं किस तरह.


जिस दिन बोलने लगेगी .रहना मुश्किल हो जाएगा

Atul Sharma said...

आज पढ़ा आपको। क्या टिप्पणी करूँ जिसका आपके लेखन से कोई मेल नहीं, आप अद्भुत हैं बस...